अवधूत गौरी शंकर बाबा के किस्से 9
रामगोपाल भावुक
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बाबा, जब भी मेरे सामने आते अवोध शिशु की भाँति आते। एकवार मेरे से कहने लगे-‘‘आज मेरी ट्टटी धुला।’’ मैंने संकोच किये बिना उनकी ट्टटी धुला दी। उस दिन से बाबा मुझे अवोध शिशु की तरह लगते हैं।
बाबा की भाभी की बातें गुनते हुये मैं घर लौट आया था।
इसके कुछ दिनों बाद इसी क्रम में मेरी मुलाकात बाबा के साले प्रभूदयाल चौधरी उर्फ बाबा प्रियदास, सिघारन वाले से हुई। मैंने उनसे बाबा के बारे पूछा तो वे मेरा प्रश्न सुनकर बाबा के बारे में कहने लगे-मेरे बहनोइ गौरीशंकर मुझ से बहुँत प्यार करते हैं। मैं उनका बड़ा साला हूँ, इस मर्यादा के कारण वे मेरे से कम ही बात करते हैं। जब उन्होंने घर छोड़ा ,मेरी उम्र 30 वर्ष के करीब रही होगी। शुरू-शुरू में मुझे लगा-उनके इष्ट हनुमान जी महाराज हैं। कभी लगता- वे सहज सरल श्ंकर जी के अवतार हैं। सूर्य भी उनके उपासक हो सकते हैं,क्योंकि सूर्य को जल चढाने का नियम भी मैंने देखा है।
सन्यास लेने के बाद जौरासी में जहाँ आजकल हनुमान जी का मन्दिर है वे वहाँ मिले थे। उस समय उनके पास नारियल की खोपड़ी थी। वे अन्डर वियर और बनियान पहने थे। मैंने उनके चरण छुये तो वे मुझे गाली देने लगे। मैं समझ गया ये वो गौरीशंकर नहीं हैं। मैंने उनसे घर चलने की कही तेा वे बोले-‘‘मैं आऊगा।’’
इस बात के एक महा बाद ये हमारे घर पधारे। हाथ में एक लालटेन लिये थे। आते ही बोले-‘‘इसमें मिटटी का तेल भर दे।’’
मेरी माँ अर्थात उनकी सासू जी मेरी पत्नी से बोलीं-‘‘ मिटटी के तेल की कटटी भरी रखी है, वे कह रहे हैं तो भर दे।’’ इतनी देर में उन्होंने अल्मारी में से लोटा उठा लिया। पत्नी तेल लेकर आ गई। वे उस लोटे को उसके सामने रखते हुये बोले-‘‘इसमें तेल भर दे।’’ पत्नी ने उसमें तेल भर दिया। करीब दो लीटर होगा। वे उसे उठाकर इस तरह गट-गट पी गये जैसे कोई अपने प्रिय पेय को पी जाता है। मेरी माँ हक्की-बक्की सी उन्हें देखती रही। फिर बोली-‘‘बेटा खाना खाले।’’
वे बोले-‘‘ अम्मा खा तो लिया।’’ यह कह कर वे घर से चले गये। इसके कुछ दिनों बाद इनके बड़े भइया ने मुझे बिलौआ बुलाया। मैं उनके साथ जाकर इन्हें मेन्टल हॉस्पिटल में भर्ती करा आया। इसके आठ-दस दिन बाद मैं उनके हाल-चाल ज्ञात करने अस्पताल गया। वहाँ के प्रसिद्ध डॉक्टर काले ने मुझे पास बुलाकर समझाया-‘‘ये तो सिद्ध पुरुष हैं, ये जिस पागल को थप्पड़ मार देते हैं वही ठीक हो जाता है। इन्हें यहाँ से ले जाओ अन्यथा मैं पागल हो जाऊगा।’’
उनकी ये बातें सुनकर मुझे लगा- बाबा को पागलखाने नहीं जाना होता तो वे नहीं जाते। उन्हें तो वहाँ रह रहे पागलों का थप्पड़ मारकर उद्धार करना होगा, इसीलिये वहाँ गये होंगे। वे पागल बहुँत भाग्यशाली हैं,जिन्हें बाबा की थप्पड़ खाकर ज्ञान प्राप्त हुँआ होगा।
यों प्रभूदयाल चौधरी उन्हें पागलखाने से घर ले आये । आठ-दस दिन घर रहे। सुवह ही घर से निकल जाते और रात दस बजे तक घर लौट आते। एक दिन आते ही दपनी सासूजी से बोले-‘‘अम्मा तेरे लिये दवा ले आया हूँ। तू इस सीतला के पत्थर को घिस-घिसकर आँख में लगा, आूख ठीक हो जायेगी।’’उन्होंने उनकी बात मानकर उसे घिस-घिसकर आँख में लगाना शुरू की तो उनकी आँख ठीक हो गई।
इस घटना के कुछ दिनों बाद इनके स्वसुरजी नहीं रहे। उन दिनों ये घर में ही थे। किन्तु उनकी तेरहवी के चार दिन पहले से ही ये गायव हो गये।
एक वार प्रभूदयाल चौधरी बीमार पड़ गये। सारे शरीर में सूजन आ गई। डॅाक्टर आकर उन्हें डाटने लगा-‘‘मना करने पर भी तुम उल्टी-सीधी चीजें खाजाते हो।’’ यह सुनकर इनके शरीर में बाबा का आवेश सा महसूस हुँआ। ये बोले-‘‘तुझे सर्जन किसने बनाया, इसकी सूजन तो कल पटक जायेगी।’’ और सच में इनकी सूजन दूसरे दिन ही पटक गई थी। वहाँ के डॅाक्टर यह देखकर आश्चर्य चकित रह गये थे।
इस लेखन के बाद मुझे ग्वालियर जाना पड़ा। स्टेशन पर मेरी मुलाकात आर0एस0षटधर जी से होगई। रेल में बाबा के बारे में बातें चल पड़ी। षटधर जी बाबा की ऐसी ही एक कथा सुनाने लगे-एक वार बाबा करहिया गाँव में एक मन्दिर के कमरे में जाकर ठहर गये। जब गाँव के लोग उनसे मिलने आये तो उन्होंने उस कमरे में टटटी पड़ी देखी। वे क्रोधित होकर बाबा से बुरा-भला कहने लगे। बाबा को मन्दिर से बाहर निकाल दिया। जब बाबा बाहर निकल आये तो बोले-‘‘एक बार जाकर देख तो आओ कि वहाँ क्या पड़ा है?’’ गाँव के लोग जब देखने गये तो वहाँ गेाबर पड़ा था। यह देखकर सारे गाँव के लोग आश्चर्य में पड़ गये और बाबा से हा-हा बिनती करके उन्हें मन्दिर में लौटा लाये। यह घटना आज भी करहिया गाँव में चर्चित है। इसी घटना को मैंने अपने गुरुदेव के समक्ष रखा। वे बोले-‘‘ लोगों के दिमाग में गोवर भरा है तो उन्हें गोवर ही दिखेगा। परमहंस जी चाहते तो उन्हें पुष्प भी दिखा सकते थे । अरे जिसके मन में जो भाव होगा उन्हें वे वही तो दिखायेंगे!’’
ऐसी घटनाओं की स्मृति संजोये मैं बाबा की खेाज में बिलौआ गाँव चला गया,जहाँ एक वार इसी घर में बाबा के दर्शन किये थे। जब मैं वहाँ पहुँचा ,बाबा के भतीजे नरेन्द्र तिवारी से मेरी मुलाकात होगई। जब मैंने अपने आने का मन्तव्य बताया तो वे बोले-‘‘मेरे पिताजी इनके काका के लड़के थे।किन्तु बाबा मुझे बहुत प्यार करते थे। जब कभी बिलौआ गाँव आते तो मेरे यहाँ ही आकर ठहरते थे।
एकबार बाबा घर पर ही थे। गाँव के डॉक्टर सालिगराम प्रजापति बाबा के दर्शन करने आये। बाबा के दाद होगई थी। उनकी दाद देखकर वे बोले-‘‘ बाबा दाद की दवा लेलें।’’ यह कहकर उसने एक दवा की शीशी बाबा को देते हुये कहा-‘‘बाबा ये जहर है। डालडा में मिलाकर दाद से लगा लेना।’’यह कहकर वह चला गया। बाबा उठे, एक दुकान पर पहुँच गये और दुकानदार से बोले-‘‘आधा किलो डालडा देना।’’ उसने तौलकर डालडा देदिया। बाबा ने उसमें वह दवा डाली और गट-गटकर सारी दवा पी गये।
यह बात सारे कसबे में फैल गई कि बाबा ने जहर पान कर लिया है। जब डॉक्टर को यह बात पता चली तो उसका बुरा हाल होगया। वह घवड़ाया हुआ नरेन्द्र तिवारी के घर आया। उसने कहा-‘‘यह जहर बहुँत खतरनाक है। बाबा का बचना मुश्किल है। मैंने यह क्या कर दिया। भइया किसी तरह बाबा को बचाओ।’’
नरेन्द्र तिवारी ने डॉक्टर को समझाया-‘‘बाबा शंकर भगवान हैं। उन्हें कुछ नहीं होगा।’’ समझा बुझाकर उसे घर भेज दिया। दूसरे दिन सुवह ही वह डॉक्टर इनके घर आगया। उसने बाबा को स्वस्थ देखा तो दंग रह गया। बाबा के चरणों में गिर पड़ा। उस दिन से उसने बाबा को अपना गुरू मान लिया था।
उस दिन नरेन्द्र तिवारी जी ने मुझ से चलते वक्त कहा था-‘‘ बाबा के सपने में दर्शन होते रहते हैं। कभी-कभी दरबाजा खटकने की आवाज सुन पड़ती है। दरबाजा खोलकर देखता हूँ तो कोई नहीं दिखता। मुझे हरपल लगता है- वे हमारे आसपास मैजूद हैं।
बिलौआ गाँव के ही रहने वाले रामस्वरूप मोदी ने बतलाया-‘‘एक दिन की बात है वह साखनी गाँव से लौट रहा था। वर्षात के दिन थे। पारवती नदी चढ़ी हुई थी। नदी के बीच बने मन्दिर के सामने चबूतरे पर बाबा बैठे थे।उनके चारो ओर पानी हिलोरें ले रहा था। रामस्वरूप नदी को पार करके मन्दिर तक आया। उसने बाबा को वहाँ आराम से बैठे देखा तो उसने बाबा से चलने की कही। बाबा बोले-‘‘नदी चढ़ी है मैं कैसे निकलू? तुम जाओ।’’वह नदी से निकलकर करियावटी गाँव में आगया। उसने देखा ,बाबा उससे पहले बस स्टेन्ड पर खड़े हैं। इतने में बस आगई। वह बस में चढ गया। बस वाले ने भीड़ के कारण बाबा को नहीं बैठाया। जब बस डबरा पहुँची ,बाबा इससे पहले चुंगी के पास होटल पर बैठे दिखे। यह देखकर सभी बाबा के पास पहुँच गये। बस कन्डेक्टर ने बाबा से छमा माँगी।
यह बात रामस्वरूप मोदी ने अपने गाँव में आकर बताई थी। उस गाँव के बूढे-पुरानों को आज भी यह बात पता है।
इन सब बातों को गुनते हुये मैं लौट आया था। घर आकर मुझे परमानन्द भागया सिन्धी की याद आने लगी। इन्हीं की दुकान पर बाबा ने मुझे कलम दी थी। दुकान बदल गई थी। मैं उनकी उस दुकान पर पहुँच गया। बाबा के बारे में बातचीत चल पड़ी।
परमानन्द भागया सिन्धी के अनुसार बाबा पन्द्रह दिनों तक मस्ती में रहते तो उसके बाद पन्द्रह दिनों तक सामान्य बने रहते थे। जब बाबा मस्ती में होते तो नंगे तक घूमा करते थे। उस समय उनके बारे में समझना कठिन होता था। वे किसी कायदे कानून में बंधे नहीं होते। किन्तु जब सामान्य होते तो संसार के सारे नियम -कानून मानते ।
एकवार बाबा की मस्ती का समय चल रहा था। डबरा के रेलवे स्टेशन पर बैठे थे। परमानन्द भागया का कोई रिस्तेदार शराव के नशे में धुत रेल से उतरा। उसने बाबा से पूछा-‘‘तुम परमानन्द भागया को जानते हो।’’
बाबा बोले-‘‘ हाँ मैं उसे जानता हूँ। चलिये मैं तुम्हें उसके यहाँ पहुँचा देता हूँ।’’ मस्ती के दिनों में भी बाबा उसे भागया जी के घर रात्री के समय पहुँचाने गये हैं।
एकवार बाबा चीनोर रोड पर बैठे थे। मस्ती का समय चल रहा था। जब बाबा मस्ती में होते सिगरेट अधिक पीते थे। जाने क्या-क्या बोलते रहते थे? ऐसे समय में आँख से एक अजीब सा तेज निकलने लगता था। जिसे देखकर लोगों को भय लगने लगता था।ऐसी स्थिति में वे निकट आने वालों को मार भी दिया करते थे। इसीलिये लोग उनसे दूर ही रहते थे।
बाबा परमानन्द भागया जी से कहते थे-‘‘चलो ,दुनियाँ से निकल चलो। यह दुनियाँ तो एक नौका मिलन के समान है।’’
दूसरे दिन मैं नन्दकिशोर चतुर्वेदी से मिलने पहुँच गया। मैंने उनसे पूछा-‘‘बाबा के बारे में आप क्या जानते हो?’’
वे बोले-‘‘बाबा गौरीशंकर मेरे फूफाजी हैं। उनका चित्र हमारे घर में हैं। बाई महाराज पार्वती देवी जब से बाबा गये है तभी से वे हमारे साथ ही रहती हैं। वे भी परमसंत हैं। दिन-रात बाबा की याद में डूबी रहती हैं। यही उनकी पूजा हैं। वे सहज-सरल हैं। हमारी प्रगति उन्हीं की कृपा से होरही है।
बाबा मुझसे बहुँत प्यार करते थे। किन्तु मैं उनसे डरता भी बहुँत था। बाबा अपने भक्तों के मन पढ़ लेते और यदि वे गलत सोच रहे होते तो बाबा उन्हें पीट भी दिया करते थे। अतःइस नगर के लोग उनसे दूर ही रहते थे।
करनाल वाले संतजी की छाया मुझपर रहती हैं। एकवार उन्होंने कहा था-‘‘ गौरीशंकर बाबा का चित्र तुम्हारे पास है, इस पर अगरबत्ती लगाते रहें। ये जिन्दा सिद्ध हैं। इनकी तपस्या इतनी है कि ये देह सहित अमर हैं। ये कभी भी अदृश्य हो जायेंगे। यह वृतान्त 5दिसम्बर1975 ई0 का है।
बाबा के अजर-अमर की बातें गुनते हुये मैं उनके पास से लौट आया ।
मैं लक्ष्मीनारायण शर्मा जी के साथ बाबा के अनन्य भरक्त मथुरा प्रसाद शर्मा जी से मिलने गया था। हमने जाकर दरवाजा ख्टकाया। दरवाजा खुला,हम मथुरा प्रसाद शर्मा जी की खटिया के पास पड़ीं कुर्सी पर बैठ गये। कमरा गूगल की महक से सुवासित था। मैंने प्रश्न किया-‘‘ क्या आप अगरबत्ती लगाकर सोये हैं।’’
वे बोले-‘‘नहीं तो, देख ले कहीं भी कुछ नहीं।’’
शर्मा जी ने पूछा-‘‘ फिर ये सुगन्ध?’’
वे बोले -‘‘सुगन्ध बाबा की कृपा है। तरह-तरह की सुगन्ध आतीं रहती हैं।’’
बड़ी देर तक हम सुगन्ध का आनन्द लेते रहे। हमें चुपचाप देख शर्मा जी न ने कहा-‘‘आपकी बाबा में बड़ी श्रद्धा है। ऐसा क्या हुँआ जिससे......?’’
यह सुनकर वे बोले-‘‘मेरा बाबा से सम्पर्क भेंसावाले प्रभूदयाल तिवारी जी के निवास पर हुआ। मैं उनके सामने वाले मकान में रह रहा था। मैंने देखा उनके पास बहुत से भक्त आते हैं। मेरे अन्दर उत्सुकता जगी। सोचा-मैं भी चलकर महाराज के दर्शन करूं। पहले दर्शन में ही बाबा की शक्ति के बारे में बोध होगया। लगा- बाबा ईश्वर से साक्षत्कार करा सकते हैं। साथ ही मेरे छह बहिनें थी। घर में पिताजी अकेले काम करने वाले थे। मैं समझ गया था, बाबा की कृपा से सब कुछ ठीक हो सकता है। यों मैं उनके दर्शन करने रोज ही जाने लगा।
बाबा जो कुछ कहते उसका गूढ रकस्य ही होता। मेरी बाूईं आूख खराब जन्म से ही खराब हैं। उसमें तारा नहीं है। मैंने बाबा से आूख ठीक होने का निवेदन किया। बाबा बोले-‘‘दूध ही दूध का सेवन कर।’’ मैं दस माह तक दूध का सेवन करता रहा। जिसका परिणाम यह हुआ कि आूख की पुतली बनने लगी। उसमें ठण्डक सी महसूस होने लगी। आूख में काले एवं सफेद हीरे का निर्माण होगया। यह बाबा की कृपा से अदभुत चमत्कार था।
उनकी कृपा से ही मुझे ज्ञान होता रहा- सारे चराचर में आदिशक्ति अग्नि व्याप्त है। स्त्री-पुरुष आदिशक्ति के रूप में इस धरा पर हैं। पेड़-पौधे,पत्थर यानी सारे चराचर में यही आदिशक्ति दिखाई देगी। इसे प्रकृति भी कहते हैं। सारे संसार का निर्माण और संचालन इसी आदिशक्ति माँ के द्वारा ही होता है। प्रकृति में पाँच तत्व हैं, जिसमें अग्नि का पाँच तत्वों में समावेश है। इस तरह मुझे चेतनता के दर्शन बाबा की कृपा से हो सके हैं।
इस तरह मैं परमेश्वर की सत्ता को बाबा की कृपा से अच्छी तरह समझ पाया हूँ। वे अदृश्य होगये हैं, फिर भी लगता है वे आसपास ही हैं। आज भी वे हरपल आदिशक्ति का बोध कराते रहते हैं। मेरे सामने से संसार विस्मृत होता जारहा हैं। कुछ याद रहता है तो बाबा हा सानिध्य।.....और जिस स्वार्थ से बाबा से जुड़ा था वे सभी पूरे हो गये हैं।
अब तो बाबा से यही आराधना है कि जीवन के अन्तिम क्षणों में वे पास रहें।
बाबा ने राम,शिव और हनुमानजी कि स्वप्न में साक्षत्कार करा दिया हैं। बाबा के दर्शन स्वप्न में तो होते ही रहते हैं,साथ ही चैतन्य में भी उनका आभास होता रहता है।
आस्था के चरण से मथुरा प्रसाद शर्मा जी का यह वृतान्त पढ़कर हरवार मुझे लगता है-मैं अपने इस शरीर से पृथक हूँ। इसमें मैं उसी तरह निवास कर रहा हूँ जैसे अपने बनाये घर में परिवार के साथ रहता हूँ। ये हाथ-पैर परिवार के सदस्य की तरह है। एक दिन इस शरीर को छोड़कर चला जाऊंगा। मैं अजर-अमर हूँ। मैं कभी मरता नहीं हूँ। वस्त्र की तरह इन शरीरों को बदलता रहता हूँ। फटे वस्त्रों से तुम्हें कितना मोह रहता हैं इसी तरह इस शरीर से मोह क्यों? बाबा इस तरह जाने कैसे-कैसे ज्ञान को मेरे अन्तस् में भर रहे हैं।
आस्था के चरण का यह प्रसंग स्मृति मैं आता रहता है- गाड़ी अड्डा रोड पर रामदास हलवाई की दुकान थी। उसकी उम्र काफी हो चुकी थी ,पर उसका विवाह नहीं हुआ था। उसने बाबा से अर्ज की। बाबा उसकी बात सुनकर चुप-चाप उसकी दुकान से चले गये।
दूसरे दिन बाबा उसकी दुकान पर पहुँच गये और उठाकर एक जलेबी खाली। उसके बाद एक पत्थर का डेला उसकी दुकान में दे मारा। जिससे उसके शो केस का काँच फूट गया। बाबा यह कहते हुये दुकान से चले गये-‘‘ता तेरी शादी हो जायेगी।’’ उसके बाद बाबा उस दुकान पर कभी नहीं गये। इसके कुछ दिनों बाद उसकी शादी होगई। उसके लड़के- लड़कियाँ भी हैं।
संतों को उनकी कृपा से ही समझा जा सकता है। और उनकी कृपा पाने के लिये साधना की आवश्यकता है। साधकों पर उनकी कृपा अपने आप वर्ष ती है। परमहंस संतों को साधकों की तलाश में स्वयम् रहती है।
पण्डित हरचरन लाल बैद्य इस क्षेत्र के प्रसिद्ध बैद्य थे। वे बहुत अच्छे साधक भी थे। वे कहा करते थे-‘‘महापुरुषों की बातों और चरित्र को जानना कठिन है। वे तो कृपा करके जो जना दें,वही मुमुक्ष पुरुषों के लिये कल्याण की बात है। ऐसे महापुरुष के दर्शन सन्1966-67 में साखनी गाँव में हुये थे। जब उनके पास अधिक लोग इकत्रित हो जाते तो उनके मुख से ऐसे अटपटे बचन निकलते कि साधरण पुरुषों की समझ में आते ही नहीं थे। किन्तु जब वे भावुक भक्तों के बीच एकान्त में बात करते तोउनके मुख से ऐसे उपदेश सुनाई देते जो सारगर्भित भक्ति ज्ञान को पुष्ट करने वाले और कल्याणप्रद होते थे। इनके रहनी और स्वभाव के कारण लोग इन्हें मस्तराम महाराज के नाम से जानने लगे थे। एक दिन मैंने बैद्य जी से प्रश्न किया-‘‘ बाबा की साधना के बारे में कुछ कहें?’’
मेरी बात सुनकर वे बोले-‘‘मेरी समझ में उनमें विरहणी भक्ति छुपी हुई थी। उसी में वे मस्त रहते थे। एक दिन की बात है वे विरहणी भक्ति के रूप में रात्री में अकेले बैठे-बैठे रो रहे थे। गाँव के लोगों ने उन्हें विसूर-विसूरकर रोते हुये देखा और चिकित्सा के लिये मेरे पास दौड़े आये। मैंने उसी समय उनके पास जाकर चिकित्सा कार्य किया। मेरे निवेदन करने पर भी उन्होंने औषधि स्वीकार नहीं की। अन्त में मैं और गाँव के लोग हारपचकर रह गये। यह रहस्य उस समय हमारी समझ में नहीं आसका।
कुछ दिनों बाद अर्द्धरात्री का समय था। मेरे विश्रामगृह के बाहर चबूतरे पर बाबा ठहरे थे। रात में सहसा ही मेरी निद्रा भंग होगई। बाबा के करुणामय रुदन के स्वर शब्द सुनाई पड़े। मैंने कान लगाकर ध्यान से उनके शब्द सुने-‘‘गोविन्द...... गोविन्द...... गोविन्द......शब्द रुदन करते हुये समझ में आये। यह क्रम देर रात तक चलता रहा। महात्माजी के इस करुणामय कीर्तन ने उनके अपने स्वरुप का बोध करा दिया। अब मेरी समझ आया कि ये किसी बीमारी से नहीं वल्कि अपने इष्ट की विरहणीय भक्ति में मगन होकर रोते हैं। इस घटना से मैं उनका भक्त बन गया।