Awdhut Gaurishankar baba ke kisse - 7 in Hindi Spiritual Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | अवधूत बाबा गौरी शंकर के किस्से - 7

Featured Books
Categories
Share

अवधूत बाबा गौरी शंकर के किस्से - 7

अवधूत बाबा गौरी शंकर के किस्से 7

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क- कमलेश्वर कोलोनी (डबरा) भवभूतिनगर

जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110

मो0 9425715707, , 8770554097

ई. मेल. tiwariramgopal5@gmail.com

संत तो सदा-सदा के लिये ही होते हैं । उनका शरीर भले ही नश्वर हो,उनकी आत्मा,आत्मिक शक्ति,और कृपादृष्टि अक्षुण्य होती है। और, शरीर त्यागने के बाद भी क्या उन्हें कोई दिविगंत मानता है!! क्या आज तक किसी ने तुलसीदास को स्वर्गीय तुलसीदास या कवीर को स्वर्गीय कवीर दास के नाम से सम्वोधित किया है। बाबा के भक्त तो यही मानते हैं कि बाबा उनके ही द्वारा परेशान किये जाने के कारण यह सथान छोड कर चले गये हें और एक न एक दिन बाबा जरूर बापिस आयेंगे।

चाणक्यनीति में कहा गया है कि -

दर्शनध्यानसंस्पर्शेर्मत्सीकूर्मीच पक्षिणी ।

शिशुंपालयते नित्यंततः सज्जन संगतिहिः।।

दोहाः मच्छी पछिनी कच्छपी दरस परस कर ध्यान।,

शिशु पालै नित तैसेही सज्जन संग प्रमाण।।

जैसे मछली अण्डों को देख कर,कछुवी अण्डों का ध्यान करके तथा पच्छिणी स्पर्श के द्वारा अपने अण्डों को सेती हे तैसे ही सज्जन पुरुष अर्थात् संत भी अपने बच्चों की रक्षा करते हैं। यहाँ एक बात हमें अवश्य समझलेना चाहिये कि मछली,कछवी और पक्षिणी अपनी सीमाओं में रह कर एक ही एक प्रकार से अपने बच्चों की रक्षा करते हैं किन्तु संतों के लिये सीमाओं का कोई बंधन नहीं है । वे तो अपने भक्तों को तीनों प्रकारसे अपनी दया,कृपा दृष्टि और स्नेह से पालन करते हैं। और भी देखिये कि जीव-जन्तु अपने अण्डों बच्चों का तभी तक पालन करते हैं जब तक वे स्वयं सक्षम नहीं हो जाते। संतों के लिये उनके भक्त सदा शिशु के समान ही रहते हैं और वे सदाही उनका पालन पोशण और संरक्षण करते रहते हैं। उनकी सच्ची भक्ति करनेवाले शिष्य बाबाकी कृपा से कभी वंचित नहीं रह सकते हैं।

गुरु शिष्य का सम्वन्ध तो और भी गहराहै। शिष्य का निर्माता भी गुरु होताहै और उसकी कमियों का दूर करनेवाला भी गुरु-

गुरु कुम्हार घट शिष्य है गढ गढ काढे खोट ।

भीतर हाथ लगायके बाहर मारे चोट ।।

और गढा हुँआ यदि मैला होजाये तो-

दोहाः गुरु धोबी शिश कापडा साबुन सिरजन हार ।

सुरत शिला पर धोइये निकले मैल अपार ।।

संत बाबा रामदासजी महाराज,पटियाबाले-करेह धाम,ने एक बहुँत सुन्दर बात कही है-

बिछुडो होय तो फिर मिले रूठो हूँ मिलि जाय ।

मिलो रहे अरु ना मिले ता सन कहा बसाय ।।

बाबा हैं चिरन्जीवीः

संत कवीरदरस जी ने फरमाया है-

वैद मुआ रोगी मुआ मुआ सकल संसार ।

एक कवीरा ना मुआ जेहिके राम अधार।।

हमारे धर्म ग्रन्थों में आठ ऐसे महानुभाव हुँए हें जिन्हें चिरन्जीवी की संज्ञासे विभूशित किया गया है। प्रातःकाल इनका स्मरण करना अत्यन्त शुभ माना गया है-

अश्वत्थामा वर्लिव्यासो हनुमांश्च विभीशणः ।

कृपाःपरशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः ।।

अथैतान स्मरेनित्यं मार्कण्डेय चाश्टमम् ।

जीवेद् वर्ष शतमायुरपमृत्युविवर्जितः ।।

अर्थात् अश्वत्थामा,वलि,व्यास,हनुमान,विभीशण,कृपा,परशुराम तथा मार्कण्डेय ये आठ चिरंजीवी हें ।नित्य प्रातःकाल इनके स्मरण से सौे वर्ष की आयु प्राप्त होती हे तथा अपमश्त्यु नहीं होती।

इन आठों चिरजीवियों में सभी ऋषि नहीं हैं। किन्तु,भगवद्-प्रीति और ईश्वरीय विधान को पूर्ण करने में इनका महत्वपूर्ण योगदान अवश्य रहा हैं। हमारे बाबा महाराज का यह अवतरण तथा साधना उनकी जन्म जन्मान्तरों की तपस्या का ही परिणाम है। सम्भवतः यह उनका अंतिम चक्र्र ही होगा। यद्यपि में इसका अधिकारी तो नहीं हूँ तथापि अपनी भावना के अनुरूप उपरोक्त दूसरे श्लोक को निम्न प्रकार से लिखना चाहूँगा-

अथैतान स्मरेन्नित्यं मार्कण्डेय चाश्टमम् ।

नवमं गौरशिंकराय अपमृतयु विवर्जितः ।।

आज के युग में तथा कथित साधु-संत अपना नाम उजागार करने के लिये नये-नये पंथों और आडम्बरों का सहारा लेते हैं। बडी से बडी संख्यामें आश्रम खोलते हैं और लोगों को भ्रमित कर अपना शिष्य बनाते हैं। कवीर दासजी ने इस स्थिति को आज से चार सौ साल पहिले ही जान लिया था तभी तो उन्होंने लिखा है-

फूटी आँख विवके की लखे न संत असंत ।

जाके संग दस बीस हैं ताको नाम महन्त ।।

गुरूजी का दायित्व बहुँत बडा होता है। यदि गुरु शिष्य को धर्म पथ पर नहीं चला सकता तो दोनों ही पाप के भागी होते हें।

चाणक्यनीति तो यही कहती है- ।

श्राजाराश्ट्र्कृतंपापं राज्ञम्पापंपुरोहितः ।

भर्ताच स्त्रीकृतंपापं शिष्य पापंगुरुस्तथा।।

दोहाः प्रजा पाप नश्प भोगियत प्रोहित नृप को पाप ।

तिय पातक पति शिष्य को गुरु भोगत है आप ।।

बाबा महाराज ने न तो कोई चेला बनाया और न कोई पंथ ही चलाया। उनका राज तो उनके भक्तों के हृदय में चिर स्थाई है।

रामते अधिक राम कर दासा-

हमारे धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि मानव को भगवान की आराधना अवश्य काना चाहिये किन्तु यह भी कहा गया है कि भगवान से भी अधिक ऊूंचा स्थान भगवान के भक्त साधु-संतों का है। अतः,संतों की आराधना भी भगवान की ही आराधना निरूपित की गई है। पद्म पुराण का निम्न श्लोक

विचारणीय है-

आराधनानांसर्वेशां विश्णोराधानं परम् ।

तस्मात्परतरंदेवि तदीयानांसमर्चनम् ।।

अर्थात् समस्त आराधनाओं में विष्णु की आराधना श्रेष्ठ है। परन्तु हे देवि! उससे भी श्रेष्ठ उनके भक्तों का अर्चन हैं। आदिपुराण में तो यहाँ तक लिखा गया है कि जो मानव केवल मेरे ही भक्त हैं वे मेरे मान्य भक्त नहीं हैं किन्तु जो मेरे भक्तों अर्थात् संतों के भी भक्त हैं वे ही मेरे परम भक्त हैं-

मम भक्ता हिये पार्थ नमे भक्तास्तु मे मताः । मद्भक्तास्य तुये भक्ताते मे भक्तात्मा मताः।।

पद्म पुराण का में लेख है कि संतों को छोड भगवान की पूजा नहीं दम्भ मात्र है-अर्चयित्वातु गोविन्दमं तदीयान्नार्चयन्तिये ।

न ते विश्णोः प्रसादस्य भजनं दम्भिका मताः।।

अर्थात् जो भगवान का तो पूजन करते हैं किन्तु उनके भक्तों का नहीं ,वे प्रभु की कृपा के पात्र नहीं हो पाते। उनकी पूजा पूजा नहीं दम्भ है।

मानस में तो संत तुलसीदास जी ने तो रामजी के मुखसे ही कहला दिया है-

मो ते अधिक संत कर लेखे ।

अतः,बाबा महाराज की भक्ति,उनकी पूजा,उनकी आराधना भगवनकी ही आराधना है इसमें तनिक भी संशय नहीं हैं।

यही नहीं-

जो अपराध भक्त कर करही। राम रोश पावक सो जरही।।

क्यों कि‘‘संत तो सरल चित और जगत हित’’ होते है। वे तो रोश नहीं करेंगे किन्त राम के रोश से तो कैसे भी नहीं बच सकेगे।

अन्त में यही कहना चाहूँगा कि वे जन धन्य हैं जिन्हें बाबा महाराज के दर्शन,सत्संग औैर कृपा प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुँआ। वे ही नहीं वे भी धन्य है। जो उन सौभाग्यशाली भक्तों के दरशन करेंगे-

ते जन पुन्यपुन्ज हम लेखे । जे देखहिं देखहिं जिन्ह देखे।।

अन्त में मैं बाबा महाराज के चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम अर्पित कर अपनी लेखनी को विराम देता हूँ।

शून्यजी यह आलेख मुझे सोंपते हुये यह प्रसंग सुनाने लगे-‘‘डबरा से कुछ दूरी पर रजियार की पहाड़ी है। वहाँ सिद्ध बाबा का चबूतरा बना हुँआ है। मैं चीनोर रोड़ पर इन्जीनियर था। मैंने दयालदास जी घेाड़ेवाले इस स्थान पर निर्माण कार्य करा रहे थे। वे घेाड़ा साथ रखते थे ,इसलिये लोग उन्हें दयालदास जी घेाड़ेवाले के नाम से जानने लगे थे। वे उस स्थान पर बैठे-बैठे अपने भक्तों से कह रहे थे-‘‘छत के लिये काली गिटटी की जरूरत है तो सड़क वाले इन्जीनियर यहाँ आने की सोच तो रहे हैं।’’ इसके कुछ देर बाद ही मैं वहाँ पहुँच गया। उनके भक्त कहने लगे- ‘‘बाबा अभी आपकी ही याद कर रहे थे। ’’ मैंने कहा-‘‘ मेरी याद!’’ बाबा बोले-‘‘छत के लिये गिटटी की जरूरत पड़ रही है।’’ मैंने गिटटी की व्यवस्था करदी । मैं उनसे इतना प्रभावित हुआ कि मैंने उनसे गुरु दीक्षा ग्रहण की थी। वे जो कुछ कहते थे, वे सब बातें मस्तराम गौरीशंकर बाबा की तरह पूरी हो जातीं थी। सुना यह है कि दयालदास जी महाराज जिस जगह रहते थे वहाँ एक11वर्ष के बालक की मृत्यु होगई। लोगों ने उस बालक का सब इनके स्थान पर लाकर रक्ष्ख दिया तो बालक उठकर खड़ा होगया। जब महाराज लौटे तो इन्होंने वह जगह ही छोड़ दी और तब से रजियार आकर रहने लगे थे। इन्होंने यहाँ पर एक विशाल यज्ञ भी किया था जिसके भन्डारे में रास्ते रोक दिये गये थे।

0000000000