ओफ्फो! चीकू बेटा हर जगह तुमने ये अपना सामान बिखेरकर रखा हुआ है। अरे बेटा कम से कम अपनी किताब निकालते समय तो थोड़ा ध्यान दिया करो। पता है, सुबह से तीसरी बार मैं ये तुम्हारी बुक शैल्फ ठीक कर रही हूँ। प्लीज़ बेटा थोड़ा सा ध्यान रख लिया करो न और वैसे भी कल से मैं ये सब...कहते-कहते न जाने किस सोच में डूब गई रचना!!
ये लो भाई जो-जो तुमनें मंगवाया था, मैं वो सबकुछ ले आया हूँ बाजार से! अब बस तुम्हारा केक बनाने का सामान बचा है जो मैं शाम को जब अनुराग की किताबें लेने जाऊँगा, तब लेता आऊँगा क्योंकि वो केक शॉप उसी रास्ते में पड़ती है न!!
"अरे ये क्या?? मैंने अभी-अभी डाइनिंग टेबल साफ की थी और आपनें ये गंदा थैला इसपर रखकर फिर से गंदी कर दी, एक लम्बी साँस भरते हुए रचना बोली। एक तो आप वैसे भी घर का कोई खास काम तो करते नहीं हैं और जो थोड़ा-बहुत करते भी हैं, वो भी कल से बिल्कुल बंद हो जायेगा। कल से तो आप एक गिलास पानी भी अपने हाथ से लेकर नहीं पियेंगे मगर आज तो थोड़ा हाथ बंटा लीजिए मेरा", ये कहते हुए तेज हो गई रचना की आवाज!
घर का सारा काम निपटा कर रचना शाम को फिर से जल्दी ही खाने की तैयारी में लग गई। आज रचना नें खाने में सारी चीज़ें केतकी जी यानि कि रचना की सास की पसंद की ही बनायीं थीं। आलू गोभी और बैंगन के भर्ते से लेकर गाजर का हलवा और लौकी की बर्फ़ी भी बनायी थी उसनें और एक नयी चीज़ जो रचना के हाथों की बनी हुई केतकी जी पहली बार खाने वाली थीं वो था रचना द्वारा बनाया गया पाइनएप्पल केक! रचना को पता था कि उसकी सास को पाइनएप्पल बहुत पसंद है तो बस इसीलिए उसनें उनके लिए केक में भी पाइनएप्पल फ्लेवर ही चुना! वैसे तो रचना की सास कानपुर में ही रहती थीं क्योंकि उनका कहना था कि उन्हें दिल्ली शहर का माहौल, मौसम और मिजाज़ तीनों ही सूट नहीं करते हैं मगर फिर भी वो बेचारी अपने बेटे के मोह में साल में दो या तीन बार तो यहाँ खिंची चली ही आती थीं। दीपक की प्राइवेट नौकरी की भागमभाग में उसे छुट्टी कम ही मिल पाती थी और फिर इधर उनके बेटे चीकू उर्फ अनुराग का स्कूल, कराटे क्लास और रचना की ट्यूशन क्लासेज, तो बस इन सबके बीच वो चाहकर भी बड़ी ही मुश्किल से किसी तीज या त्यौहार पर ही कानपुर जाने के लिए दो या चार दिन का समय ही निकाल पाते थे।
"मम्मा! दादी जी आ गयीं", चीकू की आवाज़ कानों में पड़ते ही रचना नें अपने अस्त-व्यस्त कपड़ों और बालों को ठीक कर अपने माथे की बिंदिया पर हाथ लगाते हुए अपने सिर पर दुपट्टा लिया और फुर्ती से बाहर आ गयी,जहाँ केतकी जी अपने बेटे दीपक के साथ बस अभी-अभी स्टेशन से आकर खड़ी ही हुई थीं।
रचना नें सबसे पहले अपनी सासूमाँ,(हाँ इसी संबोधन से बुलाती थी रचना उन्हें)के हाथ से उनका ट्रैवलिंग बैग लिया और उनके पैर छुए। इसपर केतकी जी ने उसे खुश रहो का आशीर्वाद दिया और फिर बड़े ही जोश के साथ अपने पोते चीकू को गले से लगा लिया।
"सासूमाँ,सफ़र में कोई परेशानी तो नहीं हुई" रचना नें केतकी जी के सामने मेज पर पानी का गिलास और गाजर का हलवा रखते हुए पूछा।
"हैलो! हाँ, बहन नमस्ते मैं दिल्ली पहुँच गई हूंँ। हाँ मैं ठीक हूँ! आप बताओ दीदी कैसी हो? हाँ, अच्छा ठीक है मैं कल आराम से बात करती हूँ। हाँ हाँ बस हाथ पैर धोकर खाना ही खाऊँगी। ठीक है दीदी नमस्ते!"केतकी जी ने अपनी बड़ी बहन जो कि एटा में रहती हैं, को अपनी सकुशल दिल्ली पहुंचने की खबर देकर फोन रख दिया!
केतकी जी के पति अपनी जवानी से ही कोई खास काम धंधा नहीं करते थे यहाँ तक कि केतकी जी एवं उनके बेटे दीपक की जीवन यापन की भी सारी जिम्मेदारी उनके पिता यानि कि दीपक के नाना जी ने ही उठा रखी थी मगर पिछले साल उनके निधन के साथ ही केतकी जी एवं उनके पति का ये सहारा भी खत्म हो गया तब से दीपक ही हर महीने केतकी जी के अकाउंट में खर्च के रुपए पैसे डाल दिया करता है बल्कि दीपक से ज्यादा खर्च तो अपनी सासू माँ एवं ससुर पर रचना ही कर दिया करती है। एक तो रचना की ट्यूशन से अर्जित की हुई आय एवं समृद्ध मायका पक्ष उसके पर्सनल अकाउंट को कभी खाली नहीं होने देता। रचना भली प्रकार से केतकी जी की आर्थिक समस्या को समझते हुए हमेशा अपनी सामर्थ्य से भी अधिक करने का प्रयास करती है। रचना एक अच्छे परिवार से आयी हुई एक पढ़ी लिखी समझदार एवं सुलझे हुए व्यक्तित्व की स्त्री है।
आज केतकी जी को अपने बेटे व बहू के पास दिल्ली आए हुए पूरा एक हफ्ता बीत चुका था और बीते हुए इस एक हफ्ते में वो कम से कम रचना को चार या पाँच बार तो उसके वजन को लेकर खरी-खोटी सुना ही चुकी थीं। उन्हें लगता था कि रचना एक बहुत ही आराम परस्त जिंदगी जी रही है क्योंकि उनके अनुसार उनका बेटा तो बेचारा सुबह ही ऑफिस चला जाता है और रचना घर में मालकिन बन कर सारा दिन बैठे-बैठे खूब खाती है और एक काम भी नहीं करती है क्योंकि इस बार केतकी जी को उनकी सबसे नापसंद चीज यहाँ जो देखने को मिली और वो थी काम वाली बाई जिससे केतकी जी को सख्त परहेज है। बर्तन, झाड़ू-पोंछा से लेकर कपड़े तक धोने का सारा काम यहाँ तो कामवाली बाई ही करती थी। जबकि रचना के बढ़ते हुए वजन की वजह तो कुछ और ही थी मगर वो केतकी जी की हर एक बात को चुपचाप ही सुन लेती थी। शादी के इतने साल बीत जाने पर भी रचना ने कभी भी अपनी सास को पलट कर कोई जवाब नहीं दिया था तो फिर अब इतने सालों बाद वो कुछ भी कह कर अभी तक का अपना किया हुआ सब कुछ खत्म नहीं करना चाहती थी।
केतकी जी रचना को बात-बात पर रोकती-टोंकती थीं। उसके द्वारा किए गए हर एक अच्छे से अच्छे काम में भी कमी निकालना तो जैसे उनकी पुरानी आदत बन गई थी। वैसे इसमें जितनी गलती केतकी जी की थी उससे कहीं ज्यादा गलती शायद रचना की भी थी क्योंकि कहते हैं न कि गलत करने से भी ज्यादा दोषी होता है गलत को सहने वाला और फिर पलट कर जवाब देने वाली तो कोई बात ही नहीं है। अरे बस आपको सही को सही और गलत को गलत ही तो कहना है ना लेकिन एक बार रचना ने शायद इसी सोच के साथ अपनी सासू माँ के सामने सही को सही और गलत को गलत कह दिया था और फिर जो भूचाल आया था शायद उसी से पनपने वाले डर ने ही फिर कभी रचना को केतकी जी के सामने सही को सही और गलत को गलत कहने की हिम्मत नहीं करने दी!!
आगे की कहानी अगले भाग में........
लेखिका...
💐निशा शर्मा💐