वर्तमान समय में मानव अपने व्यक्तित्व के प्रति अत्यधिक सजग होता जा रहा है वह अनेक बाहय साधनो तथा आधुनिक वेशभूषा द्वारा अपने व्यक्तित्व को निखारने का प्रयास करता है परंतु उच्च कोटि के व्यक्तित्व निर्माण हेतु मूलतः जिस वस्तु की और उसका ध्यान जाना चाहिए वह अछूती ही रह गयी है। बहुत कम लोग यह जानते हैं के व्यक्तित्व निर्माण में हमारे भोजन का अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान है । भोजन द्वारा शरीर का केवल पोषण ही नहीं होता बल्कि वह मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण में भी असाधारण भूमिका निभाता है। मानव के व्यक्तित्व का निर्माण उसके मन की विचारधाराओं के अनुसार ही होता है और मन की विचारधाराओं के सर्जन में उसका भोजन अथवा आहार की एक अहम भूमिका होती है। कहा भी गया है "जैसा खाओ अन्न वैसा बने मन"। वैदिक ऋषियों ने मन को ही सबसे अधिक शक्ति शाली व महत्वपूर्ण माना है अतः इस मन को शुद्ध सात्विक व सशक्त बनाने हेतु उचित आहार-विहार की आवश्यकता है। कलयुग में यद्यपि मानव का अन्नमय कोश ही प्रमुख है परंतु यह भी विचारणीय है कि इस मन को सशक्त करने वाले अन्न का अर्जन किस कर्म तथा किस भावना के द्वारा किया गया है। भोजन में प्रयुक्त अन्न का अर्जन यदि परिश्रम द्वारा, सद्भाव द्वारा, तथा न्याय पूर्वक किया हो, तो इस प्रकार भोजन करने वाले प्राणी का मन तथा व्यक्तित्व का निर्माण उत्तम कोटि का होगा। परंतु यदि इसके विपरीत दूसरों का अधिकार छीन कर ,मारपीट कर ,चोरी द्वारा, अथवा अन्याय पूर्वक अर्जित किए गए अन्न का भोजन मानव के व्यक्तित्व को निश्चित ही नकारात्मकता की ओर ले जाएगा। श्रीमद्भागवत के एक दृष्टांत द्वारा हम इस तथ्य को भलीभांति समझ सकते हैं
एक बार भीष्म पितामह जी धर्मराज युधिष्ठिर द्रोपदी सहित समस्त पांडवों को धर्म का उपदेश कर रहे थे उन्होंने कहा कि हमें नारी का सम्मान करना चाहिए प्रत्येक स्थिति में नारी की रक्षा करना पुरुष का धर्म है। उनके सुख देश को सुनकर द्रोपदी को हंसी आ गई जब द्रोपदी से हंसते का कारण पूछा गया तो उन्होंने बड़े ही विनम्र स्वर में कहा कि हे महाराज मेरे हंसने का कारण यह है कि आज आप नारी रक्षा का उपदेश दे रहे हैं परंतु जब भरी सभा में आपकी कुलवधू को नीच दुशासन द्वारा नग्न किया जा रहा था, तब उस समय आपकी ये धर्म बुद्धि कहां चली गई थी? भीष्म पितामह ने उत्तर दिया कि "देवी तुम सत्य कहती हो। उस समय दुशासन के पाप कर्मों द्वारा अर्जित अन्न का आहार करने के कारण निश्चय ही मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी किंतु आज धर्म द्वारा अर्जित अन्न का आहार करने के कारण मेरी बुद्धि पुनः धर्म युक्त हो गई है"। वास्तव में पाप कर्मों के द्वारा अर्जित आहार हमें शारीरिक एवं मानसिक रूप से विकृत बना देता है इसके प्रत्यक्ष प्रमाण तो आज भी हमें यत्र तत्र देखने को मिल जाते हैं।
आहार का मस्तिष्क एवं स्वभाव पर प्रत्यक्ष प्रभाव देखना हो तो नशे के रूप में देखा जा सकता है। हल्का हो या तेज किसी भी प्रकार का नशा मस्तिष्क पर अपना प्रभाव छोड़ता है, यह सुंस्पष्ट है। सामान्यतः स्वस्थ मनोदशा की अपेक्षा लोग शराब आदि पीकर नशे की स्थिति में अपेक्षाकृत अपराध अधिक करते हैं। अतः स्पष्ट है कि व्यक्ति का आहार उसकी मानसिकता को अत्यधिक प्रभावित करता है।
भोजन के संबंध में दूसरी महत्वपूर्ण बात यह भी है कि भोजन करते समय आप उस भोजन को किस मानसिकता के साथ तथा किस भाव के साथ ग्रहण कर रहे हैं यदि आप प्रसन्न चित् होकर सद्भाव के साथ भोजन ग्रहण करते हैं तो निश्चित ही आपके व्यक्तित्व पर उसका उत्तम प्रभाव दिखाई देता है इसीलिए भारतवर्ष में भोजन को पहले ईश्वर को समर्पित कर उसके प्रसाद रूप में ही ग्रहण किया जाता है और ऐसा भोजन निश्चित ही हमारे व्यक्तित्व को निखारने के साथ ही हमें आत्म शक्ति से भी संपन्न बना देगा । श्रीमद् भगवत गीता की छठवे अध्याय में एक महान योगी के व्यक्तित्व निर्माण हेतु युक्त आहार विहार की बात कही गई है। क्योंकि जीवन में मन ही व्यक्ति को ऊंचाइयों तक ले जाता है तथा मन की अनुचित विचारधारा ही पतन के गर्त की ओर ले जाती है। तभी कहा जाता है कि " मन के हारे हार है मन के जीते जीत"। इसीलिए मन को सशक्त बनाने हेतु उचित आहार-विहार की आवश्यकता होती है। क्योंकि मन के उत्तम विचारों द्वारा ही सुंदर व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सकता है।
आत्म विज्ञान की दृष्टि से स्थूल शरीर और कारण शरीर के समान ही आहार के भी तीन प्रकार और तीन स्तर बताए गए हैं। जिन्हें क्रमशः सत्त्व रज और तम कहा गया है भोजन के तम अंश से रक्त एवं मांस बनता है रज अंश से मस्तिष्क की क्षमता प्रभावित होती है और सत्त्व अंश से भावनाओं का निर्माण होता है । भारतीय ऋषि मुनि इस बात को भलीभांति जानते थे कि किस प्रकार के आहार से किस प्रकार के व्यक्तित्व का निर्माण हो सकता है तथा किस प्रकार से बौद्धिक क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। इसीलिए योग शास्त्र एवं साधना ग्रंथों में अंतः करण को पवित्र एवं परिष्कृत करने हेतु सात्विक आहार ही अपनाने को कहा है। श्रीमद भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने सात्विक राजसी एवं तामसी आहार की सुस्पष्ट व्याख्या की है तथा शरीर मन और बुद्धि पर उसके पड़ने वाले प्रभावों का भी स्पष्ट विवेचन किया है। मनीषियों द्वारा भी आत्मिक प्रगति के आकांक्षी एवं साधना मार्ग के पथिक को सात्विक आहार ही अपनाने की सलाह दी गई है जिससे सात्विक आहार द्वारा निर्मित सात्विक भावनाओं का संपूर्ण व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ सके, जो उनकी आत्मिक चेतना के संपूर्ण विकास में अत्यधिक सहायक हो सके। आचार्य मनु द्वारा साधकों के लिए भक्षय तथा अभक्षय आहार की एक लंबी सूची बताई गई है साथ ही यह भी कहा गया है कि अनजाने में भी अभक्षय भोजन कर लेने पर यति चांद्रायण व्रत करना चाहिए। मनुस्मृति 5/20
जिस देश की संस्कृति व सभ्यता जितनी उन्नत होगी वहां का खानपान भी उतना ही उन्नत स्तर का होता है। यद्यपि प्रत्येक स्थान की जलवायु ही वहां के आहार का निर्धारण करती है। आज से 200 300 वर्ष पूर्व मध्य एशिया तथा यूरोप में मानव पशु आहार पर ही अधिक निर्भर था । मध्य एशिया में तो आज भी मांसाहार पर ही अधिक निर्भर है अतः उनके व्यक्तित्व का आत्मिक विकास उतना नहीं हो सका जितना भारतीयों का हो सका है । पाश्चात्य जीवन शैली अर्थ पर आधारित है जबकि भारतीय जीवन शैली धर्म पर आधारित है। अतः पाश्चात्य देशों में जीवन के प्रत्येक कार्य में द्रुतगति की प्रधानता के कारण शीघ्र पकने वाले जिसे हम फास्ट फूड के नाम से जानते हैं उनका ही प्रयोग अधिक किया जाता है। इस प्रकार के आहार से न केवल मानव की हड्डियां कमजोर होती हैं अपितु उसकी वैचारिक क्षमता भी क्षीण हो जाती है। जबकि भारतवर्ष में आज भी दैनिक आहार में भी विविध प्रकार के व्यंजन तथा विशेष पर्व एवं त्योहारों पर छप्पन भोग बनने का प्रावधान है। भारतीय सदैव से ही सात्विक आहार पर जोर देते रहे हैं यही कारण है कि उदात्त कोटि के व्यक्तित्व संपन्न तथा कुशाग्र बुद्धि संपन्न ऋषि मुनि तथा आदि गुरु शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद , रमण महर्षि आदि अनेकों अनगिनत महान विभूतियां संपूर्ण विश्व को भारत द्वारा ही प्राप्त हो सकी हैं जो अन्यत्र दुर्लभ है। वेद शास्त्र तथा श्रीमद्भगवद्गीता जैसा ज्ञान का प्रकाश केवल भारत में ही संभव हो सका। यही कारण है कि भारतीय ऋषि मुनि सात्विक अन्न मय कोष से होते हुए मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय कोष को पार कर आनंदमय कोष की अवस्था तक पहुंच जाते हैं । यह बात भी पूर्ण सत्य है कि
स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है
इसी तथ्य की पुष्टि हेतु वर्तमान युग में भी इस बात का विश्लेषण एवं अन्वेषण किया जा रहा है कि मस्तिष्क पर आहार के कौनसे अंश किस प्रकार व किस सीमा तक प्रभाव डालते हैं? तथा मानव के आहार का उसके स्वभाव* तथा प्रकृति पर क्या प्रभाव पड़ता है? केलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक रिचार्ज थॉमसन 10 वर्षों के दीर्घकालीन प्रयोग एवं परीक्षण के उपरांत इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि बुद्धि देवी वरदान नहीं है उसे मानवीय प्रयत्न के आधार पर घटाया अथवा बढ़ाया जा सकता है। शारीरिक परिवर्तनों के समान ही आहार द्वारा बौद्धिक क्षमता में भी हर स्तर का परिवर्तन किया जाना संभव है । इतना ही नहीं आहार में परिवर्तन कर आत्मिक शक्ति और संवेदनशीलता को भी कम या ज्यादा घटाया बढ़ाया जा सकता है। अमेरिका के बाल्टीमोर शहर के एक स्कूल में 52 विद्यार्थियों को स्मार्ट पिल्स नामक दवा का सेवन 1 माह तक कराया गया तत्पश्चात परीक्षण करने पर पाया गया कि इस अल्प अवधि में ही उन छात्रों की मस्तिष्क की क्षमता पहले से अधिक बढ़ गई थी। विभिन्न परीक्षणों के आधार पर या निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि निकट भविष्य में मानव अपनी बुद्धि की मंदता अकुशलता एवं मानसिक विकृतियों का खाद्य पदार्थों की सूक्ष्म शक्ति के आधार पर सफलतापूर्वक उपशमन कर अपने व्यक्तित्व व बुद्धि का विकास कर सकेगा। संभव है कि भविष्य में ऐसी औषधियां भी बाजार में आने लगे जिनका सेवन कर मनुष्य शक्ति बुद्धि कौशल एवं सूझबूझ को बढ़ा सकेगा।
अतः संपूर्ण तथ्यों के आधार पर यह स्वत स्पष्ट है कि मनुष्य को अपने उच्च बुद्धि विकास तथा आदर्श व्यक्तित्व निर्माण हेतु सदैव ही सदाचरण युक्त परिश्रम द्वारा अर्जित तथा न्यायोचित सात्विक आहार का ही उपयोग करना चाहिए तभी हम अपने व्यक्तित्व का तथा बुद्धि कौशल का उचित विकास कर सकते हैं।
इति