Nainam chhindati shstrani - 36 in Hindi Fiction Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 36

Featured Books
Categories
Share

नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 36

36

बड़े होने पर समिधा इन सब बातों को लेकर बहुत हँसती थी और सारांश को बताती कि अब ऐसा लगता है जैसे हम कोई प्रेमी-प्रेमिका हों और आँखों के इशारे से एक-दूसरे के मिलन-स्थल के बारे में सांकेतिक शब्दावली का प्रयोग करते हों | तब तक दोनों अनजान और मासूम थीं, उन्हें तो बस खेलने में रमना आता था | हाँ, घर-परिवेश से अब परिचित होने लगीं थीं | भविष्य कुछ होता है, इसके बारम्बार दोहराए जाने पर कभी-कभी उसके बारे में भी दोनों के बीच अर्थहीन चर्चाएँ होतीं, फिर विचारों के गुब्बारे हवा में उड़ जाते और वे दोनों अपने में मस्त गुनगुन करते भँवरों की भाँति एक घर से दूसरे घर में गुंजन करती रहतीं | दुख-सुख दोनों कभी-कभी चीर-फाड़ करके घटित होते रहते और ज़िंदगी के पाठ पढ़ते रहते | 

ये घटित होना सदा भीतर को छूता ही रहा है| इस छूअन को वह अपने पति सारांश तथा बच्चों में बाँटती रही है | बच्चे भी माँ की बातें सुन-सुनकर पक चुके थे| पहले तो उसकी बिटिया अपने हाथों की दस उंगलियाँ दिखाती | वह कहना चाहती थी कि वे लोग उन बातों को दस बार सुन चुके हैं | बाद में तो हाथों के साथ पैरों की उंगलियाँ भी दिखाने लगी थी | उसके बाद कहने लगी –

“अब और उंगलियाँ कहाँ से लाऊँ माँ ? इतनी बार आपकी राम-कथा सुन चुकी हूँ, रट गई है | अब तो आप एक किताब ही लिख डालो | ”

हाय राम ! बच्चे भी कैसे हैं, उसकी बात की कोई क़ीमत ही नहीं ! वह उदास हो उठती | फिर खुद ही मुस्कुराने लगती | 

“ठीक ही तो है, वह भी कमाल करती है –कितनी बार सुनेंगे बच्चे भी !”

पापा, माँ से गुस्सा ही रहते थे | छोटे से शहर में रहकर उनकी बच्ची क्या कर लेगी? बेकार ही यहाँ पड़ी हुई है, अगर दिल्ली के स्कूल में पढ़ती तो आदमी बन जाती !

न जाने कब किन्नी ने सुम्मी के पिता को कहते सुन लिया था, वह ठहरी सुम्मी की पक्की सहेली !उसे चिंता होनी स्वाभाविक ही थी | मौका पाते ही दौड़ी-दौड़ी आई | 

“अरे ! पता है, कितना अच्छा हुआ तू दिल्ली नहीं गई, नहीं तो तू आदमी बन जाती | ”

“हट्ट –पागल ऐसे भी कहीं होता है ?” आदमी बनने की बात सुनकर सुम्मी को अपना लड़का बनकर बड़ा होना और अपने चेहरे पर दाढ़ी-मूँछ निकलना दिखाई देने लगा | वह उदास हो उठी | सुम्मी के पापा थे कि बस, अड़े हुए थे अपने फैसले पर ! वह जाना भी चाहती है या नहीं ?इसकी उन्हें कोई परवाह नहीं थी | 

“सच्ची ! भगवान कसम –तेरे पापा, अम्मा बात कर रहे थे | ”

“तो –तू मेरे पापा, अम्मा की बातें क्यों सुना रही थी ?”समिधा को गुस्सा आने लगा था | 

“जब मेरे कानों ने सुना तो मैं क्या करूँ ?—और मैं ख़राब हूँ क्या? मैं पूछूंगी न मौसा जी से ।ऐसे कैसे ले जाएँगे वो तुझे, मेरा हुकुम है फ़ाइनल !”एकदम प्रेज़ीडेंट रूल !

इन बच्चों की छोटी-छोटी बातों से दोनों परिवारों के बड़े आनंदित होते रहते | कितनी यादें जुड़ीं थीं सुम्मी की अपने बचपन से जो इस हादसे के बाद बार-बार उसे झँझोड़े दे रही थीं | दिल्ली जाने के नाम पर दोनों बच्चियों ने इतना शोर मचाया था कि सुम्मी को दिल्ली ले तो जाया गया पर एक वर्ष के भीतर ही दोनों ने रो-धोकर इतना परेशान कर दिया कि सुम्मी के पिता को उसे वापिस लाकर उसकी माँ के पास छोड़ना ही पड़ा | फिर से सब-कुछ वैसा ही होने लगा –स्कूल के अलावा भी हर जगह साथ आना-जाना, मार-पीट, गुस्सा-झगड़ा, रूठना-मनाना, सब कुछ पहले जैसा ही !

गाँव से आकर किन्नी के पिता ने सिंग मिठाई’ की जो दुकान शुरू की थी, वह ऐसी दौड़ी कि न केवल उसी शहर में वरन आस-पास के शहरों में भी उसकी प्रसिद्धि फैलने लगी | इतनी कि लोगों की माँग पर उन्हें दूसरे शहरों में भी अपनी दुकान की कई शाखाएँ खोलनी पड़ीं | उस समय बैंक-लोन आदि की सुविधा आसानी से प्राप्त नहीं होती थीं | उनके किसी मित्र ने उन्हें बैंक-लोन भी दिलवा दिया जिससे उन्होंने आस-पास के शहरों में अपनी दुकान की शाखाएँ खोल लीं | 

आसपास के शहरों में उनकी दुकान जैसी स्वादिष्ट मिठाई कहीं नहीं बनती थी| बालूशाही, गुलाबजामुन, बंगाली रसगुल्ले साथ ही गर्मागर्म समोसे व टिक्की बनाने में उन्हें विशेष ख्याति प्राप्त थी | उनका व्यापार खूब धड़ल्ले से चल निकला था | इतना कि दो-तीन वर्ष में ही किराए के मकान से निकलकर उन्होंने अपने लिए मकान खरीद लिया जिसे ‘घर’ बनाने के लिए उन्होंने जी तोड़ परिश्रम करना शुरू कर दिया | 

अब उनकी चारों ओर वाहवाही होने लगी थी | शहर के लोग ‘सिंग मिठाई’के इतने आदि हो गए थे कि अन्य दुकानों की मिठाई उनके सामने फीकी पड़ने लगीं थीं | इनकी मिठाई के सामने लोगों को किसी भी दुकान की मिठाई पसंद न आती | किन्नी के पिता को अपना ‘स्टाफ़‘ बढ़ाना पड़ा और अपनी दुकान को आधुनिक रूप देकर उन्हें वहाँ एक रेस्टोरेंट बनाना पड़ा जहाँ बैठकर खाने के शौकीन लोग व्यंजनों का स्वाद ले सकें | 

किन्नी के माता-पिता भी अपनी छोटी बिटिया किन्नी व बेटे किन्नू को बड़े शहर में शिक्षा दिलाने के स्वप्न देखने लगे | नई योजनाएँ बनने लगीं, जिनके तहत बच्चों को कुछ बनाने का सपना उनकी आँखों में नई रोशनी भरने लगा | हम चाहे कितने भी समर्थ क्यों न हो गए हों किन्तु कुछ बातों में यह स्वीकार करना ही पड़ता है कि प्रत्येक बात के होने का, प्रत्येक घटना का एक सुनिश्चित समय होता है, वह अपने समय से घटित हो ही जाती है | 

हर वर्ष की भाँति इस बार भी दीपावली खूब प्रसन्नता व खुशियों का खज़ाना लेकर आई थी | ’सिंग मिठाई’ को सभी शहरों में ढेर से ‘ऑडर्स’ मिले थे | जिन्हें किन्नी के पिता अपने कारीगरों के साथ पूरा करने में अपने पूरे परिश्रम से जुटे हुए थे | 

मालूम नहीं ‘नज़र’ कुछ होती है या नहीं पर यदि होती है तो किन्नी के परिवार को, उनकी बढ़ती हुई उन्नति को अचानक जैसे किसी की नज़र ही लगी थी | हँसते-खिलखिलाते लोगों पर गाज गिर पड़ी| ऊंचाइयों को छूने में प्रयासरत किन्नी के पिता ने अपने आपको श्रम की भट्टी में झौंक दिया था | वे हर पल अपने मिठाई के व्यापार को व्यवस्थित करने में लगे रहते | 

जिस शहर में उनकी दुकान की मूल शाखा थी, वहीं उनकी विशेष मिठाइयाँ बनतीं थीं | वे मिठाइयाँ मुख्य शाखा से पास के अन्य शहरों में भेजी जातीं | इस वर्ष दीपावली के इतने ऑडर्स थे कि उन्हें विश्वास हो चला था कि इस दीपावली के बाद वे अपने बैंक का सारा ‘लोन’ भरकर निश्चिंत हो सकेंगे | वे श्रम से कभी भी घबराए नहीं थे और भाग्य भी उनका साथ दे रहा था पर—जीवन में कभी-कभी ऐसी घटनाएँ घट जाती हैं जिनके बारे में सपने में भी कभी गुमान नहीं होता | न जाने यह किसी की शरारत थी या किसीसे गलती से हुआ था | परिणाम एक ही था –उनका दुर्भाग्य !