अवधूत गौरी शंकर बाबा के किस्से 8
रामगोपाल भावुक
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शून्य जी द्वारा लिखित बाबा के इस चरित्र को पढकर द्रश्य जगत एवं अदृश्य जगत के बारे में बात मेरे मन में आने लगी। यही बात मैंने गुरुदेव हरिओम तीर्थ जी के समक्ष रखी। महाराज श्री बोले-‘‘दृश्य जगत वो जो दिखाई देता है। किन्तु अदृश्य जगत दो तरह का होता है। एक जो वासना से युक्त जैसे भूत-प्रेत, दूसरा निर्लिप्त। इसमें उन महान संतों की गिनती की जा सकती है जैस लल, परमानन्द तीर्थ,मुकुन्द तीर्थ, विष्णु तीर्थ एवं परमहंस मस्तराम गौरी शंकर बाबा आदि जो चिन्मय शरीर में रहते हैं।
मैंने प्रश्न किया-‘‘ ये दिखाई क्यों नहीं देते।’’
महाराज श्री बोले-‘‘भूत-प्रेत तो वासना युक्त शरीर में प्रवेश करके अपना प्रभाव दिखा जाते हैं। किन्तु महान संतों को देखने की हममें दृष्टि नहीं होती। उनकी इच्छा होती है तो वे दिख जाते हैं। हमें अपनी साधना वढाकर, शक्ति अर्जित करके अपना पात्र बढाना चाहिये । जिससे इन शक्तियों की जब हम पर कृपा हो तव हम उनके आवेग को सहन कर वरस रही कृपा को आत्मसात कर सकें।
महाराज श्री से यह बात सुनकर वर्ष 1970की घटना याद आने लगी। दिसम्बर का महिना था, मैं बाबा के समक्ष साधना में बैठा था उसी समय वराहा वाले पं0 सन्तोष शर्मा जी का बुलाना आया। बाबा से अनुमति लेकर मैं उनके पास पहुँचा।उस समय उनके पास भूत व्याधियों वाले लोगों की भीड़ थी।
वे वराह के समाधि वाले पागल दास जी महाराज के शिष्य ! यह सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ। समाधि वाले महाराज तो आज से सौ वर्ष पूर्व वराह ग्राम में पहाड़ी पर जो गुफा है ,उसी में तपस्या में लीन थे। सभी के समक्ष वे उस गुफा में चले जाते और गाँव में भिक्षा मागते हुये भी देखे जाते। एक वार तेा सारे गाँव के समक्ष उन्होंने चिता बनवाई और उसमें प्रवेश कर गये। उसी समय गाँव में घूमते हुये देखे गये। ऐसे सौ वर्ष के महान योगी के शिष्य पं0 सन्तोष शर्मा जी,बात गले से नीचे नहीं उतर रही थी। कैसे उनसे इनकी दीक्षा हुई होगी।मैंने उनसे प्रश्न किया-‘‘ आप उनके दर्शन करा सकते हैं?’’
पं0 सन्तोष शर्मा जी बोले -‘‘क्यों नहीं?आप वराह आयें, गुफा में जहाँ उनका तख्त पड़ा है उसके सामने श्रद्धा-विश्वास के साथ बैठ जायें। उनकी कृपा होगी तो दर्शन हो ही जायेंगे।’’
इनकी कैसे समाधि वाले पागल दास जी महाराज से दीक्षा हुई होगी? सोचा-यदि इनकी उनसे दीक्षा हुई है तो मुझे भी उनके दर्शन हो सकते हैं। यह बात मन में वार-वार आने लगी। अपनी दीक्षा की बात मन में इसलिये नहीं आई क्योंकि मैं सन्1964 ई0 में विवाह से पूर्व श्री श्री 1008श्री स्वामी सहजानन्द जी से दीक्षा ले चुका था। यों उनके दर्शन के लिये जाते समय परमहंस गौरीशंकर बाबा से प्रार्थना की-बाबा चलो समाधि वाले महाराज के दर्शन करादो।’’यों लघुभ्राता हरिओम स्वामी के साथ वराह गाँव पहुँच गया।
पं0 सन्तोष शर्मा गुरूजी के आदेश से मैं और हरिओम स्वामी उस गुफा में जाकर अपनी-अपनी आसन बिछाकर उसमें पड़े तख्त की ओर मुँह करके बैठ गये। मैंने परमहंस गौरीशंकर बाबा प्रार्थना की-बाबा आप भी इसी तख्त पर समाधि वाले पागल दास जी महाराज के साथ बिराजमान हो जाओ। मैं यह निर्णय करके उसमें बैठा कि जब तक दर्शन नहीं होंगे मैं बाहर नहीं निकलूंगा। एक-डेढ़ घन्ठे से अधिक समय हो गया। हरिओम स्वामी पता नहीं कयों उठकर बाहर चले गये। किन्तु मैं अपने निश्चय पर डटा रहा। दर्शन के लिये व्यगता वढ़ गई। अश्रुधारा प्रवाहित हो गई। सिसकियाँ बंध गई। सिर फोड़ने को मन होने लगा। लगा-गुफा में ओम की ध्वनि हो रही है। कुछ समझ नहीं आया। थोड़ा सा साहस बढ़ा। ध्यान में चला गया। शरीर में कुछ हल-चल हुई। मूलाधार में वेग उत्पन्न होगया। मैं कुछ भी समझ नहीं पा रहा था ये क्या हो रहा है? किन्तु आज जब हरिओम तीर्थ जी के सम्पर्क में आया हूँ , इस परम्पारा का साहित्य पढ़ा है तव यह समझ में आया है कि उस दिन कुन्डली जागरण की शक्तिपात प्रक्र्रिया से गुजरा। यों मेरी उस गुफा में शक्तिपात दीक्षा हुई। उस घटना के बाद से ही मुझे अनहद नाद सुनाई पड़ने लगा है। इसतरह मैं समाधि वाले पागल दास जी महाराज से परमहंस गौरीशंकर बाबा की कृपा से रूबरू हो सका हूँ।
बाबा के इष्ट
लोग प्रश्न करते रहते हैं कि बाबाकी साधना क्या है? इस घटना से सब कुछ स्पष्ट हो जाता है कि बाबा की कुन्डली जागरण एवं शक्तिपात की प्रक्रिया वाली साधना है। वे परमयोगी हैं। यों योग योगेश्वर बालकृष्ण बाबा के इष्ट हैं।
बाबा के इष्ट के सम्बन्ध में एक प्रमाण यह भी है कि बाबा का एक छायाचित्र हमारे पास है । उसमें बाबा पीठासन पर बैठे हैं, उनके हृदय में बालकृष्ण बिराजमान हैं। यों इस पद चिन्ह से स्पष्ट हो जाता है कि बाबा के इष्ट बालकृष्ण ही हैं।
उस दिन मैं गुफा से निकलकर नीचे आया, पं0 सन्तोष शर्मा गुरूजी हनुमान जी के मन्दिर में पीड़ितों की व्याधियाँ दूर करने में लगे थे। पीड़ित व्यक्ति उनके सामने बैठ जाता, वे उससे पूछे बिना उसकी सारी समस्यायें क्र्म वार लिख देते हैं। पीड़ित व्यक्ति अपनी समस्यायें क्रमवार पढ़कर आश्चर्य में पड़ जाता है। उसे गुरूजी का पूरी तरह विश्वास हो जाता है। यों वे समाधि वाले पागल दास जी महाराज की कृपा से लोगों की व्याधियाँ दूर करने में लगे हैं। उस दिन जैसे ही मैं उनके सामने पड़ा,उन्होंने पूछा-‘‘ कहो ,दर्शन हुये?’’
मैंने उत्तर दिया-‘‘ दर्शन तो नहीं हुये किन्तु संत दर्शन से जो होता है वह सब हुँआ। ’’
वे बोले-‘‘और क्या चाहिये!’’
आज पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ पं0 सन्तोष शर्मा जी‘ गुरूजी’ की दीक्षा समाधि वाले पागल दास जी महाराज से हुई है।
उस दिन ही हमें लौटना था। पं0 सन्तोष शर्मा जी‘ गुरूजी’ से आज्ञा लेकर दिन के 11 वजे हम वहाँ से चल दिये। जीप से लौटना था। घर आते -आते 4वजे का समय हो गया।घर पढ़ने वाले बच्चे मेरी प्रतिक्षा कर रहे थे। मैने घर के अन्दर प्रवेश किया। सोफे पर बैठ गया। सामने बाबा के छाया चित्र पर दृष्टि गई तो मैं उसी वक्त शून्य में चला गया।
बात अब समझ में आती है कि बाबा ने क्या करिश्मा दिखाया है। साधना में चित्त लगने लगा हैं। समाधि वाले बाबा की याद स्मृति में बस गई है। आँखें हर पल ,हर जगह बाबा को खोजती रही।
मेरी बेटी ज्योति की बाबा की कृपा से सगाई हो गई। व्याह का दिन आगया। कन्यादान की परम्परा के खिलाप मेरा चिन्तन रहा। सजीव का निर्जीव की तरह दान, बात गले से नीचे नहीं उतर रही थी। पत्नी रामश्री को मेरी यह बात अच्छी नहीं लग रही थी। बात मैंने बाबा के सामने रखी,अन्तर्मन से उत्तर मिला- कन्यादान बाबा से कराया जाये। पत्नी भी खुश और मेरे लेखकीय सिद्धान्त रक्षा। कन्यादान से पूर्व बाबा से जाकर पा्रर्थना की -बाबा चलो बेटी का कन्यादान आप करें। यह निवेदन करके मैं मण्डप में जाकर बैठ गया। बेटी के पीले हाथ सौपने के लिये मैंने बाबा से प्रार्थना करते हुये जैसे ही अपना हाथ उसके हाथ को सोपने के लिये लगाया । वह काूप गई । मैं समझ गया बाबा ने अपना काम कर दिया है। यह घटना है 6मई1994 ई0 की।
इसी वर्ष भाद्रमास में सोमवती अमावस पड़ी। इस अवसर पर चित्रकूट में मेला लगता है। मेरा मन मेले मैं जाने को करने लगा। मैंने बाबा से प्रार्थना की-बाबा चलो मुझे राजाराम के दर्शन करा लाओ। घर से निकलते ही महसूस होने लगा-बाबा मेरे साथ-साथ चल रहे हैं। रेल में भारी भीड़ होते हुये मुझे आराम से बैठने जगह मिल गई। जब मैं कामदगिरि की परिक्रमा लगाने लगा,उस समय महसूस हो रहा था बाबा आगे-आगे चल रहे हैं। उस समय कामदगिरि पर्वत की ओर दृष्टि गई।उसके वडे-वड़े शिलाखण्ड अपनी मस्ती में झूमते हुये हाथी दिखे। वहाँ का प्रत्येक जड़-चेतन विभिन्न रूपों में चेतन प्राणी दिखे। वहाँ से दृष्टि हटकर सामने गई। बाबा आगे-आगे चलते दिखे। इसी नशे में परिक्रमा पूरी करके घर लैट आया।
दूसरे दिन गणेश चतुर्थी थी। उस दिन कवि मित्र डा0 राधेश्याम गुप्त जी का जन्मदिन था। संयोग देखिये उसी दिन उनका निधन हो गया। मुझे मरघट जाना पड़ा। वहाँ नगर के प्रसिद्ध कवि नरेन्द्र उत्सुक जी भी मिल गये। वे मुझे देखते ही मरघट की स्तब्धता भंग करते हुये बोले-‘‘तुम गौरी बाबा के रोज गुण गाया करते हो, तुम्हारे मस्तराम बाबा मुझे दर्शन दे गये।’’
मैंने प्रश्न कर दिया-‘‘कैसे,कहाँ?’’
वे बोले-‘‘मैं सोमवती अमावस्या के दिन शाम के लगभग 6वजे होगे,बाजार से सामान लेकर रेल्वे क्रासिंग पार करके साइकल से लौट रहा था। डा0 शिवदत्त मिश्र जी के घर से आगे बढा कि बाबा मेरी तरफ सड़क पर आते दिखे। साइकल से नीचे उतरने में निगाह नीचे गई। इतने में वे अदृश्य हो गये।’’
मेरे मुँह से शब्द निकले-‘‘आप धन्य हैं,बाबा की आप पर अन्नत कृपा है।’’मरघट में लोग हमारी बातें आश्चर्य चकित हो सुन रहे थे।
इस घटना ने चिन्तन को बाबामय बना दिया । बाबा के चरण चिन्हों की खोज में निकल पड़ा। बाबा के सम्बन्ध में लिखने को मन बहुँत पहले से हो रहा था। लिखना शुरू हो गया। उत्सुक जी एवं हरीस्वामी जी के परामर्श से सोमवार के दिन सत्संग शुरू होगया। एक दिन सत्संग में उत्सुक जी गौरीशंकर चालीसा लिखकर लेआये। उसी दिन से सत्संग में चालीसा का पाठ शुरू होगया है। गौरीशंकर सत्संग समिति ने जनवरी 1994ई0 में सोमवती अमावस्या के दिन चालीसा का प्रकाशन ‘परमहंस मस्तराम गौरीशंकर समिति(डबरा) भवभूति नगर जि0 ग्वालियर म0प्र0’ने करा दिया। यह चालीसा मेरे नित्यपाठ में सम्मिलित हो गया है। इसकी द्वितीय आवृति राम नवमी 25 मार्च1999 को प्रकाशित की जा चुकी है। गत पन्द्रह वर्षो में इस चालीसा से नई-नई अनुभूतियाँ सामने आरहीं हैं। जिस कामना के लिये पाठ किया जाता है वह पूरी हो जाती है। आप पाठ का प्रयोग करके देख लें। सत्संग में बाबा का ध्यान किया जाता है। सत्संग के समय बाबा की उपस्थिति भाषित होती रहती है। एक दिन की बात है, सत्संग चल रहा था। मैं, चन्देलजी, अनन्तरामजी, भवानीशंकर सेन और श्रीमती रामश्री ध्यान से उठे, भवानीशंकर सेन बाबा की कुर्सी के सामने अचानक पसर गये। बड़ी देर तक पसरे रहे। हम सब चुपचाप उन्हें देखते रहे। जब वे उठ कर बैठ गये, हम सब उनकी ओर देखने लगे। वे बोले-‘‘ आज तो बाबा साक्षात् दर्शन देगये।’’
किसी ने पूछ लिया-‘‘कहाँ?’’
वे बोले-‘‘अरे! यही अपने कुर्सी आसन पर बिराजमान थे। अभी-अभी अदृश्य हो गये।’’हम सब भवानीशंकर सेन के भाग्य की मन ही मन प्रसंसा करने लगे। उस दिन से हम सब समझ गये हैं,सत्संग में बाबा उपस्थित होते हैं। यों ध्यान साधना में बाबा के कुछ भक्त लग गये हैं। इस समय उत्सुक जी की ये पन्तियाँ याद आ रहीं हैं-
सम्पूर्ण आपका हूँ इतने निकट हो तुम।
छाया ने तेरी बाबा अपना बना लिया।।
बाबा के पद चिन्हों की खोज में ,सबसे पहले मैं बाबा की पत्नी बाई महाराज पार्वती देवी से मिला-वे सहज सरल घरेलू महिला लगीं। उस समय उम्र सत्तर के करीव रही होगी। मैंने चरण छूकर प्रश्न किया-‘‘इस समय बाबा कहाँ हैं?मैं बाबा के बारे में आपसे सुनने आया हूँ?’’
प्रश्न सुनकर वे मेरे आने का कारण जान गईं। उन्होंने बिना लाग-लपेट के कहना शुरू किया-‘‘वे मेरे हृदय मैं बिराजमान हैं। वे मुझसे आज भी उतना ही प्यार करते हैं जितना पहले करते थे। मेरे विवाह के दो वर्ष बाद ही ग्वालियर से सेना में उनकी नौकरी लग गई। कुछ ही दिनों में इनका स्थानान्तर कश्मीर के बार्डर पर हो गया। ये डयूटी सजगता से करने लगे। ये प्रतिमाह वीस रुपये मनीआर्डर से भेजते रहे। इन्हें लड़ाई के मोर्चे पर भेज दिया गया। वहाँ इनके पैर में गोली लगी । डॉक्टर ने गोली निकल दी । इलाज के बाद स्वस्थ होने पर इन्होंने सैना की नौकरी छोड़दी। घर लौट आये। मुझे भी बुला लिया। घर आने पर जेठ की लड़की का व्याह कर दिया। हम दोनों ने ही उसका कन्यादान किया था। यह लड़की नरवर में व्याही है।
इस घटना के कुछ दिनों बाद ही इनकी नौकरी सिन्धिया की पुलिस में लग गई। ये ग्वालियर में मुझे तथा अपनी माताजी को भी साथ ले गये थे। ये डयूटी के पाबन्द थे। रात तीन वजे सोकर उठ जाते थे। दैनिक पूजा पाठ से निपटकर समय से डयूटी पर पहुँच जाते।
ग्वालियर से बदली करैरा के लिये हो गई। वहाँ भी हम साथ रहे। शीघ्र ही बदली नरवर के लिये हो गई। वहाँ मैं ही उनके साथ थी।
एक आसन से खड़े होकर गीता का पूरा पाठ किया करते थे। पाठ करते समय किसी से बात नहीं करते थे। कभी-कभी मुझसे कहा करते थे-‘‘देखना ,किसी दिन मैं तुझे छोड़कर चला जाऊगा।’’ मैं उनकी इस बात को सामान्य पुरुषों की तरह ही लेती थी।
मेरे मामा के लड़के की शादी थी। मामा बन्हेरी गाँव में रहते थे। भाई लिवाने पहुँच गया। मुझे उसके साथ आना पड़ा। व्याह में हम सभी इनकी बाट जोहते रहे।किन्तु ये नहीं आये। सोचा-नौकरी की बजह से नहीं आपाये होंगे।
आजकल मैं अपना जीवन यहीं मामा के घर आनन्द से भजनकर व्यतीत कर रही हूँ। यहाँ मुझे किसी तरह का कोई अभाव नहीं है।
मेरे जेठ की लड़की जो नरवर में व्याही थी, उसीने उनके घर छोड़कर चले जाने की खबर भेजी थी-‘‘काकाजी घर छोड़कर कहीं चले गये हैं। घर का सारा सामान बाँट गये हैं।’’ जब मैं वहाँ पहुँची,पता चला-किसी मन्दिर में इन्होंने गीता का पाठ किया। जब ये थाने पहुँचे कोई बड़ा अधिकारी चैक करके चला गया था। कोई चिन्ता की बात नहीं थी किन्तु जब इन्होंने अपनी उपस्थिति के हस्ताक्षर देखे तो ये समझ गये प्रभू ने मेरे लिये कष्ट उठाया है।उसी समय इन्होंने नौकरी से अपना त्यागपत्र लिख दिया। घर आकर सारा सामान बाँट दिया और चले गये।
एक वर् बाद अपने बिलौआ गाँव में लौटकर आये।वहाँ के प्रसिद्ध मन्दिर पर ठहर गये। एक दिन घर के लोग मुझे उनसे मिलने लेगये। चरण छूकर मैं इनके पास बैठ गई।बड़े भाई साहब ने कहा‘-‘‘तुमने ये बेश धारणकर लिया है। ये क्या करेंगी?’’उनकी बातें ध्यान से सुनते रहे फिर बोले-‘‘ये आनन्द करेंगीं। जिन्दगी भर सुहागिन रहेंगी।’’
घर के लोगों ने इन्हें समझाने का पूरा प्रयास किया। किन्तु ये मानने वाले नहीं थे। अब तो इनके कभी-कभी स्वप्न में दर्शन हो जाते हैं। अब भी इनके आने का इन्तजार करती रहती हूँ। जब-जब व्याकुल होकर याद करती हूँ दर्शन दे जाते हैं।’’
यह कहकर वे अनन्त आकाश की ओर देखने लगीं। मैंने जानकारी के लिये अन्तिम प्रश्न किया-‘‘बाबा के सत्गुरू का नाम बतायेंगी।’’
बाई महाराज ने उत्तर दिया-‘‘जितने बड़े संत होंगे वे अपने बारे में सब कुछ छिपाकर रखते हैं। इनके बारे में मुझे तो कया किसी को भी कुछ पता नहीं हैं।’’
मैं सोचने लगा-बिना सत्गुरू के कोर्इ्र इस रूप में पहुँच ही नहीं सकता है। यही सोचते हुये घर लौट आया।
बाबा के भक्तों से भी इस सम्बन्ध में जानकारी लेना चाही है। किन्तु असफलता ही हाथ लगी है। किसी ने भी बाबा के गुरुदेव का नाम नहीं बता पाया है। एक दिन व्याकुल होकर बाबा से पूछने ध्यान में बैठ गया। बाबा आप जो कुछ लिखा रहे हैं। यथार्थ लिखा जावे। उस रात पता नहीं कितनी देर तक ध्यान में बैठा रहा। ध्यान लग गया-किसी योगियों के मन्दिर में पहुँच गया।उसमें योगियों की मूर्तियाँ दीवार में उकेरी हुई दिखीं। एक परमहंस योगी का आगमन हुँआ। मैंने उनका नाम जानना चाहा। बाबा के शब्द सुनाई पड़े-‘‘परमहंस योगी आदित्य नारायण’’पर बाबा कहीं नहीं दिखे। अब मैं परमहंस योगी आदित्य नारायण जी के समक्ष बैठा था। बड़ी देर तक उनके समक्ष बैठा रहा। वे जाने के लिये उठ खड़े हुये। मैंने उनके चरणों में अपना सिर रख दिया। उनके चरण पकड़कर रह गया। मेरे सिर पर हाथ फेरकर वे अदृश्य होगये और मैं ध्यान से जाग गया।
आज तक ध्यान साधना अथवा स्वप्न में बाबा जिस-जिस से जो बात कह गये हैं। वे सभी बातें सच सावित हुई हैं।
बाबा के पद चिन्हों की तलाश में मैं बाबा के बड़े भ्राता श्री श्रीलाल शर्मा जी से मिला। बाबा के बारे में मैंने अपने लिखने की बात कही। यह सुनकर वे भाव विभोर होकर सारा वृतांत सुनाने लगे-‘‘मेरी जन्म तारीख21 अक्टूम्बर1921 हैं। गौरीशंकर मेरे से तीन वर्ष छोटे हैं।उनका जन्म 1924ई0 का हैं। मैं सन्1933ई0 में मथुरा अध्ययन करने चला गया था। सन्1934ई0 में इन्हें भी अध्ययन करने के लिये बुला लिया। इन्होंने कुछ ही दिनों में संस्कृत कौमदी का अध्ययन कर डाला।
इन्हें बचपन से ही घूमने की आदत थी। उन्हीं दिनों इन्होंने सम्पूर्ण बृजभूमि का भ्रमण कर डाला। मैंने पिताजी से इस बात की शिकायत कर दी। उन्होंने इन्हें घर बुला लिया। पिताजी पण्डिताई करते थे। घर में कृषि कार्य होता था। पिताजी ने इन्हें बड़े भइया के साथ कास्तकारी के काम में लगा दिया। ये मन लगाकर कृषि कार्य करने लगे। उन्हीं दिनों इनका विवाह सिघारन गाँव के एक सम्मपन्न परिवार में होगया।
इन्हें पहलवानी करने का भी शौक था। इनके डील-डौल को देखकर अच्छे- अच्छे पहलवान दहशत खाते थे।
एक दिन की बात है,बड़े भइया बद्रीप्रसाद ने इनसे चरस चलवाने के लिये कहा। ये कुये पर पराह लेने के लिये खड़े होगये। बैल हाँकने का कार्य बड़े भइया करने लगे। पानी से भरा पराह आधी दूर ही खिच पाया था कि बैल अड़ गये। इन्होंने उस पराह को ताकत लगाकर कुये से खीच लिया। इधर बैल लौट पड़े तो रस्सा घिर्रा से नीचे उतर गया। भइया को इसमें इनकी गल्ती दिखी होगी तो उन्होंने इनके दो-तीन परेनियाँ मार दी। इनकी इस बात में कोई गल्ती नहीं थी। इन्हें बात सहन नहीं हुई। इन्होंने भइया से तो कुछ नहीं कहा। ये सीधे घर नहीं आये। वहीं से सीधे ग्वालियर चले गये और फौज में भरती हो गये। सन्1942 ई0 में इन्हें कश्मीर बोर्डर पर भेज दिया गया। लड़ाई में इनके पैर में गोली लगी। इलाज के लिये इन्हें पूना भेज दिया गया। स्वस्थ होने पर इन्होंने नौकरी से त्याग पत्र दे दिया। घर लौट आये। कुछ ही दिनें में इन्होंने ग्वालियर की पुलिस में भर्ती हो गये। कुछ दिन करैरा रहने के बाद नरवर स्थानान्तर होगया। यहीं नौकरी से त्यागपत्र देकर घर का सारा सामान लोगों को बाँटकर हमेशा- हमेशा के लिये घर से निकल पड़े। कुछ दिनों बाद ये लौटे। हमने प्रयास किया कि ये गृहस्थी में लौट आयें। किन्तु ये नहीं माने। यहाँ-वहाँ घूमते फिरते थे।
ये जाने कैसी-कैसी भाषायें बोलने लगे थे जो किसी की समझ में नहीं आतीं थीं! कुछ ही दिनों में ऐसी भाषायें जाने कहाँ से पढ़लीं थी! मैं भगेह गाँव में शिक्षक था। वहाँ से डबरा नगर के लिये जारहा था तो पता चला ये पिछोर में हैं। मैं इनसे मिलने चला गया। मैंने इनके चरण छुये तो ये बोले-‘‘तू मेरे पैर मत छू,तू मेरे से बड़ा है। मैंने कहा-‘‘अब तो तुम्हीं बडे हो।’’ जब मैं चलने को हुआ तो मैंने इनसे कहा-‘‘मैंने प्रयास किया किन्तु मेरा ट्रान्सफर नहीं हुँआ।’’ यह सुनकर इन्होंने वहाँ पड़ा एक कागज का टुकड़ा उठाया। उस पर कुछ लिख दिया और बोले-‘‘ले रख ले।’’शाम को लौटकर मैं विद्यालय पहुँचा मुझे मेरा ट्रान्सफर आर्डर मिल गया था।
उनके अदृश्य होने से पहले एक दरोगाजी अपने नये मकान का उदघाटन कराने ग्वालियर लेगये थे। वहाँ से पता नहीं चला वे कहाँ चले गये?
मैंने देखा था ,कभी-कभी बाबा अकेले में इस तरह बातें करते रहते जैसे कोई उनके सामने खड़ा हो उससे बातें कर रहे हों। लेकिन हमें कोई दूसरा आदमी कहीं दिखाई नहीं दिया। एक बार वे कह रहे थे-‘‘ बार-बार परेशान मत किया करो। अब....तुम.....जाओ।’’मैं समझ गया था ये अदृश्य लोगों से बातें करते हैं।
मेरा पैर टूट गया था। दर्द बहुँत अधिक था। बिस्तर पर पड़े-पडे मैंने बेचैन होकर बाबा से प्रार्थना की-‘‘ मुझ से ये कष्ट सहन नहीं हो रहा है ,अब तो मुझे लेलो।’’बाबा ने मेरी प्रार्थना सुनली। वे उस रात सपने में आये। मेरे बदन पर बड़े प्यार से हाथ फेरा और बोले-‘‘ तुम पर साढे सातीसा है। विकट है, साढे सात वर्ष रहेगा। लेकिन ये मृत्यु नहीं कर सकते । शिव शंकर का जाप करो। यह कहकर उन्होंने यह मन्त्र बोला-
मृत्युन्जयाय रुद्राय नीलकण्ठाय सम्भवः।
अमृतेशाय सर्वाय महादेवाय ते नमः ।।
और बाबा ने कहा-‘‘इस मन्त्र का जाप करो,धीरे-धीरे ठीक हो जाओगे।’’यह कहकर वे अदृश्य होगये। मैंने उसी समय से इस मन्त्र का जाप शुरू कर दिया और कुछ ही दिनों में ठीक होगया। आज भी मैं उनकी तलाश में रहता हूँ।
बाबा द्वारा बताये इस मन्त्र का महत्व बहुत देर से समझ आया। आस्था के चरण का प्रकाशन होगया था। मेरे बहनोई हेमन्त पारासर के पैर में गेंगरीन होगया। डाक्टरों ने पैर काटने की घोषणा करदी थी। मैं उन्हें देखने गया तो ‘आस्था के चरण’ उन्हें देकर आया था।
बात को तीन -चार माह गुजर गये। एक दिन हेमन्त पारासर ओटो से हमारे घर पधारे। मैंने उनसे कहा-‘‘आप ने आने का कष्ट क्यों किया। मुझे खबर भेज देते। मैं आजाता।’’
वे बोले-‘‘बाबा पर प्रसाद चढ़ाना था।’’
मैंने कहा-‘‘ मैं कुछ समझा नहीं।’’
वे बोले-‘‘आप मुझे आस्था के चरण दे आये थे। उसमें बाबा ने अपने बड़े भइया को मृत्युन्जय का मन्त्र दिया था। जिसके जाप से उनका पैर ठीक होगया था। मैंने वह पढ़ा और इस मन्त्र का बिस्तर पर पड़े-पड़े जाप शुरू कर दिया।मैं ठीक होगया।आज चलकर प्रसाद चढ़ाने यहाँ आया हूँ।’’
मैं इस घटना से भी कुछ नहीं सीख पाया। लम्बा समय गुजर गया। बाबा के भक्त डा0सतीश चन्द्र सक्सेना ‘शून्य’ जी के यहाँ चला गया। वे इसी प्रसंग की चर्चा करते हुये बोले-‘‘कुछ दिनों से मैंने बाबा द्वारा बताये मृत्युन्जय मन्त्र का जाप शुरू कर दिया है।’’यह सुनकर मुझे होश आगया और घर आकर उसी दिन से इस मन्त्र को मैंने अपनी दैनिक पूजा में सम्मिलित कर लिया है।
श्रीलाल शर्मा जी की बातें मेरे पास बैठी उनकी पत्नी श्रीमती लक्ष्मी जी भी सुन रहीं थीं। उनकी बात का बिराम देख ,बोलीं-‘‘बाबा मेरे प्रिय देवर जी हैं। उनके बाबा बनने के बाद एक बार वे हाथ में एक छोटी लकड़ी लिये घर आये। गर्मियों के दिनों में रात का समय था। मैं घर के आूगन में लेटी थी। उन्होंने मेरे सिर में घीरे से उस डन्डी से मारा और बोले-‘‘यहाँ क्यों बैठी हो?’’
मैंने कहा-‘‘तो मैं और कहाँ जाऊ?’’
वे बोले-‘‘बाग में जाओ,सिर मुड़ाओ और बगीचे में बैठकर खाना खओ।’’
उसी समय से मेरे सिर में दर्द होने लगा। दूसरे दिन डाक्टर को दिखाना पड़ा। डाक्टर ने कहा-‘‘ सिर में ट्यूमर है। ग्वालियर जाकर दिखाना पड़ा। अपरेसन हुँआ। मैं तब से पूरी तरह ठीक हूँ। यह बाबा की कृपा है। अब तो बाबा सपने में दर्शन देते रहते हैं।
एक बार मैं बिलौआ गाँव में थी। सुवह के पाँच बजे थे। मैं रोज की तरह जाग गई थी। पौर का दरबाजा खुलने की आवाज आई। लगा-कोई बैठक में पड़ी कुर्सी पर आकर बैठ गया है। मैं समझ गई बाबा हैं। मैंने जोर से कहा बाबा आगये। मैंने उठकर देखा,वे अदृश्य हो गये थे किन्तु दरबाजा आधा खुला साफ दिखाई दे रहा था। इसका अर्थ है बाबा आकर चले गये। उनकी उपस्थिति के ऐसे प्रमाण जीवन में अनेक बार मिलते रहे हैं।
सन्1988-89 ई0 में मेरे भइया बाबूलाल पुरोहित मुरैरा ग्राम वाले चि़त्रकूट गये थे। उन्होंने ही मुझे यह बात लौटकर बतलाई थी। बाबा उन्हें चित्रकूट में लक्षमण टेकरी के पास मिले थे। बाबा ने ही उन्हें पहचान लिया था। भइया चरण छूकर दस रुपये दक्षिणा में देकर आये थे।भइया उनके पास दो घन्टे तक रहे। उन्होंने उनसे घर चलने की कही। बाबा ने कहा था -‘‘मैं घर जरूर आऊंगा’’ उस दिन से मैं बाबा के आने की बाट जोहती रहती हूँ। अब सोचती हूँ ,क्या पता बाबा आये हो?और हम उन्हें देख नहीं पाये हों। संतों की महिमा उनकी कृपा से ही समझ में आती हैं।