Taapuon par picnic - 49 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | टापुओं पर पिकनिक - 49

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टापुओं पर पिकनिक - 49

आगोश पहचान में नहीं आ रहा था।
महीने भर में ही गेटअप पूरी तरह बदल गया था।
बालों के रंग से लेकर जूतों के ढंग तक। सब बदल गया था।
उसकी ट्रेनिंग सप्ताह में पांच दिन होती थी। उन पांच दिनों में से भी एक दिन पूरी तरह आउटिंग का होता था। एकांत में एक बहुत बड़े, खुले- खुले परिसर में हॉस्टल भी था और इंस्टीट्यूट भी।
बाहर दूर- दूर से आए हुए लोग छुट्टी के दो दिन दिल्ली और आसपास घूमने में बिताते, मगर आगोश तो शुक्रवार की शाम घर चला आता। कुल चार - पांच घंटे का तो रास्ता ही था। वह अपनी गाड़ी भी ले गया था, उसे अपने पास ही रखता था। सोमवार सुबह निकल कर वापस इंस्टीट्यूट पहुंच जाता।
हॉस्टल शानदार था। पांच सितारा होटलों वाली ही सब सुविधाएं। लोग सीमित थे पर देशी- विदेशी सब एक साथ।
वहां नए मिले साथियों में से कभी कोई कहता कि तुम हर सप्ताह अपने घर क्यों चले जाते हो? तो आगोश मज़ाक और मस्ती में जवाब देता- वहां बीबी- बच्चों को संभालना पड़ता है।
लेकिन जल्दी ही आगोश को ये एहसास हो गया कि यहां इन अजनबियों के बीच कहीं शादी- शुदा, बाल- बच्चेदार आदमी होने की छवि न बन जाए। वह जल्दी ही इस ओर सचेत हो गया, कहता - गर्लफ्रेंड को मिलने जाना पड़ता है।
- मैन, एक ही गर्लफ्रेंड के पीछे चक्कर काटोगे तो इस प्रोफेशन में कैसे मैनेज करोगे? टेक इट इज़ी, मेक सम लोकल अरेंजमेंट्स...एक ही लड़की के लिए इतनी दौड़ - भाग करोगे तो कैसे चलेगा, यहां दूसरी खोजो ! कोई - कोई कहता।
आगोश अपने पूरे बैच में शायद सबसे युवा सदस्य था तो सलाह देने और मज़ाक करने वाले भी कुछ ज़्यादा ही होते।
शनिवार को जब मनन और सिद्धांत उसे मिलते तो उसके पास बताने के लिए ढेरों बातें और किस्से होते।
सिद्धांत तो उसे छेड़ता था- क्या तुझे वहां ट्रेनिंग में बिल्कुल बोलने नहीं देते, जो तू यहां नॉन- स्टॉप बोलता है?
आगोश अनसुना कर देता। कहता- सुन... सुन यार, हमारे बैच में एक जापानी है, साला क्या- क्या प्लानिंग करता रहता है... बोलता था, वो एनिमल्स को हैंडल करता है। उनके देश में एक वैली- रिसॉर्ट है जहां सारे के सारे वेटर्स एनिमल्स हैं।
- ग्रेट! सिद्धांत चहका।
- यहां तो उल्टा है। मनन ने कहा।
- मतलब? आगोश को अचंभा हुआ।
- मतलब वर्कर्स तो आदमी लोग हैं पर मालिक लोग जानवर हैं! मनन ने कहा।
- क्या बकता है बे.. सिद्धांत बोला। तेरा मालिकों ने क्या उखाड़ लिया जो उन्हें गाली दे रहा है?
आगोश उन्हें बताने लगा- यार वो जापानी लड़का तेन बताता है कि वो ट्रेनिंग के बाद उसी रिसॉर्ट के लिए काम करेगा। दुनिया भर से टूरिस्ट्स को वहां लाएगा। ...मज़ा तो आता होगा न..आप बैठ कर दारू पी रहे हो और आपको बर्फ़ कोई कंगारू लाकर दे रहा है।
- चाहे बर्फ़ कंगारू लाकर दे, या चखना कोई ऊदबिलाव लाए तुझे तो बस दारू पीने से मतलब है! सिद्धांत ने कहा।
- नहीं यार, तेरी कसम, वहां तुम लोगों जैसी कंपनी कहां मिलती है, मैं तो तुम्हें ही याद करता रहता हूं, सैटरडे का इंतजार करता हूं.. चल आज चलते हैं कहीं!
कुछ ही देर बाद तीनों आगोश की कार में बैठे नज़दीक के हाईवे पर दौड़ रहे थे।
आगोश दिल्ली एयरपोर्ट के पास से निकलते हुए दो बार उस जगह की तलाश भी कर चुका था जो साजिद के बताने के अनुसार ख़ुद आगोश के पापा ही बनवा रहे थे। लेकिन पूरा पता- ठिकाना न होने के कारण उसका कुछ पता नहीं चला था।
वह शुक्रवार की शाम को लौटता था तो ज़्यादा देर तक खोजबीन भी नहीं कर पाता था। कुछ सड़कों पर घूम फिर कर बोर हो जाता, फ़िर लौट आता।
इमारतों के जंगल में बिना पते के कोई मुकाम ढूंढना ऐसा ही तो था जैसे किसी विशाल जंगल में कोई ख़ास जड़ी- बूटी खोजना। दिन- दिन भर भटक कर तो फ़िर भी कोई सफ़लता मिलने की उम्मीद हो सकती थी पर दिल्ली जैसे शहर से आते- जाते कंक्रीट के जंगल में किसी निर्माणाधीन इमारत को ढूंढ पाना दूर की कौड़ी ही था।
आगोश को गाड़ी चलाते- चलाते भी अकेले हंसते देख कर सिद्धांत को आश्चर्य हुआ, बोला- क्या हुआ? क्या दिख गया तुझे? कुछ रुक कर सिद्धांत ही बोला- लड़कियों को तो तू देखता नहीं है, फ़िर क्या देख कर हंसी आई?
मनन बोल पड़ा- लड़कियों को देख कर हंसी क्यों आयेगी, हां, अगर तुम्हें देख कर लड़की हंसी तो समझो फंसी..
आगोश कुछ न बोला। पर उसके हंसने का कारण भी अजीब ही था। उसे मन ही मन कुछ साल पहले अपने घर आई अपनी एक वृद्धा मौसी की याद आ गई थी जो उसकी मम्मी से अपने किसी रिश्तेदार के बारे में बात करते हुए कह रही थीं- वो दिल्ली में ही रहते हैं, मैं उनका पता तो नहीं जानती पर उनके पास नीले रंग की कार है, और वहां उनका मकान भी किसी नुक्कड़ पर है।
उन्हें याद करते हुए आगोश को ये ख्याल आया कि क्या दिल्ली में कोई पता- ठिकाना इन दोनों संकेतों के आधार पर ढूंढा जा सकता है?
बिल्कुल यही स्थिति तो ख़ुद आगोश की थी। उसे भी तो साजिद ने केवल इतना ही बताया था कि एयरपोर्ट से जयपुर के रास्ते में किसी सड़क पर वो विशाल इमारत बन रही है...वो भी मुख्य सड़क पर नहीं, बल्कि कहीं भीतर को जाकर।
फ़िर आगोश इस काम में किसी को भी अपना राजदार नहीं बनाना चाहता था। अपने डैडी या मम्मी तक से उसने कभी ये बात पूछने की कोशिश नहीं की थी।
डैडी से तो उसे कोई उम्मीद ही नहीं थी कि वो उसे इस बारे में कोई सूचना ख़ुद देंगे, जबकि सुल्तान और अताउल्ला जैसे लोग ख़ुफ़िया तरीक़े से उनके साथ जुड़े हुए थे। हां, मम्मी से वह ज़रूर कुछ पूछ सकता था, पर अब उसे थोड़ा- थोड़ा यकीन होने लगा था कि शायद मम्मी को भी डैडी ने इस बारे में कुछ नहीं बताया है। क्योंकि यदि ऐसा कुछ होता तो किसी न किसी रूप में मम्मी के मुंह से ऐसी बात कभी न कभी ख़ुद ही उजागर हो जाती।
आगोश का मानना था कि- लेडीज़ आर जनरली स्पीकिंग जनरली स्पीकिंग!
तीनों ने खाना बाहर ही खाया।
लौटने के बाद आगोश जब घर में घुसा तो मम्मी बेहद चाव से डायनिंग टेबल पर खाना लगाने में व्यस्त थीं। जब से आगोश अपनी ट्रेनिंग के कारण दिल्ली में रहने लगा था वो भी शनिवार - रविवार का ही इंतजार करती थीं और उन दिनों अपने हाथ से तरह- तरह की चीज़ें बनाने में लगी रहती थीं।
नौकरानी भी उनसे ये सुन- सुन कर उकता जाती थी कि आगोश को ये पसंद है, आगोश को वो पसंद है।
नौकरानी बेचारी मन ही मन ये सोचती रह जाती कि वो भी तो इस घर में बरसों से काम कर रही है। खाना भी बनाती रही है... क्या उसे नहीं मालूम कि आगोश को क्या पसंद है और क्या नहीं? पर 'मम्मी साहब ' के आगे कुछ बोल नहीं पाती थी।
असल में आगोश के डैडी के ज़्यादातर शहर से बाहर रहने के कारण ही ऐसा होता था कि मम्मी का अकेले अपने लिए कुछ अच्छा खाना बनवाने का चाव जाता रहा था।
मम्मी ने जब ये सुना कि आगोश खाना बाहर से खा कर आ गया है तो उनका मुंह उतर गया।