Nainam chhindati shstrani - 35 in Hindi Fiction Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 35

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नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 35

35

लड़ते-भिड़ते, झख मारते दोनों चाट की दुकान से घर तक आ गईं थीं | किन्नी जानती थी, सुम्मी उसके साथ खेलने नहीं आई थी और उसे घर पर न पाकर वह समझ गई थी कि वह कहाँ होगी? सुम्मी भी क्या करे ? जाटनी खुद तो चाट खाती नहीं थी, उसके पीछे किसी जासूस की तरह लगी रहती थी | 

एक के बाद एक पृष्ठ खुलते रहे –और समिधा अपने अतीत की गलियाँ पार करती रही | पुण्या न जाने कब आकर गहन निद्रा में लीन हो चुकी थी | 

कुछ दिन पहले ख़बर मिली थी कि किन्नी की माँ जिन्हें सब बीबी कहते थे, उनका, बड़ी बहन मुन्नी जीजी का और जीजा जी का एक ही समय में कत्ल कर दिया गया था | समिधा थर्रा उठी थी, उसे नॉर्मल होने में बहुत समय लग गया था | 

ऐसा होना स्वाभाविक होता है | जीवन की जिन राहों से हम गुज़रते हैं, जिन लोगों से बाबस्ता होते हैं | जिनके साथ लड़ते-झगड़ते, मुस्कुराते-रोते हैं | जीवन में उनका एक विशेष स्थान बन जाता है | वास्तव में वे हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग ही बन जाते हैं | एक अंग का निर्जीव हो जाना मायने रखता है | 

ऐसा ही कुछ उसके उन मित्र के साथ हुआ था जिनकी मृत्यु अभी हाल ही में हुई थी | दोनों परिवेशों में अन्तर था –बस ! किन्नी के साथ उसने पूरा बालपन गुज़ारा था | बच्चों की मासूमियत, लड़ाई-झगड़ा, प्यार-मनुहार, मार-पिटाई—सब प्रकार का जीवन जीया था और इन मित्र के साथ भावनात्मकता, संवेदनशीलता का समय गुज़ारा था | 

बचपन की ड्योढ़ी पार करके यौवन के सुनहरे सतरंगी सपनों को सँजोकर किन्नी अपने पति के साथ विदेश में जा बसी थी | सुम्मी भी अपने उस वातावरण, उन गलियों, उस महक से बहुत दूर निकल आई थी पर वह अभी भी जीवित थी | अपने बीते बचपन की स्मृतियों की डोर से बँधी गलियों की ख़ुशबू से सराबोर वह किसी न किसी घटना से बँध पीछे मुड़कर देखती रहती थी | यह बीता शैशव कभी भी, ऐसे ही उसके सामने आकर खिलवाड़ करने लगता था, आँख–मिचौनी खेलने लगता | 

स्मृतियों के गलियारे की खिड़की सबके दिलों में कभी न कभी खुलती रहती है और इंसान वापिस अपनी जड़ों में लौटना चाहता है, धड़कते हुए हृदय से पुराने पृष्ठों को पलटकर, बालपन की उस सौंधी मिट्टी से भरे अहसासों को छूना चाहता है, एक बार फिर से महसूस करना चाहता है | 

अतीत का काल-चक्र उसे साँस नहीं लेने दे रहा था | वह बार-बार उसके दिमाग पर छाए जा रहा था | सिर भारी, आँखें भारी—सब कुछ तोड़ देने वाला जो तोड़ देता है पल-खुशी, बाँध लेता है एक ऐसी डोर से जो तुड़ाई न टूटे | इसी अनछुई डोर को पकड़े-पकड़े न जाने कब उसकी आँख लग गईं | 

गर्मी की छुट्टियाँ इसी प्रकार व्यतीत होतीं | कभी सुम्मी की मम्मी के साथ दोनों दिल्ली घूमने जाते तो कभी किन्नी के गाँव का चक्कर लगता | सुम्मी की माँ नहीं जा पातीं पर सुम्मी ने किन्नी के साथ गाँव में पेड़ों पर चढ़कर खूब कच्ची अंबियाँ तोड़ी हैं| बीबी (किन्नी की माँ)। जीजी, किन्नू सब ट्रैक्टर में बैठकर गाने गाते, खूब हो—हल्ला करते हुए जाते | 

कुछ स्मृतियाँ ऐसी होती हैं जो समय–समय पर मस्तिष्क में उमड़ती-घुमड़ती रहती हैं, ये बचपन की स्मृतियाँ ऐसी ही थीं | वैसे बंद पड़ी रहतीं दिल की कोठरी के अंधकार में परंतु जब कोठरी का दरवाज़ा खुलता तो प्रकाश बाहर उठता | लगता यह सब बरसों पूर्व नहीं, अभी सब कुछ घटित हो रहा हो, उसकी आँखों के सामने | फिर एक पन्ना और पलट जाता | 

सुम्मी के पापा जब भी दिल्ली से आते सुम्मी और किन्नी को समय बर्बाद करते देखकर चिंतित हो उठते | दोनों को कितने प्यार से समझाया था उन्होंने –एक नहीं, कितनी-कितनी बार!

“ज़िंदगी में बीता समय कभी लौटकर नहीं आता | मैं तुम्हें खेलने के लिए मना नहीं करता पर कुछ मौलिक सृजनात्मक ‘creative’करना सीखो | ”

“ओहो ! मौसा जी एक तरफ़ ये डांस करने जाती है, दूसरी तरफ़ संगीत सीखने जाती है । पेन्टिंग करती है, पढ़ाई करती है, क्या-क्या करे –बेचारी मेरी सहेली --!!”किन्नी दादी माँ की तरह ठोड़ी हाथों में भरकर उनके सामने बैठ जाती | डरना तो जानती ही नहीं थी, वह किसी से ---!

“वो सब ठीक है बिटिया –पर मेरी दादी माँ ! ये जो छुट्टियों की पूरी दोपहर तुम बर्बाद करते हो न, उसमें कुछ अच्छी किताबें पढ़ा करो | देखो, दिल्ली से कितनी किताबें लाता हूँ मैं तुम्हारे लिए –बताओ कितनी पढ़ीं ?”

“मौसा जी –ओफ़्फ़ो, स्कूल में पढ़ाई, ट्यूशन में पढ़ाई हर समय पढ़ाई !!? ये क्या बात हुई ?”वह इतनी अदा से कहती कि पापा के मुख पर बरबस मुस्कान खिंच जाती | किन्नी से कोई जीत सकता था क्या?हाज़िर जवाब इतनी कि सामने वाला अनुत्तरित हो जाए | 

सुम्मी के पापा शिक्षित होने के साथ सदा प्रगति-पथ पर अग्रसर होने वाले जीव !उनकी इच्छा थी कि उनकी बेटी खूब पढ़-लिखकर सभ्य समाज की एक जानी-पहचानी हस्ती बने | 

अपने परिपक्व विचारों से वे बच्चों को समझाने की पूरी कोशिश करते रहते और उधर दोनों शैतान लड़कियों की आँखों में इशारे चलते रहते | 

“अब चलती हूँ, मौसा जी से पढ़ ले ---| ”किन्नी नाटक करती फिर चुपके से कहती –

“जब मौसी, मौसा जी सो जाएँगे न मैं तुझे खिड़की से आवाज़ दूँगी –सो मत जाना, जल्दी से बाहर आ जाना | ”

“नहीं, आवाज़ मत देना, खिड़की के बाहर अपनी चप्पल धीरे से पटक देना | ”

सुम्मी उसे सुझाव देती और ---कभी पकड़े भी जाते और पापा होते तो दोनों को मुर्गा भी बनाते | पर दोनों ही बेशर्म ! क्या फ़र्क पड़ता था ? थोड़े टसुए बहा लिए फिर ढाक के तीन पात !पापा को यही तो भय था कि सुम्मी यहाँ रहकर उनकी आशाओं व अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं बन सकेगी !उनकी इच्छा थी उसे उच्च शिक्षा के लिए किसी बड़े विश्वविद्यालय में भेजने की !दिल्ली में पढ़ने से उसकी नींव अधिक पुख़्ता होने की संभावना थी |