Nainam chhindati shstrani - 37 in Hindi Fiction Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 37

Featured Books
  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

  • All We Imagine As Light - Film Review

                           फिल्म रिव्यु  All We Imagine As Light...

  • दर्द दिलों के - 12

    तो हमने अभी तक देखा धनंजय और शेर सिंह अपने रुतबे को बचाने के...

Categories
Share

नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 37

37

उनकी मूल दुकान में बनने वाली किसी मिठाई में न जाने क्या गड़बड़ हुई कि जिन लोगों ने मिठाई खाई उन्हें वमन शुरु हो गई | पेट में भयंकर दर्द तथा ऐंठन होने लगी | इस सीमा तक कि मिठाई खाने वाले लोगों को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा | 

दीपावली का बड़ा उत्सव और अस्पताल के चक्कर ! मिठाई खाने से भयंकर ‘फूड-प्वायज़न’ होने से वातावरण में घबराहट पसर गई | जब तक पता चलता कि मामला कहाँ गड़बड़ है, किस प्रकार इसमें रोक-थाम हो सकती है?तब तक तो चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई थी | परिस्थिति उनके वश से बाहर हो चुकी थी | यह इतना ज़बर्दस्त आघात था कि किन्नी के पिता सिर पकड़कर बैठ गए | जितने दिनों में उन्होंने व्यापार जमाने का प्रयत्न किया था, जितना धन, जितना समय, जितना श्रम उन्होंने व्यापार को बुलन्दियों पर पहुँचाने के लिए प्रयास में लगाया था, उसके हिसाब से उनके पैर अभी जमने ही लगे थे, बुलन्दियों के स्वप्न के अंकुर उनकी आँखों की क्यारी में उगने शुरू ही हुए थे कि समय के चंद लम्हों ने उनकी आस्था, उनके श्रम, उनके विश्वास, उनकी आस सबको एक घनघोर पानी के रेले में बहाकर ज़िंदगी की असली सच्चाई की खुरदुरी ज़मीन पर ला पटका | उनका मस्तिष्क शून्य हो गया | 

घर की समस्याएँ, बच्चों की शिक्षा, उनको कुछ बनाने का सपना तो एक ओर –अब तो यहाँ उनके पेट भरने के विषय में ही सोचकर ही वे मानसिक व शारीरिक रूप से अपंग हो गए थे | किन्नी के पिता ने एकदम बिस्तर पकड़ लिया, उन्हें फ़ालिज पड़ चुका था | समस्याएँ सुरसा की भाँति मुँह फाड़े खड़ी थीं और उन्हें पल-पल झँझोड़ रही थीं, चुनौती दे रही थीं पर कोई मार्ग सुझाई नहीं दे रहा था | परिवार को भूख से बचाने के लिए उनकी सोचने की शक्ति भी समाप्त हो चुकी थी | 

कितना कुछ सोचता है मनुष्य अपने भविष्य के लिए –ताउम्र संचित करने की ललक, ताउम्र संचय से सुख पाने की ललक, बच्चों को योग्य बनाकर ताउम्र उससे संतुष्टि पाने की, गर्वित होने की ललक! ये सब मनुष्य –मन की आंतरिक भावनाएँ उसके मन व शरीर का हिस्सा बनी रहती हैं | 

जब कोई अनहोनी घटना अचानक आक्रमण कर बैठती है तब वह भीतर-बाहर दोनों से टूट जाता है, बिखर जाता है और कभी -कभी तो उस स्थिति में इतना धँस जाता है कि चाहते हुए भी उससे उबर नहीं पाता | ऐसा ही कुछ किन्नी के पिता के साथ भी हुआ और वह अच्छे ख़ासे सुंदर व आकर्षक व्यक्तित्व की इमारत से एक खंडहर में तब्दील हो गए | 

पिता को काठ मार गया, माँ के समक्ष अब जीवन की वास्तविक चुनौती मुँह फाड़े खड़ी थी | एक ऐसी अकेली स्त्री जो कुछ वर्ष पूर्व तक गाँव से बाहर भी नहीं निकली थी, जिसने पुस्तकों के पन्ने अब अपने बच्चों के साथ पलटने शुरू किए थे, बच्चे मखौल करते हुए माँ को उसका नाम लिखना और शब्दों के जोड़-तोड़ सिखाने लगे थे| 

वे माँ से हिसाब पूछते कि यदि कोई चीज़ 10 रुपए किलो है तो उसी चीज़ के पाँच किलो का क्या भाव होगा ?उनके गलत उत्तर देने पर सब मिलकर ठहाके लगाते | यह वह ज़माना था जिसमें आमदनी कम थी पर उसमें आम आदमी अपनी मूलभूत अवश्यकताएँ पूरी कर लेता था | कोई दिखावा न था, आज के जितने आकर्षण न थे, बस –गिनी-चुनी कुछ चीज़ें थीं जिनसे त्योहार मनता था | कद्दू-कचौरी, बूँदी का रायता, आलू की लिटपिटी सब्ज़ी के साथ ख़स्ता कचौरी या ऐसे ही कुछ चटपटी सब्जियाँ | मीठे में खूब कढ़ी हुई चावलों की मेवे (ड्राई फ्रुट्स )डाली हुई खीर या बूँदी के लड्डू, इमारती, बालूशाही –ऐसी ही कुछ मिठाइयाँ !

“बीबी को कुछ खारीदने मत भेजना पिता जी, लुटकर आ जाएँगी | ”कोई बच्चा कहता और वातावरण में एक ठहाका पसर जाता | 

सभी बच्चे माँ को बीबी कहकर पुकारते थे, समिधा यानि सुम्मी भी !उसे भली प्रकार याद है एक बार घर के बाहर कोई ठेले वाला सब्ज़ी बेच रहा था | रविवार का दिन था, माँ की भी छुट्टी थी | दोनों घरों की स्त्रियाँ सब्ज़ी लेने ठेले पर खड़ी हुईं, मोल-भाव होने लगे –

“ओहो ! टमाटर एक रुपए किलो बेच रहे हो ?सारी मंडी में दो रुपए किलो मिल रहे हैं टमाटर !”बेचारा सब्ज़ी वाला अवाक सा बीबी का चेहरा देखता रहा }समिधा की माँ ने हँसकर कहा –

“रहने दो राजवती, तुम तो सच्ची लुटवाओगी, टमाटर पचास पैसे किलो हैं मंडी में !”उन दिनों पचास पैसे, पच्चीस पैसे चलते थे | 

फिर तो सबने मिलकर जो उनकी हँसी उड़ाई कि बीबी ने भी ठान लिया कि वे भी पढ़-लिखकर दिखा देंगी, ये सब उन्हें समझते क्या हैं ?वो तो उन्हें अवसर नहीं मिला वर्ना वे आज न जाने कहाँ होतीं !इस दियाबत्ती (समिधा की माँ दयावती )से भी आगे !जब बीबी को सुम्मी की माँ पर गुस्सा आता था तब वे उन्हें दियाबत्ती कहकर चिढ़ाती थीं | उस समय यह किसने सोचा था कि ज़िंदगी हँसते-हँसते रुला भी देती है | ज़िंदगी का यह फंडा बस—ज़िंदगी ही जानती है | 

बीबी अभी अपनी शिक्षित होने की चुनौती को पूरी तरह स्वीकार भी नहीं कर सकी थीं, वे मन ही मन सोच रही थीं कि दयावती से चुपचाप पढ़ना शुरू कर देंगी और फिर बच्चों को दिखाएंगी कि वे क्या कर सकती हैं ?उन्हें कहाँ इस बात का आभास था कि ज़िंदगी कि एक गंभीर और संघर्षपूर्ण चुनौती उन्हें आलिंगन करने बाहें पसारे खड़ी है | 

इस घटना के पश्चात अब उनकी वास्तविक ज़िंदगी शुरु हुई थी ।एक युद्ध, एक परीक्षा –जिसमें से उन्हें पूरे नंबर लेकर उत्तीर्ण होना ही था | पति फ़ालिज की चपेट में आ गए ! बच्चे –कच्ची उम्र के, खाना-पीना, शिक्षा –सब कुछ ही तो मुँह फाड़े खड़ा था –एक ज़बर्दस्त चुनौतीपूर्ण जीवन !अब उन्हें ही सब कुछ संभालना था | उनके दिमाग में यही हलचल रहती कि बच्चों और बिस्तर में पड़े हुए असहाय पति का बोझ कैसे उठा पाएंगी?बैंक का लोन सिर पर भारी गठरी की भाँति रखा था | क्या करूँ –क्या न करूँ?की ऊहापोह के झूले में झूलती, छटपटाती बीबी का आत्मविश्वास टूटने की कगार पर आ खड़ा हुआ था | 

वे पढ़ी-लिखी तो थीं नहीं जो कहीं पर भी नौकरी लग जाती | अपने दिल की पीड़ा वे केवल समिधा की माँ से ही बाँट सकती थीं, कोई भी तो साथ देने के लिए तैयार नहीं था | गाँव के रिश्तेदार पहले से ही रुष्ट थे, गाँव छोड़कर बच्चों को कुछ बनाने की धुन में शहर जो आ गईं थीं | जानती थीं कि ऐसे समय में कोई साथ दे या न दे समिधा का परिवार उनके परिवार के साथ ज़रूर खड़ा होगा |