उजाले की ओर --संस्मरण
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नमस्कार मित्रों
जीवन हमें बहुत कुछ देता है इसमें कोई संशय नहीं है | लेकिन हर देने के पीछे लेना भी तो होता है |
जैसे हम समाज में बात करते हैं कि लेना-देना दोनों साथ होते हैं यानि सामाजिक कार्यों में एक ही व्यक्ति नहीं होता जो
केवल देता ही रहता है ,वह लेता भी है | और यही जीवन को जीने का तरीका है |
हम कोई खरीदारी करने जाते हैं तो वहाँ हम पैसा देते हैं और अपनी इच्छित अथवा अपनी आवश्यकतानुसार वस्तु खरीद लेते हैं|
हमें कोई किसी भी प्राकर की सहायता करता है ,उसके प्रति हम कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं |
कोई हमारी सेवा करता है तो हम उसे धन्यवाद ,आशीर्वाद देते हैं |
ऐसा समाज में ,समाज में क्या कहीं भी संभव नहीं है कि हम बस लेते जाएँ ,उस लेने की एवज में हम चुप्पी साध जाएँ |
यदि ऐसा होता है तो उसके दुष्परिणाम भी सामने आते हैं |
कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य हो अथवा इस जगत का कोई भी प्राणी वह संसार में लेना-देना दोनों करता है |
हम नहीं जानते ईश्वर कौन है लेकिन जो शक्ति हमें जिलाती है उसके प्रति हम कृतज्ञ तो होते ही हैं ,होना चाहिए भी |
मेरे कई मित्र ऐसे हैं जो अक्सर कहते हैं कि वे ईश्वर में नहीं मानते |ईश्वर एक खोख्ला विचार है |
मत मानो भई ,आपकी सोच है,आपके विचार हैं ,आपका चिंतन है --मत मानो --
उनका कहना है कि यह शरीर एक मशीन है,जब तक यह चलेगा ,ठीक है ,जब मशीन पुरानी पड़ जाएगी,शनै: शनै: खराब होगी व एक दिन काम करना बंद कर देगी |
ठीक है भई,आपकी यह बात सोलह आने सच है किन्तु इस मशीन को भी तो किसी ने बनाया ही होगा |
उनका कहना है ,शरीरों के मेल से ही तो जन्मता है इंसान !
ठीक है लेकिन उन इंसानों को भी तो किसी ने बनाया है न !
उनका कहना है ,नेचर है --और क्या ?
बिलकुल नेचर है ,प्रकृति है लेकिन यह प्रकृति है क्या?
पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु,आकाश --ये ही न ? तो हमारा शरीर इनसे ही बना है न ?
फिर --ये ही तो ईश्वर हुए | अगर हमारे पास इनमें से किसी एक चीज़ की भी कमी हो जाए तो हमारा शरीर स्वस्थ कैसे रह पाएगा |
लोग मंदिरों में जाकर मूर्तियों को दूध पिलाने का नाटक करते हैं ,बर्बादी करते हैं ,उसका क्या ?
आप मत करिए न लेकिन प्रकृति ,जिससे आप बने हैं और जिसके सहारे जीवित हैं ,स्वस्थ हैं उसे तो मानेंगे ?
मित्रों !मुझे बहुत अफ़सोस होता है कुछ लोगों की ऐसी मन:स्थिति पर |क्या आपको नहीं लगता कि यदि प्रकृति जिसे हम माँ कहते हैं ,वह हमें इतना कुछ देती है
तो हमारा भी कर्तव्य हो जाता है कि हम भी उसको सम्मान दें ,उसका स्वागत करें ,उसके प्रति अपने कर्तव्य पूरे करें |
कम से कम उसे नष्ट करके उसका अपमान तो न करें |
मैंने उन्हें अपने अनुसार ईश्वर परिभाषित किए लेकिन वो अड़े रहे उन अंधविश्वासों की बात करते रहे |
मुझे लगा कुछ लोगों को समझाना बड़ा कठिन होता है ,वैसे मैं समझाने वाली होती भी कौन हूँ ?
मुझे तो कुछ बातें मित्रों से करनी थीं ,मैंने कर लीं |
चलिए ,फिर --इस बात को यहीं समाप्त करते हैं और मिलते हैं अगले रविवार को |
सस्नेह
आपकी मित्र
डॉ. प्रणव भारती