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समिधा बीती बातों की डोर में उलझकर रह गई थी, अनेक अनुत्तरित उलझे प्रश्नों ने उसके मस्तिष्क की तमाम नसों को उलझाकर मकड़ी के जाले में कैद कर दिया था | पूरी रात भर वह एक ही स्थिति में पड़ी रही | पुण्या ने उसे उठाने का प्रयास किया परन्तु वह नहीं उठ पाई | उसके शरीर की चुस्ती, फुर्ती, ऊर्जा मानो भीतर ही चूस ली गई थी | उसकी सुबकियों ने पुण्या को बेचैन कर दिया था और वह अनचाहे करवटें बदलते हुए अपनी पिछली तस्वीरें खोलकर उन्हें उलट-पुलट करने लगी थी | अभी उसकी तस्वीरें इतनी धुंधली भी नहीं थीं, जख्म ताज़ा थे जो ज़रा से हवा के झौंके से उसकी दर्दीली किवाड़ों को खोल देते थे, अकेलेपन की चुप्पी में उसके वे हरे ज़ख्म उधड़ने लगे और यादों से रक्त बहने लगा |
पुण्या अभी युवा थी, स्वाभाविक था समिधा जैसा ठहराव उसके मन में नहीं था | पिछले वर्षों में वह ऐसी जटिल राहों से गुज़री थी कि अपनी मानसिक तथा शारीरिक स्थिति को संभालने में अभी वर्षों लगने थे | उम्र के एक ऐसे समय में जब क्ल्प्नओन पर सवार कच्ची, सलोनी, नाज़ुक संवेदनाएँ पूरे यौवन पर होती हैं, उस दौर में पुण्या के पंख काट डाले गए थे | उम्र का वह नाज़ुक दौर उसके लिए जीवन भर का नासूर बनकर रह गया था जो कभी भी टीसने लगता था |
अभी तक मस्तमौला का मुखौटा पहने खिलखिल करने वाली पुण्या अचानक ही अब बेचैन हो उठी | इस स्थान की भया हता ने उस पर हावी होना शुरू कर दिया था | वह बार-बार करवटें बदलने लगी, अस्थिरता से उसका मन काँपने लगा और वह अनचाहे ही एक शीत भाव से थर्रा उठी | उसके इस कंपन तथा बेचैनी भरी करवटों ने समिधा के विचारों में खलबली डाली और उसने अपनी स्थिति से निकलते हुए, आँसुओं भरी आँखों को पोंछते हुए पुण्या को हिलाया |
“क्या हुआ पुण्या ?” अंधियारी गलियों से निकलकर समिधा का ध्यान पुण्या की वर्तमान स्थिति पर केंद्रित हुआ | पुण्या रो नहीं रही थी, उसके चेहरे पर एक खौफ़ पसरा हुआ था, उसकी थर्राहट ऐसी थी जिसने समिधा को उसकी पुरानी गलियों से निकालकर पुण्या के प्रति उसका ध्यान खींचकर उसकी घबराहट के प्रति असहज कर दिया था | वह पुण्या के लिए बेचैन होने लगी | उसे ऐसा भी महसूस हुआ कि खिलखिलाती मुस्कान को इस रुआंसी स्थिति में परिवर्तित करने के लिए संभवत: वही उत्तरदायी है|
“दीदी !सब लोग आने वाले होंगे, तैयार हो जाना चाहिए | ”पुण्या ने स्वयं को सामान्य स्थिति में लाने का प्रयास किया पर सफ़ल नहीं हो सकी, उसके प्यारे से मुखड़े पर काले बादल छाए हुए थे |
“सॉरी पुण्या –मैं रात में बिना तुमसे बात किए ही सो गई ---थकान कुछ अधिक लग रही थी | ”इस समय मन में चलने वाले द्वंद के बारे में चर्चा करने का न ही समय था, न ही औचित्य !
“दीदी ! हमें शारीरिक थकान से अधिक मानसिक थकान तोड़ डालती है | ”पुण्या का स्वर उदास था, समिधा ने महसूस किया और उसे अपने ऊपर कोफ़्त हो आई |
ठीक है, वह पुरानी स्मृतियों में इस कदर घिर गई थी कि उसे ‘अपना होना’ही भूल गया था जैसे कोई एक दिशा में देखते हुए इतना तल्लीन हो जाता है कि अपना अस्तित्व भुला देता है, कुछ ऐसी ही स्थिति में पहुँच गई थी समिधा ! उसकी आँखों के आगे गोल-गोल चकते से घूमते रहे थे पर उसे यह भी समझना चाहिए था कि वह वहाँ अकेली नहीं थी, उसके साथ कोई और भी थी जो उससे उम्र तथा अनुभव में काफ़ी छोटी थी और उसके इस प्रकार गुम हो जाने पर उसका एकाकी महसूस करना स्वाभाविक था |
“तुम रास्ते में आते हुए भी असहज हो गई थीं | बताओ तो क्या बात है ?”समिधा ने पुण्या से इसरार करते हुए पूछा | यद्धपि वह समय की सीमा को समझ रही थी फिर भी बड़े होने के नाते समिधा की मानसिक असमान्य स्थिति को सामान्य करना उसकी ज़िम्मेदारी थी |
“मन की बात कह देने से हल्की हो जाओगी –“समिधा ने पुण्या के सिर पर हाथ फेरते हुए अपने बड़प्पन का इज़हार किया |
“क्या-क्या बताऊँ दीदी ?अभी –इतने ज़िंदगी में मौसम नहीं गिने, जितने ज़ख़्म गिने हैं –“
“समझ सकती हूँ ---शेयर करो तो, बाँट लेना अधिक अच्छा है पुण्या | ”समिधा अपने अतीत में से निकलकर अपने वर्तमान में आकर खड़ी हो गई | जैसे अचानक किसी ने उसका एक स्विच बंद के दूसरा दबा दिया हो |
“तुम्हारा मुस्कुराता चेहरा, खिलखिलाती हँसी, सम्मोहित करने वाली बातें ---तुम्हें देखकर ऐसा नहीं लगता कि इतनी पीड़ा झेल रही हो --सच है, आदमी के मन तक पहुँचना इतना आसान भी नहीं है }”
“तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो, क्या गम है जिसको छिपा रहे हो ?”समिधा को गीत की पंक्तियाँ याद हो आईं |
“हम मुस्कुराते हैं तभी हमारे पास चार लोग आते हैं दीदी, चेहरा लटकाए बैठने पर कौन घास डालेगा ?”कहकर पुण्या ने एक व्यंग्य भरी मुस्कुराहट फेंकी और फिर ज़ोर से खिलखिला उठी |
समिधा को फिर अपने उन्हीं दिवंगत मित्र की स्मृति हो आईं जिनके होने से सूखे मौसम पर भी बहार छा जाती थी | अपना दर्द छिपकर रखने वाले उसके वे मित्र अगर किसी दिन दिखाई न देते तो उदास चेहरों पर खिलखिलाहट फैलने के लिए हर समय खोजे जाते थे | चाय की मेज़ उनकी अनुपस्थिति में सूनी बनी रहती थी | लोगों की आँखें उनके चैंबर की दिशा में टकटकी लगाए रहतीं | उनके पदचाप की आहट से ही सबके चेहरों पर यही सोचकर मुस्कान पसरने लगती कि अभी वो आएँगे और उनके आते ही वहाँ पर उपस्थित लोग ही नहीं पूरा वातावरण ही खनकने लगेगा |
जिस दिन वे नहीं आते उस दिन चाय की महफ़िल सूनी बनी रहती | जैसे बिना फूलों का सूखा बगीचा !न जाने कहाँ-कहाँ से शब्दों को तोड़-मरोड़कर वे चुटकुले बना लेते थे | वे अपने काम में से ही चुटकुले खोज निकालते या फिर किसीके नाम को तोड़-मरोड़ डालते |
मंजु को उन्होंने ‘मन की जूँ‘ बना दिया था तो मंजरी को ‘मन की जरी’, मधु को ‘मन की धुक-पुक, दक्षिण की रमईया उनके लिए ‘राम की मैया‘ बन जाती तो संदेश ‘सन का देश‘! उन्हें कुछ न कुछ चुहलबाज़ी करनी होती थी | कुछ ऐसी जिससे चेहरों पर मुस्कुराहट, खिलखिलाहट पसर सके | उनके शुरू होने के बाद और लोग भी उनके इस बकवासी क्रिया-कलाप में आ जुड़ते और आधा घंटे का समय घंटे भर में तब्दील हो जाता |
हाँ, उनकी एक बात बहुत महत्वपूर्ण थी जो सदा उनको एक स्तर पर प्रतिष्ठित करके रखती थी | वे सदा अपने काम को पूरा करके ही डैस्क से उठते थे और अन्य सभी से भी यही अपेक्षा रखते थे | अपनी ज़िंदगी के पूर्ण युवाकाल में अपना बहूत कुछ खो देने वाले ऐसे शख़्स –जो सदा यह कहते नज़र आते थे ;
‘The show must go on‘उनकी इस टिप्पणी पर समिधा को राजकपूर की फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ याद आ जाती थी |
यद्यपि समिधा से पुण्या की पहचान बहुत पुरानी न थी परंतु वह उसे पहचानने लगी थी | उसकी आँखों से रिसती पीड़ा से वह अनभिज्ञ नहीं थी | उसे अपने दिवंगत मित्र के कई संकेत पुण्या में नज़र आ रहे थे| न जाने उसने क्या भोगा, सहा था ? जब कभी पुण्या की सूनी आँखें शून्य में देखते हुए पथराने लगतीं, समिधा का मन करता कि उससे उसके बारे में पूछ ही ले –पर, बीच में संकोच आ खड़ा होता और उसकी पूछने की सीमा पर प्रतिबंध लग जाता |
पुण्या ने दामले को हिस्सों में बाँटकर ‘दाम—ले‘ कर दिया था }ड्राइवर बंसी को वह ‘बन की सीटी‘ पुकारती और बात-बात पर इतना हँसती कि उसे अपना पेट पकड़ना पड़ जाता | उस खिलखिलाती लड़की के भीतर कितना सूनापन करवटें लेता था, इसे आसानी से पहचानना कठिन था |
“कुछ तो बोलो, मैं तुम्हारा दिल नहीं दुखाना चाहती –पर, दर्द बाँट लेने से हल्की हो जाओगी –| “