101. नैतिकता का तालाब
यह घटना कई वर्ष पूर्व की है परंतु पीढी दर पीढी वहाँ के आसपास के निवासियों की जुबान पर आज भी रहती है। जबलपुर को तालाबों को षहर भी कहा जाता था जिनमें से एक तालाब के निर्माण का अदभुत प्रसंग है जो कि आज भी हमारे लिए आदर्ष है। रामानुज नाम के एक जमींदार के यहाँ एक बालक का जन्म हुआ परंतु दुखद बात यह थी कि उस बालक की माता उसे अपना स्वयं का दूध पिलाने में असमर्थ थी। ऐसी विकट परिस्थिति में एक धाय माँ ने उसे अपने बच्चे के समान दूध पिलाकर उसका लालन पालन किया। वह धाय माँ और उस बच्चे के बीच इतना भावनात्मक प्रेम हो गया था कि वह उसका लालन पालन बिल्कुल अपने बच्चे के जैसा करती थी। उसकी इस निस्वार्थ सेवा, प्रेम और स्नेह को देखते हुए उस बच्चे की माँ ने उस धाय माँ से कहा कि जब बालक बडा होकर धन कमाने लगेगा तो इसकी पहली कमाई पर तुम्हारा ही अधिकार होगा।
समय बीतता गया और यह बात आई गई हो गई। कालांतर में वह बालक संस्कृत का प्रकांड विद्वान बना और उसकी प्रतिभा से प्रभावित होकर एक दिन वहाँ के राजा ने उसे अपने गले से हीरों का हार उतारकर उसे सम्मानपूर्वक दिया। उसने वह हार अपनी माँ को घर आकर पहली कमाई के रूप में दे दिया। वह हार इतना कीमती था कि उसे देखकर अच्छे से अच्छे व्यक्ति का मन भी डोल जाए परंतु उसकी माँ को बचपन में धाय माँ को दिया हुआ वचन आज भी याद था उसने अपने बेटे को यह हार अपने हाथों से उस धाय माँ को देने का निर्देष दिया। यह सुनकर धाय माँ हतप्रभ रह गई और हार को अपने हाथों में लेकर भेंट स्वीकार करके उसे पुनः वापस कर दिया और कहा कि इतने मँहगे हार का मैं क्या करूगी ? अब लडके की माँ ने कहा कि मेरे वचन के अनुसार यह हार तुम्हारा हो गया हैं और मैं इसे किसी भी कीमत पर वापिस स्वीकार नहीं करूगी। अब धाय माँ को उसे वापिस लेना ही पडा और उसने उस हार को बेचकर उससे प्राप्त धनराषि से जनता के उपयोग के लिए एक तालाब का निर्माण करवा दिया। इस घटना को लोग आज भी नैतिकता और त्याग के रूप में आज भी याद करते है।
102. जीवन को सफल नही सार्थक बनाएँ
रामनगर नाम के एक षहर में हरिदास नाम का एक गरीब व्यक्ति रहता था। वह एक बहुत महत्वाकांक्षी व्यकित था और उसके मन में प्रबल इच्छा थी कि वह एक दिन धनवान बनकर सुख सुविधा पूर्ण जीवन जीते हुए राजनीति में भी अपनी पैठ बना सके। वह अपनी कडी मेहनत,बुद्धिमत्ता एवं परिश्रम से धीरे धीरे धन कमाकर काफी अमीर बन गया। अब उसने राजनीति में भी अपने पैठ बना ली थी एवं षहर में एक आलीषान मकान का निर्माण करके उसमें रहने लगा।
वह अपने जीवन में बहुत खुष था कि उसके जीवन की तीनों इच्छाएँ पूरी हो चुकी थी। एक दिन षहर में एक महात्मा जी का आगमन हुआ जिनकी बहुत प्रसिद्धि आसपास के इलाके में थी। हरिदास भी एक दिन उनका आषीर्वाद लेने गया उसने देखा कि वहाँ श्रद्धालुजनों की काफी भीड थी और महात्मा जी सबको बारी बारी से बुलाकर अपने आषीर्वचन देकर उन्हें विदा कर रहे थे।
हरिदास का क्रम आने पर वह स्वामी जी से मिला उसे देखकर वे मुस्कुराए परंतु कुछ बोले नही। यह देखकर हरिदास ने उनसे आषीर्वाद पाने की आकांक्षा व्यक्त की स्वामी जी बोले मैं तुम्हें क्या आषीर्वाद दूं ? प्रभु की कृपा से तुम्हारे जीवन की तीनों महत्वाकांक्षाएँ पूरी हो चुकी है। तुम षहर के सफल व्यक्तियों में से एक हो, हाँ एक बात जरूर कह सकता हूँ कि तुम्हारा जीवन सफल तो है परंतु सार्थक नही हुआ है। हरिदास यह सुनकर चैंका और उसने बडी विनम्रता से महात्मा जी से पूछा कि यह सार्थकता क्या है ? और इसकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? महात्मा जी ने कहा मैं तुम्हें एक छोटा सा उदाहरण देता हूँ, तुम समझदार हो आगे की बात अपने आप समझ जाओगे।
एक चिडिया अपने नर चिडवा के साथ अपनी मेहनत से बनाए हुए घोंसले में रहती है। वह अपने बच्चों का लालन पालन अच्छे से अच्छे ढंग से करती है एवं भोजन के लिए दाने का भी प्रबंध कर लेती है। उसकी इतनी ही आवष्यकताएँ है जिन्हें पूर्ण करके वह सुखी रहती है। ईष्वर ने मानव की संरचना करके उसे चिंतन, मनन और मंथन की बुद्धि दी हैें। वह अपनी आवष्यकताओं की पूर्ति हो जाने के पष्चात् इस दिषा में अंतर्मन एवं अंतर्चेतना से सोचने का प्रयास करे।
यह सुनकर हरिदास वापिस अपने घर आ गया और रात में गंभीरतापूर्वक महात्मा जी के वचनों का अर्थ समझने का प्रयत्न करता रहा। अब उसके जीवन में धीरे धीेरे परिवर्तन होने लगा। वह अपने धन, राजनीति एवं संपर्कों का उपयोग गरीब जनता के हित में, गरीब विद्यार्थियों को षिक्षा प्राप्ति हेतु मदद करने, गरीब कन्याओं के विवाह एवं अन्य सामाजिक कार्यों में अपने धन का मुक्त हस्त से खर्च करने लगा। उसके इस व्यवहार से षहर में उसका बहुत मान सम्मान भी बढ़ गया था और उसकी छवि एक व्यापारी के साथ साथ कृपालु, सज्जन एवं दानी व्यक्ति की भी हो गई थी।
एक वर्ष के बाद उन्ही महात्मा जी का षहर में वापिस आगमन हुआ। हरिदास भी उनसे मुलाकात हेतु गया। स्वामी जी ने अब उसे आषीर्वाद देते हुए कहा कि पहले तुम धन उपार्जन करके एक सफल व्यक्ति थे परंतु अब उस धन का सदुपयोग करके अब तुम्हारा व्यक्तित्व सार्थक भी हो गया है। इसलिए कहा जाता है कि मानव जीवन सफलता के साथ साथ सार्थक भी होना चाहिए।
103. युवा
रामसिंह एक बहुत ही होनहार, बुद्धिमान, षिक्षा के प्रति समर्पित व्यक्तित्व का धनी था। उसने वाणिज्य विषय में स्नातक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के उपरांत नौकरी के लिये कई जगह प्रयास किया परंतु उसे निराषा ही हाथ लगती थी। एक दिन वह गंभीरतापूर्वक मन ही मन सोच रहा था कि युवा देष की षक्ति होता है। उसके कंधों पर राष्ट्र की प्रगति एवं उन्नति का भार है। वही देष की सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों का प्रणेता होता है। आज वह युवा है, ऊर्जावान है, मन में कुछ नया करने की अभिलाषा है। यह सोचते सोचते उसके मन में अचानक ही भाव आता है कि वह एक षिक्षाविद् है और क्यों ना छात्रों के लिये कोचिंग इंस्टीट्यूट बनाये और उसे यह स्वरोजगार का माध्यम बहुत उत्साहित करता है।
वह इस दिषा में बढकर एक कोचिंग इंस्टीट्यूट वाणिज्य विषय के विद्यार्थियों के लिए बना देता है। इसकी विषेषता यह होती है कि इसमें सीमित संख्या में विद्यार्थियों का चयन किया जाता है और उनसे किसी प्रकार की मासिक फीस ना लेकर एक नई व्यवस्था की जाती है कि वे स्वयं षिक्षक द्वारा प्रदत्त षिक्षा का स्वयं ही मूल्यांकन करें और एक बंद लिफाफे में बिना अपना नाम लिखे उसे गुरूदक्षिणा के रूप में षिक्षक को दे देंवे। इससे षिक्षक और विद्यार्थियों के बीच में प्रेम बढता है एवं षिक्षक द्वारा दी जा रही कोचिंग छात्रों को कितनी लाभप्रद प्रतीत हो रही है, इसका मूल्यांकन भी हो जाता है। रामसिंह ने अपने इंस्टीट्यूट का नाम गुरूकुल रखा था एवं स्वयं ही षिक्षा प्रदान कर इसका षुभारंभ किया। उसे यह देखकर आष्चर्य हुआ कि माह के अंत में गुरूदक्षिणा के रूप में अध्ययनरत् छात्रों ने जो राषि समर्पित की वह सामान्य षुल्क से कही बहुत अधिक थी।
इस पद्धति को छः माह तक सफलता पूर्वक संचालन करने के उपरांत उसने अपने गुरूकुल का विस्तार करके अन्य विषयों को भी षामिल कर लिया। उसका यह प्रयास बहुत सफल रहा। इस पद्धति से षिक्षक और विद्यार्थी दोनो ही संतुष्ट एवं प्रसन्न रहते थे। इस प्रकार व्यक्ति को कभी निराष नही होना चाहिए एवं आषान्वित रहकर प्रयास करते रहना चाहिए। जीवन में सफलता अवष्य मिलेगी।
104. अनुभव
एक चित्रकार केनवास पर विभिन्न प्रकार के रंगों की छटाओं पर अपनी कूची से आडी तिरछी रेखाओं के माध्यम से इतनी अच्छी चित्रकारी कर रहा था कि उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता था जैसे केनवास जीवंत हो गया हो। उसके पास उसका नाती भी खडा खडा अपने दादाजी की मेहनत, लगन एवं परिश्रम को देख रहा था। उसने सहज भाव से दादाजी से पूछा कि आप चित्र कैसे और क्यों बनाते है ? दादाजी ने मुस्कुरा कर कहा कि मैं अपनी मन की भावनाओं और विचारों को चित्रकला के माध्यम से केनवास पर उभारता हूँ और पेंटिग का रूप लेने के उपरांत यह मूल्यवान हो जाती है। यह कला की साधना के साथ साथ धनोपार्जन का भी माध्यम है। अब वह बालक पूछता है कि आपके पास में इतने सारे लोग पेंटिग सीखने को क्यों आते है ?
दादाजी ने उसे सहज भाव से समझाया और कहा कि मुझे बचपन से ही चित्रकारी का षौक रहा है जो कि अब इस उम्र में आते आते परिपक्व हो गया है। मैं अपने इस अनुभव को चित्रकला में रूचि रखने वालों के साथ बाँटता हूँ और उन्हें सिखाने का प्रयास करता रहता हूँ इससे वे चित्रकला की बारीकियों को सीखकर उनका उपयोग करते है। उन्होंने उसके सिर पर हाथ फेरते हुये उससे कहा कि जीवन में अनुभव बहुत महत्वपूर्ण एवं अमूल्य होता है। जब तुम छोटे रहते हो तो दूसरों से अनुभव लेना चाहिए और जब उम्रदराज़ हो जाओ तो अपने अनुभवांे को दूसरों केा प्रदान करना चाहिए। यह मानवीय कर्तव्य है और तुम्हें इससे मानसिक तृप्ति एवं आत्मीय संतोष प्राप्त होगा। यह सुनकर वह बालक बोला कि दादाजी मैं भी आपकी इस सोच को अपनाकर जीवन में आगे बढूँगा।
105. षिल्पकार की कला
एक षिल्पकार रवि पर्यटन हेतु पुरी के समुद्र तट पर विचरण कर रहा था। वहाँ समुद्र किनारे रेत का जखीरा देख उसके मन में रेत में कुछ आकृतियाँ बनाने का भाव उठा और उसने उसे क्रियान्वित करते हुए, रेत में ही बहुत संुदर आकृतियाँ बना दी। जिन्हें देखकर लोग बहुत खुष हुये और उसे बहुत प्रषंसा मिली। रात में अचानक ही आंधी तूफान आने से तेज हवा के झोंकों के कारण रेत अस्त व्यस्त होकर आकृतियाँ मिट गई। यह देखकर वह बहुत दुखी हो गया और उसकी आँखेां में आंसू आ गये।
उसी समय एक पर्यटक उसे निराष देखकर उसके पास आया उसके कंधे पर हाथ रखकर बोला मित्र तुम बहुत अच्छे षिल्पकार हो और तुम में असाधारण प्रतिभा है। तुम निराष क्यों हो रहे हो, विध्वंस और सृजन तो संसार का नियम है। जीवन में सृजन विध्वंस में परिवर्तित होता है और फिर यह विध्वंस किसी नये सृजन को जन्म देता है। तुम मेहनत और लगन से इस चुनौती को स्वीकार करो और कल से भी अच्छी कलाकृतियाँ बनाकर अपनी सृजन क्षमता का परिचय दो। वक्त और भाग्य तुम्हारी कलाकृति को मिटा सकते है परंतु तुम्हारी कार्यक्षमता और प्रतिभा को समाप्त नही कर सकते। तुम उठो और निराषा छोडकर आषा के दीपों को मन में संजोकर अपनी पूरी क्षमता और लगन से पुनः जुट जाओ।
उसकी बात सुनकर वह षिल्पकार बहुत प्रभावित हुआ और उसने फिर से रेत पर और भी संुदर आकृतियाँ बनाकर सबका मन मोह लिया। उसकी कार्यकुषलता का सम्मान करते हुए क्षेत्रीय नागरिकों के द्वारा उसका अभिनंदन किया गया। अब वह प्रतिवर्ष वर्षा ऋतु के समाप्त होने के बाद वहाँ पर जाता है ओर रेत पर अपनी षिल्पकला का प्रदर्षन करके प्रषंसा प्राप्त करते हुए आत्मीय संतुष्टि का अनुभव करता है।
106. सेठ गोविंददास की सिद्धांतवादिता
श्रीमती पदमा बिनानी देष के सुप्रसिद्व औद्योगिक घराने बिनानी गु्रप आॅफ इंडस्ट्रीज की आधार स्तंभ है। आपका साहित्य और समाज सेवा के प्रति जबरदस्त रूझान बचपन से ही रहा है। उनसे मुंबई में मुलाकात के दौरान उन्होंने अपना संस्मरण बताते हुए कहा कि मेरे पिताजी राजनीति में देषभक्ति, ईमानदारी, त्याग और बलिदान के प्रति समर्पित थे। वे कहते थे, कि राजनेता के चरित्र और व्यवहार से यह बातें प्रकट होना चाहिए कि वह जनसेवा की राजनीति के लिये समर्पित है ना कि पद, प्रतिष्ठा और पैसे के लिये राजनीति कर रहा है। हमें सत्ता की ऐसी भूख ना हो जिसके लिये हम किस भी हद को पार कर जायें। हमें नैतिक मूल्यों और आदर्षों को स्थापित करने के लिये राजनीति करना है ताकि भावी युवा पीढी इससे कुछ प्रेरणा ले सकें। उनका मत था कि राजनेता और राजनीतिज्ञ में फर्क होता है। राजनीतिज्ञ अगले चुनाव को ध्यान में रखकर राजनीति करता है जबकि राजनेता अगली पीढी को अपने ध्यान में रखता है।
मेरे पिताश्री का संसदीय जीवन सेंट्रल असेंबली से लेकर लोकसभा तक 50 वर्षों का रहा और उन्होंने नेहरू परिवार की तीनों पीढियों पंडित मोतीलाल नेहरू, पंडित जवाहरलाल नेहरू और श्रीमती इंदिरा गांधी के साथ मिलकर कांग्रेस के लिये काम किया था। वे कांग्रेस के उन तमाम नीतियों के मुखर विरोधी थे जो गांधी जी की नीतियों से मेल नही खाती थी। वे गोरक्षा और राष्ट्रभाषा हिंदी के सवाल पर कांग्रेस की नीतियों के विरूद्ध जाकर लोकसभा में आवाज उठाते थे। मेरे जीवन का यह अविस्मरणीय संस्मरण है और यह प्रसंग आज भी मुझे याद है कि उन दिनों में दिल्ली स्थित उनके षासकीय आवास में ही थी। संसद का लोकसभा का सत्र चल रहा था और मेरे पिताजी को लोकसभा में अपना उद्बोधन देना था। वे कांग्रेस की नीतियों के विरूद्ध बोलने की पूरी तैयारी कर चुके थे तभी कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता उनको समझाने के लिये आवास पर आये और उन्हेांने धमकी भरे लहजे में यह कहा कि यदि आपने सदन में पार्टी की नीतियों के प्रतिकूल बोला तो आप पर अनुषासनात्मक कार्यवाही की जायेगी। इस पर सेठ गोविंददास जी ने जवाब दिया कि मैं कांग्रेस से अधिक अपने देष और देषवासियों के लिये प्रतिबद्ध हूँ और मेरा त्यागपत्र मेरी जेब में है। उनके इस जवाब से वे कांग्रेस नेता स्तब्ध रह गये क्योंकि उस समय कांग्रेस में रहते हुय नेहरू जी के विरूद्ध बोलेने की बात तो दूर चिंतन भी संभव ना था।
मेरे पिताश्री किसी दल और व्यक्ति के प्रति नही बल्कि मूल्यों की राजनीति के प्रति समर्पित थे और वे आजीवन अपनी इन नीतियों पर अडिग रहे जिसका परिणाम यह हुआ कि वे अपने पचास वर्षों के संसदीय जीवन में मंत्री पद से सदैव दूर रहे परंतु इसका उन्हें कभी कोई दुख नही था। आज का युवा वर्ग जो कि राजनीति में रूचि रखता है उसे जीवन में मूल्यों की राजनीति के प्रति समर्पण की प्रेरणा लेना चाहिये। मूल्यों से समझौता करके यदि सत्ता मिल भी जाये तो सत्ता का क्या मूल्य ?