Pahle kadam ka Ujala - 12 in Hindi Fiction Stories by सीमा जैन 'भारत' books and stories PDF | पहले कदम का उजाला - 12

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पहले कदम का उजाला - 12

एक धन्यवाद***

मुझे आज घर वालों की चिंता बहुत थोथी लग रही थी। उनसे बात करने का मन भी नही था। अचानक मन बदल गया। सबको माफ़ कर देने का दिल ने कहा। सबके लिए धन्यवाद का भाव आने लगा। सफलता के उजाले कितने अंधेरों को दूर कर सकते है, इसका अहसास आज हुआ।

मुझे अपनी माँ, सास सब बहुत अच्छी लगने लगी। उन सबने जो किया वो या तो उनकी बंधी सोच का नतीजा था या फिर उनके दर्द का दोहराव!

आज मेरी माँ अपनी अमीर बहू के कारण घर में बेहिसाब अकेलापन, आर्थिक तंगी सह रही है। उनकी बहू से जो अपमान उनको मिलता है वो पैसे से ज्यादा भारी पड़ रहा है। मैंने माँ को फोन लगाया जो मुझसे बात करने के इंतज़ार में ही बैठी थी । पहली घण्टी में ही फोन उठा लिया।

मां कहने लगी “सरोज, बेटा कब से तुझसे बात करने को बैठी हूँ। तेरी बहुत याद आ रही थी। टी. वी. पर जो देखा तब से तेरी चिंता हो रही थी। तूने बहुत बड़ा काम किया है सरोज। तू एक हिम्मत वाली लड़की है। हमनें तो अपने जीवन में वही किया जो हमें कहा गया। उससे ज़्यादा की समझ कभी आई ही नहीं।

सरोज, पर तूने जो पाया वो एक मिसाल है। हर औरत के लिए और रोली के लिए भी। तूने बुरा सहा, पर बुरा किया नहीं, अपना रास्ता ही बदल लिया। जो बहुत मुश्किल है। किसी ने भी तो तेरा साथ नहीं दिया…” कहकर माँ रोने लगी।

“माँ, रोवो मत! मेरी चिंता भी मत करो। जो होना था वो बहुत पहले ही हो चुका है। अब मुझे कोई बात डराती नहीं है। हम सब अपने जीवन में यही गलती करते हैं। सहारा ढूंढ़ते हैं। हमारी हिम्मत ही हमारा सहारा बनती है।

इंसान वक़्त के हिसाब से मिलते बिछड़ते रहते हैं। कोई आएगा फिर हम आगे चलेगें ऐसा नहीं होता है। हम चलते हैं तो लोग मिलने लगते हैं। मेरे साथ भी यही हुआ। लोग मिलते गए मैं चलती रही। कोई भी अकेला कुछ नहीं कर सकता है। पर हिम्मत तो अपनी ही होती है। वो हो तो सब हो जाता है माँ!”

“बेटा, कल घर आ जाना तुझे सीने से लगाने को मन तड़फ रहा है। तेरा बड़ा भाई तो अब इस घर में आता नहीं, छोटे की नौकरी लग गई है तो वह भी विदेश जा रहा है। अब तेरे पापा से अकेले दुकान नहीं सम्हलती है। दो बेटे तो हैं पर किस काम के? हम अकेले हो गए…”कहकर माँ फिर रोने लगी।

मैं माँ से क्या कहती कि संतान को दोष देना भी ठीक नहीं है। माता-पिता भी ग़लतियाँ करते हैं। पर मानते नहीं, जब परिणाम बुरे निकलते हैं तब रोने से क्या होता है?

मैंने उनका दिल रख़ते हुए कहा “मैं आ जाऊँगी। पर तुम अपना ख़्याल रखना। मेरी चिंता मत करना।” कहकर जब मैंने फोन रखा तो मुझे अपने बड़े भाई की याद आई जो दिखने में बहुत अच्छा था। हमारा व्यापार भी उसने ही सम्हाला था, जो कुछ सरकारी नीतियों के चलते बुरी तरह डगमगा गया था। पापा को उस समय उस व्यापार को सम्हालने का एक ही रास्ता दिखा, जो भैया की शादी एक बड़े घर में करने का था।

भाई ने कहा था ‘बहुत अमीर घर की लड़की अपने घर में ठीक नहीं।’ पर उसकी बात नहीं सुनी गई।

पैसों की चमक के पीछे भाई की आवाज़ दब गई। शादी के कुछ साल बाद ही भाई हमारा घर छोड़कर ससुराल के व्यापार को सम्हालने लगा था। एकलौती बेटी को एक घर दामाद मिल गया। जो उन्होंने शायद पहले से ही सोचकर रखा था।

छोटा भाई अब बाहर जा रहा है। पर इस सबका दोष सिर्फ़ बच्चों को नहीं दिया जा सकता है। देव जैसे बेटे भी हैं। स्वाति जैसी बेटियाँ भी हैं जो अपनी ज़िम्मेदारी बख़ूबी समझते हैं। खैर!

रोली मेरे पास खड़ी थी। मेरे हाथ को पकड़कर बोली “अब तुम कल से अपने जाने की तैयारी कर लो! देख लो तुम्हें क्या-क्या लेना है। वहाँ इस समय सर्दी होगी।”

“हाँ, बेटा तेरी तैयारी भी तो करनी है। वहाँ किसी के लिए कुछ खरीदना हो तो लिस्ट बना लो।”

“अभी सोचा नहीं, देखते हैं।”

रात का एक बजे गया। मैं बहुत थक गई थी।

रोली हाथ में दूध का गिलास लेकर आई-“माँ, उठो! यह लो तुम दूध पी लो और सो जाओ! पापा बाहर ही सोफे पर सो रहे हैं।”

मैं आँखों से कहना चाह रही थी कि अभी इच्छा नहीं है। उसके पहले ही रोली बोली-“कोई बहाना नहीं, उठो!”

उसके हाथ से दूध का गिलास लेते हुए मैंने उसके हाथ को अपने हाथ से दबाते हुए कहा-“मुझसे ज़्यादा क़िस्मत वाला कोई नहीं!” हम दोनों की आँखें चमक उठी। इन आँखों से मुझे जो मिला है वो अनन्त है।

तारों ने चादर,

लहरों ने पायल,

जुगनू ने रास्ते,

बनाएं तेरे वास्ते!

सूरज से आशा,

चाँद से भाषा,

शब्दों की माला,

है तेरे वास्ते!

रातों में दिए,

हाथों में लिए,

अंधेरे चीर दूँ

मैं तेरे वास्ते!

प्यार के पल,

आज और कल,

दिल का सुकून,

बनूँ तेरे वास्ते!

तेरी आँखों में,

तेरी यादों में,

मेरा छोटा-सा घर,

तेरे दिल के रास्ते!

साँसों की डोर,

दुआओं के छोर,

क़भी न ख़ाली,

हों तेरे वास्ते!

रोली के लिए दुआ ही मेरा जीवन है। मेरे जीवन से मुझे जो मिलना था मिल चुका, इससे ज़्यादा का तो अरमान भी नहीं है। पर रोली को सिर्फ़ सफलता नहीं, किसी का प्रेम भी मिले…

कहते हैं ना! माता-पिता के ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकते पर मेरी ज़िंदगी तो लगता है इससे उलट ही है। मैं कभी इस बच्ची के …. सोचते-सोचते आंखों में आँसू आ गए। जिन्हें रोली ने देख लिया। मेरे कंधे पर हाथ ऱखते हुए वो बोली- “अब कुछ मत सोचो, सो जाओ! तुम बहुत थक गई हो!”

मैं उठ खड़ी हुई और मैंने अपनी बाहें फैला दी। रोली को एक दीर्ध आलिंगन में लेना…कुछ अहसास शब्दों के मोहताज़ नहीं होते! जीवन के अँधेरे कब कौन उजाले में बदल दे कोई नहीं जानता है? चलते रहना ही जीवन है…

रोली को बहुत जल्दी नींद आ गई। मैं उठी, आज देव की बहुत याद आई। पर उसका कोई मतलब नहीं था। मैं कुर्सी पर बैठ कर लिखने लगी…

साहिल पर बैठी तो नदी मुझसे बोली-

सदियाँ बीती मैं लैला को न भूली!

वह तन्हा बैठी यहाँ मजनूं को याद करती,

अश्क बहते पर कोई फ़रियाद न करती!

वो अश्क मैंने आज भी सम्हाले हैं,

वैसे मोती मैंने फिर नही पाये हैं!

वो प्रेम था या

इबादत थी?

मैं आज भी उस अहसास को तरसती हूँ,

नदी हूँ तो क्या, मैं भी प्रेम को समझती हूँ।

मैं भी मिलन की ज़ुस्तज़ु में बहती हूँ,

तभी तो सागर से जा मिलती हूँ!