जिंदगी की असलियत***
माइक से पीछे की तरफ़ मुड़ी तो पति ख़ड़े दिख गए। कमल, एक बहुत ग़ुस्से वाला इंसान जो अपनी पत्नी से कभी प्रेम से बात कर ही नहीं पाया। जिसे मुझसे बात करते ही ग़ुस्सा आने लगता है। ये भी नसीब ही है कि पति-पत्नी के ग्रह कैसे मिलते हैं! हमारे ग्रह कभी शांति ला ही नहीं सके। एक बार सासू माँ ने बहू की कमी क्या निकाली वह दिन इस श्रवण कुमार के लिये काफ़ी था।
उस दिन से आजतक मैं इनके लायक़ बन ही नहीं पाई। आज जो शब्द मुँह से निकले हैं उनका लावा पति के चेहरे पर साफ़ दिख रहा है। उस आग से मुझे तो डर नहीं लगा पर प्रायोजकों के चेहरों पर एक आश्चर्य मिश्रित डर था। वो सब लोग अपनी साँस रोके मेरे पति और मुझे देख रहे थे।
अब क्या होगा? यह सवाल सबकी आँखों में था। उन्होंने कुछ भी नहीं कहा बस उनकी की आँखों ने इतना ही कहा कि ‘जो करना था कर चुकी अब घर चल!’
मंच पर पति का अपमान या कहें सच्चाई, कौन सुनना पसंद करेगा? पति को घर पर उनके ख़िलाफ़ बोलना आसान नहीं तो फिर जो आज हुआ वह तो असम्भव ही था। यह तो वह रिश्ता है जो बड़े हक़ से औरत का अपमान कर सकता है। औरत भी उसे सहती है। वो भी इसे उसका नसीब ही मानती है।
अब मुझे यह आंखें डरा नहीं पायेगी। मेरे मन की शांति को अब कोई भी डिगा नहीं सकता है! राष्ट्रीय स्तर पर प्रतियोगिता जीतना वाकई अनुपम था! बहुत सारी प्रायोजक कम्पनियों की तरफ़ से मंच पर उपहारों का ढ़ेर लगा था।
जिस कंपनी ने यह प्रतियोगिता आयोजित कि थी उसके प्रतिनिधीयों से मेरा एक रिश्ता -सा बन गया था। वो सब आँखों में सवाल लिये, डरे हुए खड़े थे। एक ने आगे बढ़ने की हिम्मत की और मेरे हाथ में लद्दाख़ की सात दिन की यात्रा के दो टिकिट ऱखते हुए कहा- “सरोज जी, ये आप दोनों के यात्रा के टिकिट!”
मैं कुछ कहती उसके पहले पति बोले- “अब इसकी ज़रूरत नहीं है मैडम! हमारे तो चारों धाम एक मिनिट में ही पूरे हो गये! अब यह यात्रा आप ही कर लीजिए!”
-“ये टिकिट मुझे दे दो!” कहते हुए मैंने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया।
-“मैडम ये उपहार?” उसने सवाल किया।
-“बाद में देख लेंगे!” इस समय इन उपहारों का वज़न उठा पाना मुश्क़िल होगा! पति के सर पर सींग निकल आये हैं। उन्हें अभी और लाल कपड़ा दिखाना, रुकना या कुछ कहना ठीक नहीं होगा। कहकर मैं तेज़ कदमों से उनके पीछे निकल गई।
-“ये टिकिट भी किस काम के?” आगे चलते हुए पति ग़ुस्से से बोले
अब यहाँ से चुपचाप बाहर निकलना ही ठीक है। मेरा एक शब्द जो काम करेगा वो दुनिया को दिखाना ज़रूरी नहीं। जितना और जो कहना था वो मैं कह चुकी थी।
उस सभागृह से बाहर निकलते समय ऐसा लग जैसे कई आँखें हमें घूर रहीं हैं। उन सबको नजरअंदाज करते हुए हम जल्दी से लोकल ट्रेन की तरफ़ आगे बढ़ रहे थे।
पति मुझसे दो कदम आगे चल रहे थे। उनके गुस्से को उन्होंने कैसे दबा कर रखा है यह उनकी चाल बता रही थी। आयोजकों की ओर से जिस कार का इंतज़ाम किया गया था। उसे ठुकराकर आगे बढ़ते हुए उन्होंने कहा- “नहीं चाहिए इनका अहसान, लोकल से घर चलेगें!”
लोकल ट्रेन में रोज़ की तरह बहुत भीड़ थी। रात का समय काम से लौटने वालों के कारण स्टेशन और बोगी का हाल तो अब कीड़े-मकोड़े को भी मात देता है। इस धक्का-मुक्की में एक नौजवान बैसाखियों के सहारे बोगी में आया।
भीड़ इतनी थी की लोग उसे भी धक्के मार रहे थे। वह किसी तरह ख़ुद को सम्हाले हुए खड़ा था। मैं अपनी जगह से उठी ओर उसकी तरफ़ देखते हुए बोला- “आप मेरी जगह बैठ जाइये!”
उस नवयुवक ने शुक्रिया अदा किया और वह मेरी जगह बैठ गया। लोगों की समझ तो देखो, जब मैं उठी तो मेरी जगह एक लड़की बैठने को आगे बढ़ी।
मैंने उससे कहा- “मैंने उनके लिए सीट छोड़ी है।”
लड़की ने बुरा – सा से मुँह बनाते हुए कहा- “यह इस डिब्बे में आये ही क्यों? इनका तो अलग…” उस लड़की ने चिढ़ते हुए कहा।
वह लड़की भी क्या करती, उसका गुस्सा वाज़िब था। अधिकतर यही होता आया है कि खूबसूरत लड़की को सीट दी जाती है, ज़रूरत को अधिकतर नजरअंदाज किया जाता है।
-“वह बहुत दूर था। उतनी दूर चलकर जाता तो ट्रेन छूट जाती ओर फिर वहाँ जगह मिल जाती यह भी ज़रूरी नहीं!” उस नवयुवक ने जवाब दिया।
-“अरे, नहीं आप परेशान न हों! हम खड़े रह सकते हैं!” मेरी बात सुनकर उस लड़की की आँखों में गुस्सा बढ़ गया। अभी पति के बिगड़े हुलिए पर ध्यान देने का मन नहीं था।
आज के पहले मेरी हमेशा कोशिश रहती थी कि कम से कम पति घर के बाहर प्रेम से पेश आये। अपने बिखरे जीवन को जितना सम्हाल सकती थी, सम्हाल ही लेती थी। पर अभी वो डर नहीं रहा, उसकी जगह ‘जो सही है वही करना है!’ ने ले ली।