Nainam chhindati shstrani - 44 in Hindi Fiction Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 44

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नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 44

44

पुण्या का ज़ख्म अभी काफ़ी गहरा था परंतु उसने आज पूरा दिन काम किया था सो पीड़ा अधिक बढ़ गई थी | ’शूट’ से लौटकर वह दवाई खाकर बिस्तर पर लेट गई | खाना पूरी यूनिट ने बाहर ही खा लिया था | सभी थके हुए थे, समिधा व पुण्या के भीतर तो कोई और ही जंग छिड़ी हुई थी | कितना कठिन होता है मन से संवेदनाओं का बाहर निकालकर बाहर फेंक देना, वे मन में चिपक ही तो जाती हैं | हम सब मुखौटे या खोल पहनकर जीते रहते हैं, ऐसे मुखौटे जिनमें कभी-कभी साँस लेना भी कठिन हो जाता है, दम घुटने लगता है | क्या आज का इंसान ज़हरीले वातावरण में साँस नहीं लेता ?ज़हर हमारे भीतर घुलता रहता है और हम छटपटाते रहते हैं उसमें से निकलने के लिए !

‘ट्रिन-ट्रिन’ की आवाज़ से दोनों अपनी सोच से बाहर निकलीं | 

मुक्ता का फ़ोन था, वह पुण्या के पैर के बारे में जानना चाहती थी, साथ ही कुछ देर दोनों के पास बैठना भी | 

“आप लोगों ने बाहर क्यों खा लिया दीदी ?मैंने आप दोनों के खाने की तैयारी करवा ली थी | ”

“आज दरअसल बहुत देर हो गई थी, सब बहुत थके हुए थे और पुण्या ने भी पूरे दिन दर्द में काम किया सो उसका दर्द बढ़ गया, अभी दवाई खाकर लेटी है | ”

“अब तो आपके वापिस जाने का समय भी पास आ गया | ”मुक्ता ते स्वर में उदासी झलक रही थी | 

“सोच रही थी, कुछ देर आपसे बातें कर सकती तो ---“मुक्ता ने कुछ अटकते हुए अपने मन की बात कही | 

समिधा भी बहुत थकी हुई थी पर मुक्ता के स्वर ने उसे मजबूर कर दिया कि वह कुछ देर उससे बात करे | पुण्या अपने मन व शरीर की पीड़ा से इतनी शिथिल थी कि समिधा न तो मुक्ता को वहाँ आने का निमंत्रण दे सकती थी और न ही पुण्या को अपने साथ चलने के लिए कह सकती थी और पुण्या को अकेला छोड़ना भी उसे ठीक नहीं लग रहा था | समिधा सोच ही रही थी कि क्या करे?पुण्या ने उसे पशोपेश से बाहर निकाल लिया | 

“मेरी तो बिलकुल हिम्मत नहीं है दीदी, आप मुक्ता को यहाँ बुलाएंगी तब भी मैं बात तो नहीं कर पाऊँगी | दवाई लेने से मुझे नींद भी आ रही है | आप कुछ देर के लिए उनके पास बैठ सकें तो हो आइए | मेरी चिंता मत कीजिए, मैं तो सो ही जाऊँगी | 

थकी, टूटी समिधा ने कुछ देर मुक्ता के पास बैठ आने का निर्णय लिया और बिस्तर से उठकर स्लीपर पैरों में डालकर पीछे के दरवाज़े की ओर बढ़ चली | उसने मुक्ता से कह दिया था कि वह कुछ देर के लिए उसके पास आ रही है | पीछे का दरवाज़ा खोला तो अंधकार में एक आकृति दिखाई दी | वह सहमकर पीछे हट गई ---आकृति ने टॉर्च जला दी, छोटे से टुकड़े में हल्की रोशनी पसर गई | 

“चलिए मैडम –“

रौनक की आवाज़ थी | पूछने पर उसने बताया कि अभी रात को पीछे का बल्ब ‘फ्यूज’ हो गया था इसीलिए वह उसे लेने आया था | समिधा ने ध्यान से देखा पीछे का काफ़ी सारा भाग अंधकार से भरा हुआ था | कुछ दूर जेल के बड़े लोहे के मोटे सींकचों वाले दरवाज़े पर दो बल्ब झूल रहे थे जो केवल दरवाज़े के आस-पास ही रोशनी फेंक रहे थे | दो डग भरते ही वह मुक्ता के दरवाज़े पर थी | मुक्ता अपने पीछे के सहन के दरवाज़े पर खड़ी उसकी प्रतीक्षा कर रही थी | 

“पता नहीं, क्या हुआ ये दोनों पड़ौसी बल्ब एक साथ फ़्यूज़ हो गए | ”मुक्ता ने इशारे से मुस्कुराकर अपने तथा उस सटे हुए क्वार्टर की ओर इशारा किया जिसमें समिधा व पुण्या ठहरे हुए थे और समिधा के गले में हाथ डालकर उसे अपने प्रकाश से भरे हुए सहन में ले गई | “और बताइए, क्या चल रहा है ?”समिधा ने अपने दोनों पैर अनजाने में सोफ़े पर रख लिए थे | दर्द के कारण उसके पैर काँप से रहे थे और आँखों के पपोटे मानो मन भर के भारी हो रहे थे | अचानक उसे ध्यान आया और उसे अपने पैरों को नीचे रखना चाहा | 

“अरे दीदी !रहने दीजिए न –आराम से बैठिए | ”मुक्ता ने अपने स्थान से उठकर उसके पैरों को फिर से सोफ़े पर टिकाने का उपक्रम करते हुए कहा | 

“अरे रे !क्या कर रही हैं ?” उसने पैरों को समेटकर फिर से सोफ़े पर टिका दिया | 

मुक्ता काफ़ी बुझी-बुझी सी थी, आँखें भी रोने के कारण लाल थीं, उनमें उदासी भरी हुई थी | लगता था किसी गंभीर बात ने उसे काफ़ी उदास कर दिया था | उसकी सूरत देखकर समिधा अपने मन और तन की थकान भूलने लगी | ऐसा बहुधा होता है हम किसी दूसरे की स्थिति देखकर अपनी मन:स्थिति से कुछ देर के लिए उबरने लगते हैं | उस समय हमारे समक्ष केवल सामने वाले की परेशानी होती है | हम अपना दुख भूलकर किसी न किसी प्रकार उसकी सहता करना चाहते हैं| 

इस बार समिधा के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा था, उसकी मन:स्थिति की ज़मीन पर परतों पर परतें चढ़ती जा रही थीं | झाबुआ में बिखरे समाज की अनगिनत कष्टदायक परतें, भूख और गरीब आदिवासियों पर अहसान लादने वाले वकील जैसे लोगों की परतें, अपने जीवन के पीले पड़े हुए पृष्ठों को पलटकर देखने से जो चित्र बन-बिगड़ रहे थे उनकी परतें, पुण्या के अतीत की और भी न जाने कितनी पीड़ादायक बातों ने मन पर ढेरों परतें चढ़ा रखी थीं –अब मुक्ता की स्थिति उसे और भी असहज बना रही थी | 

“आज तो आप लोग बहुत थक गए होंगे | ”मुक्ता ने सहज दिखने का प्रयास करते हुए समिधा से पूछा | उसकी आँखों में अभी भी नमी झाँक रही थी | 

“बताइए मुक्ता, क्यों सुस्त दिखाई दे रही हैं ?”समिधा ने अपनी थकी हुई आँखों को बमुश्किल खोल रखा था | 

मुक्ता की पनीली आँखों में से पतनाला बहने लगा, समिधा की बंद होती आँखें नींद की आगोश से निकल भागीं और मुक्ता के मुख पर चौड़ी हो गईं | कभी-कभी स्थिति इतनी नाज़ुक होती है कि शब्द छोटे पड़ जाते हैं | कंठ में फँसकर कुछ कहने को आकुल-व्याकुल मौन संवाद करने लगते हैं, मौन शब्द तैरने लगते हैं दिल की आकाश-गंगा में और हम चुप्पी साधे उन्हें तैरते हुए देखते रहते हैं | 

वर्मा साहब घर में दिखाई नहीं दे रहे थे, मुक्ता का अकेलापन, उसका शिथिल शरीर और सूनी आँखों की पनीली दृष्टि समिधा को बेचैन करने लगी | वह अपनी थकान और पैरों का दर्द भूलकर एक छलाँग लगाकर मुक्ता के पास पहुँच गई और उसके चेहरे को हाथों में भर लिया | मुक्ता के आँसू पोंछते हुए समिधा ने पूछा –

“आपकी तबीयत तो ठीक है ?”समिधा ने उसकी पीठ सहलाई | इधर-उधर देखा, रौनक कहीं दिखाई नहीं दिया तो रसोईघर से जाकर फ़्रिज से पानी की एक बोतल निकाल लाई | 

“लो, थोड़ा पानी पीओ मुक्ता, स्वस्थ होकर बताओ क्या बात है ?इतना घबराई हुई क्यों हो ?”

“घबराहट तो ताउम्र साथ रहने वाली है दीदी | ”मुक्ता के स्वर की बेचारगी से समिधा की बेचैनी बढ़ने लगी | उसकी आँखों व चेहरे पर पसरी करुणा ने समिधा के मन में घबराहट भर दी | 

“मुक्ता ! आप इतनी बहादुर हैं, बाहर जाने के लिए आपके पास हर समय गाड़ी, ड्राइवर तैनात रहता है ।क्या ठाठ हैं आपके !आप इतनी घबराएंगी तो आम लोगों का क्या हाल होगा ?”समिधा ने उससे परिहास करते हुए कहा | 

“दीदी ! आम आदमी अधिक ढंग से जी सकता है, ऐसे ठाठ किसी को भी न मिलें | जेलर की ज़िंदगी के पीछे जाने कितने लोग हाथ धोकर पड़े रहते हैं | ”मुक्ता ने सुबकी लेकर कहा | 

वर्मा एक निहायत गंभीर किस्म के अफ़सर थे, उनका काम दुर्घटना –स्थल पर जाकर अपराधी को पकड़कर लाना नहीं था परंतु यह उनकी आदत में शुमार हो गया था कि किसी भी गंभीर दुर्घटना के घट जाने पर वे पुलिस के साथ स्वयं भी जाते थे | आज भी वे पास के गाँव में गए थे, मर्डर का केस था | यह स्थिति मुक्ता के लिए नई नहीं थी, हर दस, पंद्रह दिनों में मुक्ता को इस त्रासदी से गुज़रना पड़ता था | मुक्ता को आज भी पति के बाहर जाने पर घबराहट की वह परछाईं घेरे रहती है जिसने विवाह के पश्चात यहाँ आने के दो-तीन दिन बाद अचानक ही घेर लिया था और जो ताउम्र उसका पीछा करती रही थी | 

नए जीवन के सतरंगे सपनों के पंख लगा, मुक्ता कितना उत्साह, कितना उल्लास मन में समेटे वह पी के आँगन में आई थी | कैसी नाज़ुक होती है वह कमसिन सी उम्र !सपने आँखों में भरे तीसरे दिन शाम को जब वह जेल के मुख्य द्वार पर खड़ी पति के लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी कि अचानक ही एक कटा हुआ सिर उसके पैरों के पास आकर गिरा, वह वहीं बेहोश हो गई थी | 

इस बेहोशी ने उसे एक ऐसी अजीब सी मन की जेल में कैद कर दिया था जिसके सींकचे बहुत मज़बूत थे और निकलने की बेहद चेष्टा करने के उपरांत भी वह उन सींकचों से नहीं निकल पाई थी | मुक्ता के पति, सास-श्वसुर सबने ही उसे उस वातावरण से निकालने की भरसक चेष्टा की थी | उसने अपने दोनों बच्चों को अपनी ससुराल में जन्म दिया था और उनके समझदार होने तक पति के पास तथा ससुराल में इधर से उधर शंटिंग करती रही थी, हर समय एक अजनबी खौफ़ में भरी !

‘आप ससुराल में क्यों नहीं रह गईं ?”समिधा पूछे बिना न रह सकी जबकि वह जानती थी कि यह प्रश्न बेतुका ही था | 

“दीदी ! आप तो जानती हैं विवाह के बाद औरत अपनी कहाँ रह जाती है?जब बच्चे छोटे थे तब डरती-डरती उन्हें यहाँ-वहाँ करती रही | जब वे पढ़ने लायक हो गए तब ससुर जी ने उन्हें अपने पास ही स्कूल में उनका प्रवेश दिलवा दिया | और बड़े होने पर उनका दाखिला हॉस्टल में करवा दिया गया | दो-चार दिन की बात तो थी नहीं –मेरे लिए उम्र भर की बात थी | इनको जितने दिन मैं यहाँ छोड़कर जाती, उतने दिन बीमार सी बनी रहती | ”सच है, ऐसी स्थिति में औरत की ज़िंदगी एक पैंडुलम सी बनकर इधर से उधर झूलती रहती है| वह न अकेले रह पाती है और न इस प्रकार के वातावरण से बिना भयभीत हुए !

मुक्ता को इस बात का अपराध-बोध था कि वह न तो बच्चों को ही अपना सौ प्रतिशत दे पाई थी और न ही पति को ! उसका मन व तन टुकड़ों में बँटा हुआ ऐसा व्यक्तित्व बनकर रह गया था जो उसके अधूरेपन को उससे दूर ही नहीं होने देता था | समिधा ने बहुत शिद्दत से महसूस किया कि वास्तव में मुक्ता के भीतर इस प्रकार घबराहट समा गई है जिसका आसानी से निकल पाना बहुत कठिन था | परंतु इस घबराहट का निकलना मुक्ता के लिए बहुत आवश्यक था | 

मुक्ता ने उस गाँव व घटना का ज़िक्र किया जिससे समिधा व पूरी यूनिट अभी गुज़रकर आए थे | वह वही गाँव था जिसकी कहानी ने समिधा की रूह कंपकंपा दी थी ] और उसे एक असहज स्थिति में बाँध दिया था | मुक्ता की घबराहट को भाँपते हुए समिधा ने मुक्ता से इस बात का कोई ज़िक्र नहीं किया था | उसकी बात सुनकर वह चुप बनी रही | जेलर जिसको पकड़कर जेल में बंद करते, वही उनका दुश्मन बन बैठता | इस प्रकार की घटनाएँ रोज़ ही घटित होती रहतीं जैसे समिधा व पुण्या ने उस स्त्री को मारते देखा था जो जेल में नाली के ज़रिए अपने प्रेमी को ताड़ी देने आई थी | 

उस दिन जेलर वर्मा देर गए वापिस लौटकर आए | समिधा ने मुक्ता के मन की ढेर सी व्यथा अपने सीने में समेट ली थी और अपने मन की बेचैनियों के गट्ठर को और भारी कर लिया था | 

“अरे !मुक्ता, अब तक दीदी को जगाए रखा है ?”वर्मा ने पत्नी से शिकायती लहज़े में पूछा | 

मुक्ता ने पति को कोई उत्तर नहीं दिया, समिधा ने स्थिति को समझते हुए कहा –

“अब तो हम जाने वाले हैं वर्मा साहब, सोचा कुछ देर मुक्ता जी के पास बैठकर आ जाऊँ | फिर तो न जाने कब मिलना हो ”

वर्मा खूब समझ रहे थे कि समिधा मुक्ता के कारण ही अब तक उसके पास बनी हुई है | इतने वर्षों की निकटता से पत्नी के हर व्यवहार के पीछे के कारण को वे बखूबी समझते थे | मुक्ता मुक्त होना चाहती थी पर पति के साथ बंधन में ही उसकी मुक्ति थी, बच्चों के बंधन में ही उसकी तृप्ति थी और सबके साथ सहज रूप से मिलकर रहने में ही उसकी शक्ति थी –लेकिन इतनी सी ख्वाहिश पूरी न हो पाने के कारण वह एक अधूरेपन के खोल में घुटी हुई साँसें लेती रही थी जिस कारण उसने अपने तन व मन में न जाने कितने रोग पाल लिए थे | 

गई रात जब जेलर वर्मा समिधा को टॉर्च लेकर छोड़ने आए तब दरवाज़े पर खड़े होकर ही बहुत सी ऐसी बातें उससे बाँटकर गए जो वे मुक्ता के सामने कहना नहीं चाहते थे | मज़बूरी दोनों ओर थी –समाधान अब अवकाश प्राप्त होने के बाद ही निकलना था |