चिंतन-मनन: -
मूलत: सूक्त अपने आप में दो शब्दों को समाहित किये हुए है, मेधा व जनन। मेधा का तात्पर्य है बुद्धि की योग्यता व जनन का मतलब उत्पति। इस प्रकार इस सूक्त का मूल विचार बुद्धि की कुशाग्रता व योग्यता की उत्पति की ओर ध्यान मे आता है।
बुद्धि की उत्पति के कारक में हम गुरू व शिष्य के द्वारा संवाद हुई विद्या व विद्या प्राप्ति की विधियों को कह सकते है। अत: कारको के रूप में चार कारकों का यहाँ व्याखान किया गया है, जो है गुरू, शिष्य, विद्या व विद्या की विधियाँ।
सूक्त में शिष्य के माध्यम से गुरू से ज्ञान को सरलतम कर समझाने की ओर ध्यान है। परन्तु मनन करने पर हमें जो ज्ञान की अनुभूति होती है, वो गुरू व शिष्य से भी ऊपर उठकर रूप व अरूप शक्तियों के मेल से उत्तपन्न बुद्धि व योग्यता कि बात यहाँ कही गई है।
मेरे अनुसार ये सूक्त निम्न मायनो में अपनी सहज भूमिका निभाता है कि गुरू, शिष्य, विद्या व विधियों का अनुसरण इस वातावरण में ज्ञान वृद्धि के लिए कैसा होना चाहिए?
मै अपनी बुद्धि व चित से इसका सरलतम भेद करने का प्रयत्न कर रहा हूँ। जो निम्नलिखित है: -
१. गुरू व उसके कर्तव्य
जैसा कि हम सभी को पत्ता है कि ज्ञान के मूल आधार में एक गुरू का होना अतिआवश्यक है, उसी प्रकार ये जानना भी आवश्यक हो जाता है कि आखिर गुरू की प्रस्तुति जगत में किस रूप में होनी जरूरी है।
ये प्रश्न जब आता है कि "गुरू कौन होना चाहिए?", तो अनेकानेक प्रसंग हमारे मन में आते है। उदाहरणत: श्री हनुमान जी के गुरू सुर्य देव थे, महर्षि दत्तात्रेय के अलग - अलग रूप मे कुल २४ गुरूओं का ध्यान में आता है, श्री राम जी के गुरू महर्षि वशिष्ठ जी, एकलव्य के गुरू द्रोणाचार्य जी की प्रतिमा, सिखो के गुरू रूप में गुरू ग्रंथ साहिब व अलग-अलग प्रसंग में आए अनेको रूप में हमने गुरू को धारण किया है। तो ये सपष्टता है कि गुरू केवल मानव रूप में नही, अपितु किसी भी रूप में व्यापत हो सकते है।
तो विचार आता है कि जीव का गुरू होना तो साध्य लगता है, परन्तु निर्जीव का गुरू होना कैसे सम्भव है? और क्या गुरू के गुण है, जो निर्जीव को भी गुरू कि संज्ञा देता है?
गुरू का शाब्दिक अर्थ तम को दूर करने वाला होता है। तो स्वभाविकता जिस भी वस्तु व प्राणी से आपके तम का नाश हो, वह गुरू की संज्ञा में हो सकता है। तो गुरू व्याखान में जब हम ये सूक्त पर विचार करते है, तो हमें ये समझ आता है कि गुरू के मुख्यत: कार्य निम्न है। जिन्हे मै अपनी बुद्धि से सोच सका।
एक गुरू का प्रथम कर्तव्य यह है कि वो जो ज्ञान दे रहे है, उसका सही पठन-पाठन का उन्हे खुद में ज्ञान होना अतिआवश्यक है। अन्यथा मिथ्या ज्ञान का प्रचलन राष्ट्र को विनाश की ओर ले जा सकता है।
दूसरा व अतिआवश्यक गुण व कर्तव्य गुरू का जो है, वो यह कि वो समस्त मूल ज्ञान को अपने अंदर धारण करे, अथार्त गुरू को विषय ज्ञान (जिस ज्ञान को गुरू अपने विचारो के माध्यम से शिष्यो में प्रचलित कर रहे है), उसे उस ज्ञान की मूल यानि जहाँ से वो उत्तपन्न हुई है, उसका सम्पूर्ण ज्ञान अवश्य हो।
तीसरा गुण जो कि विचार प्रस्तुति पर है। गुरू का वाचन, आधार व योगा-शरीर तीनों में से जितने हो सके उन विधियों पर प्रधानता होना अतिआवश्यक हो जाता है। क्योकिं शिष्य अज्ञानी है, वो ज्ञान प्राप्ति के लिए आपकी शरण आता है, वो आपके सम्मुख बैठता है। जिससे वो आपके आचार-विचारो में रह सीखता है। उदारहणत: - अगर कोई गुरू आचारण में शिष्य सम्मुख अपवाद को ग्रहण करता है, तो शिष्य भी अपने ज्ञान सीमा में उस अपवाद को ग्रहण करेंगा, तो ये गुरू का दायित्व है कि वो अपवादो में ना पढे।
गुरू का चौथा गुण उसके स्वयं के विचार है। जिस प्रकार के विचारो का संचय गुरू के चहुतरफा होगा, वही विचार का बीज शिष्य में संकुचित मन में रम कर फुटेगा। तो अपने विचारो की शुद्धता रखना भी गुरू का कर्तव्य है।
गुरू के पाँचवे गुण का जो इस सूक्त से ध्यान आता है, वह है शिष्य के प्रति सजगता, आदर व पारस्परिक संबंधो का भाव। गुरू को अपने सम्पुर्ण शिष्यो की ओर सामानता, सचेत मन व मिलनसार व पारवारिक स्वभाव का संचय करना चाहिए।
ये सब विचारो का निष्कर्ष करने पर आपको पत्ता लगेगा कि गुरू को अपने ज्ञान के प्रति हल्की सी भी शंका नही होनी चाहिए, जिसका वह उत्तर ना दे सके। व उसके स्वभाव में साक्षात दैवीय प्रदार्थ होने चाहिए। जिससे वह शिष्य को साध कर राष्ट्र निर्माण के कार्य को निरंतर गति प्रदान कर सके।
अब यह गुणो को आप प्रत्येक जीव व निर्जीव में सामानतर पा सकते है, क्योकिं सूक्त के अनुसार सम्पुर्ण जगत के मूल में सामान शक्तियाँ वर्तती है। बस कुछ में ये अवस्था जागृत होती है अथवा कुछ में सुप्त। जहाँ ये जागृत है, वह गुरु संज्ञा में आ जाता है। व सुप्त जीव व निर्जीव का मार्गदर्शन करता है। इसी सुप्त शक्ति से शिष्य पद की उत्पति हुई है।
२. शिष्य व उसके कर्तव्य
शिष्य शब्द का अर्थ सरल भाषा में शिक्षा को ग्रहण करने वाला। शिष्य को सूक्त के अनुसार गुरू की विनती करते दिखाया गया है। जिस विनती में मुझे जो शिष्य के कर्म अनुमानित हुए, वे इस प्रकार है।
शिष्य का सबसे जरूरी गुण व कर्तव्य है कि वो गुरू के सम्मुख एकाग्र मन होकर, ज्ञान का अनुसरण करे व गुरू से मिले ज्ञान के मार्ग में यदि कोई अवरोध है, तो उसको गुरू से जिज्ञासापुर्ण पुछकर समाप्त करे।
शिष्य को अपने निजी विचारो को गौण कर ही गुरू सम्मुख बैठना चाहिए, तब ही वह एकाग्र हो ज्ञान का समावेश अपने अंदर कर पाएगा।
शिष्य को गुरू पाठ्य का स्वयं में अनुसरण करना भी अतिआवश्यक हो जाता है। अपितु ऐसा ना करने पर हमारी समरण शक्ति से वह ज्ञान लुप्त होने लगता है।
शिष्य का एक कर्तव्य विनयपुर्ण व विवेकशील होना भी है। ताकि गुरू से बिना उत्तेजित व तार्किक हो, वह सही ज्ञान का समावेश खुद में करे। अन्यथा कई बार तार्किक बुद्धि से उलझनों के वश हो ज्ञान का ह्रास होने लगता है। जो आने वाले ज्ञान को भी तर्कसंगत बना देता है। इसमें कोशिश यह कि जाए की गुरू के सम्मुख बैठ क्षमा-भाव से उस तर्क को समाप्त कर लेना चाहिए।
शिष्य जिस ज्ञान को अपने में सम्माहित रखे, वह उसके प्रत्येक प्रारूपों को संलग्न कर, उसके द्वारा उत्तपन्न विचार को अपने जीवन में अपनाए। यह भी शिष्य का कर्तव्य है।
शिष्य का एक गुण उसकी मन की जिज्ञासा भी होती है, जो शिष्य अपने मन में ये विचार ले आता है कि मुझे गुरू से सम्पूर्ण ज्ञान मिल गया है। वह शिष्य अपने ओर आगे बढने के मार्ग में स्वयं बाधक बन जाता है।
ये विचार प्रकट करने के पश्चात अब इस सूक्त अनुसार धनुष के दोनो छोर अथार्त गुरू व शिष्य के सम्मुख होने पर रस्सी रूपी विद्या की तनी हुई प्रत्यंचा ही इस परस्पर मेल को सार्थकता प्रदान करती है। अथवा हमें विद्या व उसके भेदो को समझने का प्रयत्न करना चाहिए।
३. विद्या व उसके भेद
मेरे ज्ञानानुसार जो विद्या का प्रारूप सूक्त व वर्तमान बताता है, वो दो प्रकार की है। प्रथम विद्या सूक्त के प्रथम शब्द त्रिषप्ता: के योग को समझने से है, अथार्त जो तीन व सात के योग को दर्शाता है। हमारे ग्रंथो में तीन व सात के योग के अनेकानेक उदाहरण पाए जाते है। जैसे: - त्रिगुण, त्रिदेव, त्रिनेत्र, त्रिलोक, सप्तऋृषि, सप्तत्तव, सप्तधातु व अन्य। यही योगाचरण से बने सम्पुर्णता के ज्ञान को मूल विद्या कहते है, जो आपके जीवन के आधार को समझने हेतु अतिआवश्यक है। ये मेरे ज्ञान हेतु भी अभी खोज का विषय है। अत: मै मूल ज्ञान पर कहने योग्य अभी नही हूँ।
इसके बाद जो मुझे ध्यान आता है वो ज्ञान वर्तमान काल के अनेकानेक विषय ज्ञान हो सकते है। जैसे भक्ति, योगासन, कर्मकाण्ड, अर्थ, यज्ञ, भौतिक, सामाजिक व अन्य कई प्रकार की विषय विद्या। ये विद्या सम्पुर्ण जगत में मूल विद्या से निकलकर ही वातावरण में वर्तती है, ऐसा मेरा अनुमान है। अथवा हमें अपने विषय ज्ञान का दायरा बडा कर उसके पीछे के मूल तत्वो में जाने की आवश्यकता है।
ये दो प्रकार की विद्या का समावेश ही पुर्णत: सृष्टि की संरचना, स्थिरता व प्रलय के ज्ञान का माध्यम हो सकती है। व ये भी मेरे अनुसार शोधकार्य हो सकता है। ओर इसके शोध हेतु हमें विद्या प्राप्ति के अनेकानेक विधियों को समझना होगा, जो इस सूक्त में सम्माहित है।
४. विधियाँ
जैसे कि मैने पुर्व कहा कि गुरू व शिष्य के सम्बंध को सूक्त धनुष के दो छोरो के सामान रखता है व विद्या को इन दो छोरो पर तनी रस्सी के सामान, जिसकी दृढता ही ज्ञान की सार्थकता व उच्च परिकाष्ठा को दर्शाता है। तो इसको अगर बिना नये विचार से जोडे, विस्तृत रूप में देखते है तो ये सार्थकता में शिष्य गुण व गुरू गुण के बीच के अंतर को मिटाने हेतु मार्ग को बताने का कार्य रस्सी मात्र विद्या को ही बतला रहा है। अथार्त गुरू के द्वारा दी गई विद्या ही शिष्य में वर्तित है। किंतु ये शिष्य पर निर्भर है कि वो किन गुरूओं के समावेश को अपने अंदर वर्तता है व उसके क्या प्रभाव है। और ये आत्म-खोज का विषय है।
लेकिन ऊपर की विधि को हम विद्या की अन्य विधियों से समझ सकते है। ये ज्ञान विधियां स्वयं की सम्पुर्णता में गुरू व शिष्य के परस्पर समावेश पर निर्भर करती है। जैसे गुरू के अपवाद, उसके शिष्य में होगें। उसी प्रकार प्रकृति में आए विकारों से गुरू का ज्ञान भी विकृत होगा। अथार्त वातावरण में वर्तती ज्ञान विधियों में अगर कोई विकार है तो वो ज्ञान में भी समावेश लेगा।
उदाहरणत: अगर हम समरण शक्ति के भेद करे, तो हमारे पुर्वजों का ज्ञान स्त्रोत हमें पाषाणों, मंदिरो व कई महान ग्रंथो में उल्लेखित मिलेगा। व कई समरण-शक्तियों के उल्लेख हमें पुरात्न से चलती आ रही कंठस्थ कथाओं व बातों में मिल सकता है। तो जब इन विधियों में अगर विचार खण्डित होता है, तो वही विचार आगे प्रचलन में चल पडेगा। तो विद्या प्राप्त करने की विधियां अपने प्रकृतिक रूप से अधीन होकर जगत में वर्तती रहती है अथवा विद्या की कोई सपष्टता व सत्यपूर्ण विधि फिलहाल देखने को नही मिलती।
निष्कर्ष: -
मेरी बुद्धिमता में जो मेधाजनन सूक्त के आधार बन सके। मैने वे अपने अनुसार ऊपर कहे। जिसका निष्कर्ष ये है कि संसार में हरेक विद्या किसी ना किसी विधियों में लिपायमान हो जगद्धार में व्यापत है। जिसका प्रयोग विषयो में गुरू अपने ज्ञान को सहज बनाने हेतु करता है। व इस गुरू- शिष्यों में वर्तती शिक्षा व विद्या ही एक विचार को एक सदी से दुसरी सदीं में प्रवेश करवाती है। अथवा सूक्त को आज के संदर्भ में कहा जाए, तो गुरूओं को लुप्त हुए मूल ज्ञान को अपने पुरात्न समावेश विधियों से संरक्षित कर सही दिशा में शिष्य सम्मुख रखने का कार्य करना चाहिए। जो राष्ट्र व विश्व कल्याण के मार्ग को गुरू-शिष्य परम्परा से पथ-परदर्शित करेगा।
- रजत सिंघल