Nainam chhindati shstrani - 39 in Hindi Fiction Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 39

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नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 39

39

कुछ पलों में ही दया एक हाथ में सुम्मी की गुल्लक तथा दूसरे में गुल्लक की चाबी लेकर बाहर आई | चारपाई पर बैठते हुए बोली ;

“चलो, उठो –हमारे पास काम शुरू करने के लिए पैसे हैं | कोई ज़रूरत नहीं है कड़े रखने की !”

राजवती एक झटके से उठकर बैठ गईं | 

“कहाँ हैं हमारे पास पैसे ?”

“ये क्या हैं ? चलो गिनते हैं | ”दया ने पास पड़े एक तौलिए पर गुल्लक खोलकर ख़ाली कर दी जिसमें छुट्टे पैसों के साथ एक-एक रुपयों के भी कई नोट दिखाई दे रहे थे | 

“ये तो सुम्मी की गुल्लक है –पागल हो गई हो क्या, बच्ची की गुल्लक से पैसे लूँगी ?”बीबी एकदम बिगड़ उठीं | 

“ये सुम्मी का ही आइडिया है, उसीने तो दौड़ाया मुझे तुम्हारे पीछे | अरे ! सुनार के पास गिड़गिड़ाने से तो अच्छा है कि गुल्लक से पैसे ले लें | जो कुछ भी घटित हुआ है, वह शहर में तो सब जानते हैं | अगर घर से ही काम चल जाता है तो क्या ज़रूरत है बाहर जाने की ? मंगल कड़े रखकर पैसे देगा, ब्याज लेगा, अहसान करेगा और सारे शहर में ढिंढोरा पीटेगा सो अलग | ”

“अरे! पर जब चीज है मेरे पास तो किस दिन काम आएगी?”उन्हें बच्ची के जोड़े हुए पैसे लेना गवारा नहीं था | 

स्वाभिमानी मनुष्य चाहे कितनी परेशानी झेल ले पर आसानी से कुछ समझौते नहीं कर पाता | राजवती बीबी स्वाभिमानी महिला थीं, कम से कम में गुज़ारा चला लेने वाली महिला !परंतु जब कम के भी दरवाज़े बंद हो गए हों तब मन की उलझन और भटकन बढ़ जाती है और टूटती डोरी को संभालने के लिए ‘समझौते’की देहरी पर पाँव रखने ही पड़ते हैं | इस समय बीबी की यही स्थिति थी | 

जीवन के ज्वलंत प्रश्नों से जूझते हुए उनका लक्ष्य अंधकार में विलीन होता जा रहा था | बीबी अपने लक्ष्य विहीन होने की कल्पना से ही घबरा उठी थीं | वे जिस लक्ष्य के लिए अपने पति की न जाने कितनी मान-मनौवल करके उन्हें शहर लाने के लिए पटा पाईं थीं, अनेकानेक अवरोधों को झेलते हुए वे न जाने किस प्रकार अपने निर्णय की डोर को खींचकर पकड़े रहीं थीं, उसे टूटने से बचाने के लिए न जाने उन्होंने कितने प्रयत्न किए थे –पर, परिणाम कितना बड़ा शून्य !

“ ये देखो, पूरे चारसौ अस्सी रुपए हैं, तुम बता रहीं थीं ढाईसौ में एक भैंस आ जाएगी –दो तो खरीदी ही जा सकती हैं –क्यों?अभी दो से काम शुरू तो हो ही सकता है –बीस रुपए का इंतज़ाम भी हो ही जाएगा | तुम इसकी चिंता मत करो, भैंस खरीदने का इंतज़ाम करो | ”

समिधा की माँ अध्यापिका थीं और उनकी तनख्वाह मात्र दौ सौ थी | उसके पापा की अधिक थी किन्तु उनको दिल्ली के खर्चे के अलावा घर पर भी पैसा देना होता था | 

अब तो बीबी की आँखें परगना बनकर उनके गालों पर फिसलने लगीं, मानो बांध टूटने की कगार पर आ गया हो | उनकी हिचकियों से सारा माहौल भीग उठा था | वे अपनी करीबी दया के कंधे पर सिर टिकाकर सुबक ही तो पड़ीं | शब्द उनके मुख से नहीं आँखों से झर रहे थे, उन शब्दों का अर्थ दया खूब समझ रही थी | 

“जीवन की विवशता एक प्रकार की नहीं होती, वह तो हर पल जीवन की तस्वीर बदलती रहती है | 

“शांत हो जाओ और अपने सामने के बंद दरवाज़े खोलो | जब पैसे आ जाएँगे तब सुम्मी को वापिस कर देना –और काम बहुत बढ़िया चल जाए तो उसे और ज़्यादा दे देना, समझना उसका ब्याज़ दे दिया | ”दया ने राज की पीठ सहलाते हुए उसे सांत्वना देने का प्रयत्न किया | 

“नहीं मौसी जी, मैं तो डबल लूँगी, ऐसे ही थोड़े ही छोड़ दूँगी आपको --?”सुम्मी अचानक किसी पेड़ से पके हुए फल सी टपक पड़ी थी | 

राजवती ने नपनी आँखें पोंछ डालीं | समिधा को देखकर उनके मुख पर मुस्कान आ गई | उनसे कुछ भी कहते न बना और कुछ क्षणों के पश्चात सुम्मी की ओर कृतज्ञतापूर्वक स्नेहमयी दृष्टि डालकर उन्होंने दया से कहा ;

“पता नहीं, मुझे तो आभार मानना भी नहीं आता | मुझे पता नहीं क्या, तुम्हारी यही जमा-पूँजी है | अब जो भी है, मैं सबसे पहले काम करके आऊँ | ”

दया जानती थी अब जब तक राजवती चैन से नहीं बैठेगी जब तक अपना लक्ष्य पूरा नहीं कर लेगी | उन्हें ज़रा से संबल की ही तो आवश्यकता थी जो अब उन्हें प्राप्त हो गया था | कई बार हम चारों ओर भटकते रहते हैं और टूटने लगते हैं, हम नहीं जानते कि जीवन के समुद्र की लहरें हमें कहाँ उठाकर पटकने वाली हैं और अचानक एक लहर के साथ हम किसी किनारे पर आ लगते हैं जहाँ से उठकर चलना हमारे लिए काफ़ी आसान हो जाता है | यद्यपि किनारे की भुरभुरी गीली रेत में उठकर चलने में हमारे पाँव बार-बार धँसते जाते हैं पर हम डूबने से तो बच जाते हैं|