Pahle kadam ka Ujala - 9 in Hindi Fiction Stories by सीमा जैन 'भारत' books and stories PDF | पहले कदम का उजाला - 9

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पहले कदम का उजाला - 9

देव…

जीवन भी बड़ा अजीब है। शरीर का विज्ञान पढ़ने वाले को मन की भाषा की कितनी समझ हो ये उसकी सवेंदना पर निर्भर करता है।

देव को माता-पिता का भरपूर प्यार मिला। एक अनुशासित जीवन ने उन्हें वो सब दिया जो एक बच्चे की ज़रुरत होती है।

पढ़ाई, सफलता सब बड़े आराम से मिलती रही। जीवन में कभी कोई रोड़ा आया ही नहीं। अचानक उनके पापा को लकवा हो गया और उन्होंने सेना की पोस्टिंग छोड़ दी। अपने पापा की इस हालत को देखकर उनका मन बदल गया। वह सोचने लगे – ‘ मैं पापा की सेवा कब कर पाऊँगा?’

उनके पापा अब व्हीलचेयर पर हैं। घर में काम करने वालों की पैसों की कोई कमी नहीं है। माता-पिता अपना बेहतर से बेहतर अपने बच्चे को देते हैं। बच्चे फ़र्ज के नाम पर क्या करें यह उनकी मर्ज़ी है। सेवा बातों से भी की जा सकती है। अपने हाथों से खाना खिला कर भी की जा सकती है।

उनकी माँ ने उन्हें बहुत समझाया था! ‘देव ये पोस्टिंग मत छोड़ बेटा! तेरे पापा को मैं देख लूँगी। सही उम्र में सही जगह पहुँचना कॅरियर की ज़रूरत है।’

‘माँ, सबसे बड़ा सही काम तो ये है कि मैं अब पापा की सेवा करना चाहता हूँ। उनका स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरता जाएगा। पर मेरे पास होने से जो हो सकता है। उसे समझाना तो मुश्किल है। पर शायद कोई चमत्कार हो जाये।’ कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू आ गये।

माँ तो अपना रोना रोक ही नहीं सकी। वह रोते-रोते बोली ‘तुझमे जो समझ आई है वह ईश्वर का आशीर्वाद है। हमारे लिए देव!’ उस दिन हम माँ-बेटे खुल कर रोये थे।

एक जांबाज आर्मी ऑफिसर का चलना -फिरना बन्द होने के क्या मायने हो सकते हैं। ये वह तीनों समझ रहे थे। देव के रुकने से उसके पापा बहुत ख़ुश थे। उनके अंदर जल्दी से ठीक होने की भावना बलवती हो उठी।

वह बड़े प्यार से उसके सर पर हाथ रखकर कहते थे, ‘हमें छोड़कर तुझे जल्दी आर्मी में जाना है। मैं बहुत जल्दी चलने लगूँगा। तुझे ज़्यादा दिन अपने पास नहीं रखूँगा।’

पापा का हाथ पकड़कर तब देव ने कहा था- ‘माता-पिता की सेवा सिर्फ़ एक बात नहीं, एक अहसास है। जो मेरे लिए बहुत ज़रूरी है। आपने जो मेरे साथ मेरा बचपन जिया है। मुझे हमेशा समझा है। ये उस सब का एक बूँद जितना ही है।’

‘पर बेटा तेरा कॅरियर? वो पीछे छूट गया।’

‘कुछ पीछे नहीं छुटा है पापा! सब यहीं है। आपसे दूर रहकर मेरा जाना अब सम्भव नहीं है। यहाँ भी अस्पताल में काम कर रहा हूँ। वहाँ सैनिक होते, यहाँ आम लोग हैं। जिनके काम आना अच्छा लगता है।’

देव अपने पापा को रोज़ नाश्ता और रात का खाना अपने हाथों से खिलाता था। उनको नहलाकर ही वह अस्पताल जाता था।

माँ कहती थी ‘देव, तू यह सब मत कर बेटा! थक जाएगा। अपने पास लोग हैं जो ये सब कर सकते हैं।’

‘अब एक सैनिक से थकने की बात मत करो माँ! पापा को नहलाने में मैं थकता नहीं, ताज़ा हो जाता हूँ!’ माँ का हाथ कई बार देव की पीठ सहलाता था। उसमें वह वो सब सुन लेता था जो वे कहना चाहती थी।

अपने माता-पिता की सेवा क्या होती है? हमको पढ़ा कर, वो अपना फ़र्ज पूरा करते हैं। और हम भी उनसे दूर रहकर, फोन पर बात करके अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेते हैं। उनकी आख़री साँस से पहले उनके पास आकर बच्चे कौनसा फ़र्ज पूरा करते हैं? ये देव को आजतक समझ नहीं आया।

फ़र्ज़ तो यही है कि ज़रूरत पड़ने पर उनके पास रहकर उनकी सेवा कि जाए। जो आज देव कर रहा था। बेटे का साथ उन्हें बहुत गर्मी देता है ये बात देव समझ सकता है।

देव का कॅरियर उनके लिए चिंता का विषय है, पर मातृभूमि की सेवा से पहले वह पितृभक्ति करना चाहता था।

माँ कहती भी थी ‘तू इस युग मैं पैदा होने जैसा नहीं है देव! तुझें जीवनसाथी भी तेरे जैसा ही मिल जाये बस यही हम दोनों का आख़री सपना है।‘

‘माँ, तुम जानती हो, शादी हो ये मेरे लिए ज़रूरी नहीं है। तुमने और पापा ने मुझे अपने प्यार से इतना भर दिया है कि शादी तब ही होगी जब दिल बोल उठे। नहीं तो मैं अपने आप से संतुष्ट हूँ। शादी कोई ऐसा ज़रूरी काम नहीं है जिसे हम हर हाल में करें।’

किसे पता था, उसका दिल सरोज को देखकर बोल उठेगा। एक बारह साल की बच्ची की माँ! अपनी बीमार बच्ची को सम्हालती, साथ ही एक बीमार पति को सहती। जो उसे प्रेम, इज्ज़त तो दूर बेटी की बीमारी के लिए पैसा भी नहीं देना चाहता है।

बुआ ने जब उसके गर्भवती होने के समय उसके मन्दिर में मिठाई खाने की बात बताई थी तो देव का मन कह उठा कि अभी इसे अपने साथ, अपने घर ले जाऊँ। माँ को बता दूँ कि यही है वो जो मुझे छू गई।

दिल और दुनिया दो बिलकुल अलग रास्ते हैं। जिनपर चलकर कब किससे किसका मिलना हो सके या हम नहीं कह सकते हैं।

प्रेम की कोई भाषा नहीं हो सकती है। वो सिर्फ़ आँखों के बोल ही समझ सकती है। जो शब्द कभी कह नहीं सकते, जो कान कभी सुन नहीं सकते हैं।

सरोज की आँखें देखकर ऐसा लगा, यही है वो जिसके इंतज़ार में मैं बैठा था। एक औरत जो बड़ी हिम्मत से अपनी बीमार बेटी, नालायक पति सबको सम्हाल रही है।

जिसकी आवाज़ से ही उसकी सुंदरता का अहसास होता है। बहुत सच्ची, साफ़, मधुर जो अपने पति की डाँट अस्पताल में सबके सामने भी सुनती है पर उसका पूरा ध्यान अपनी बेटी की तरफ़ ही है।

‘तुझे याद नहीं रहता कौन-कौन से कागज़ लाने थे अस्पताल में, अब मैं घर जाऊँ? एक काम भी ठीक से नहीं कर सकती है।’

ये सुनकर भी वो औरत अपने आसपास के माहौल का ख़्याल करके सिर्फ़ इतना ही बोली ‘आप रोली के पास बैठो मैं घर जाकर ले आती हूँ।’

‘अब महान बनने की ज़रूरत नहीं है। मैं जा रहा हूँ।’ कहकर पैर पटकता हुआ वह चला गया। सरोज को देव क्या सांत्वना देता? यह उसे समझ ही नहीं आया। वह चुपचाप वहाँ से निकल गया।

किसी की वैवाहिक ज़िन्दगी में दख़ल? यह तो असम्भव है।

वह सिर्फ़ इतना ही कह पाया ‘मैं आधे घण्टे बादआपको बुलवाता हूँ। तब तक आप चाय पी लीजिये।’

सरोज ने तब उसे कोई जवाब नहीं दिया था। शायद वह अपने आँसू बड़ी मुश्किल से रोककर देव के सामने खड़ी थी। जो उसके जाने का इंतज़ार कर रहे थे…

एक घण्टे बाद सरोज की आँखें कह रही थी कि वो एक सागर पार करके आईं हैं।

रोली की बीमारी के कारण कुछ समय तक देव का सरोज से मिलना हुआ। जब रोली पूरी तरह ठीक हो गई तो फिर… देव के पास कोई वज़ह नहीं थी, सरोज से मिलने की। एक बार जब वो अकेली आई थी। तब उसने पूछा था –

“रोली इलाज़ अब कितने महीने और चलेगा?”

“बस, एक महीना और ये सारी दवाइयाँ देनी हैं। फ़िर सब बन्द हो जाएगा।”

“फ़िर कभी कोई काम हो तो…” देव ने कहा था। उसकी आँखों में गहरे तक जाकर वह एक जवाब ढूंढ़ना चाहता था। पर उसने अपनी पलकें झुका कर कह दिया कि वह इसकी इजाज़त नहीं दे पायेगी। जिसका एक सपाट उत्तर मिल गया था।

“नहीं अब कोई ज़रूरत नहीं है। आपका बेहद शुक्रिया! आपने जो सहयोग दिया…” कहकर सरोज ने हाथ जोड़ लिये थे।

वह दिन उनकी आखिरी मुलाक़ात थी। उन दोनों की आँखों में बहुत कुछ था। जिसे वह समझ कर भी नजरअंदाज कर गये।

वक़्त एक बार फिर आगे बड़ गया। वो कब किसी के लिए ठहरा है? जो उसके साथ चलना चाहे चले, नहीं तो वो अकेला गुनगुनाता हुआ आगे बड़ जाता है…