अक्टूबर जंक्शन उपन्यास
दिव्य प्रकाश दुबे द्वारा लिखा गया चर्चित उंपन्यास “अक्टूबर जंक्शन”हिंद युग्म द्वारा प्रकाशित है। इस उपन्यास में मूल कहानी एक युवक और युवती की मित्रता की है । यह मित्रता नौ साल चलती है, जिसके बीच दोनों के जीवन में बहुत कुछ परिवर्तन आते हैँ। युवक सुदीप यादव बुक माय ट्रिप नाम की स्टार्टअप कंपनी में सीईओ है, वह अपनी कंपनी को टॉप 10 कंपनी के बीच में देखने की तमन्ना रखता है और इस हेतु योजना भी बनाता है। जबकि चित्रा पाठक एक लेखिका है, अभी वह नवोदित लेखिका हैं , उनकी कोई किताब प्रकाशित नहीं हुई है । उनकी इच्छा है कि इंडियन बुक हाउस राजीव चौक दिल्ली से उनकी किताब प्रकाशित हो और उसका बड़ा सा कार्यक्रम हो जैसा कि दूसरे लेखकों का होता है।
यह दोनों युवक और युवती संयोगवश बनारस एक पिज्जा की दुकान पर मिलते हैं।
"क्योंकि चित्रा और सुदीप को कहीं ना कहीं तो मिलना ही था, इसलिए दोनों अस्सी घाट पर मिलते हैं। वे दोनों कभी नहीं मिल होते अगर उस समय पिज्जेरिया कैफे में बहुत ज्यादा भीड़ नहीं होती। भीड़ इतनी ज्यादा कि पिज्जेरिया के वेटर ने इन दोनों को एक साथ बैठा दिया। हालांकि दोनों ही मी-टाइम चाहते थे ।दोनों ही अकेले बैठना चाहते थे। लेकिन इतनी भीड़ में अलग पूरा टेबल मिलना मुश्किल था । तो दोनों को साथ में बैठना पड़ा । दोनों खड़े नहीं रहना चाहते थे । यह कहानी शुरू ही ना हुई होती, अगर उस बेटे ने अपना बिजनेस बढ़ाने के चक्कर में इन दोनों को साथ नहीं बैठा दिया होता। इसका इस कहानी में वेटर का काम इतना ही था और वहीं इनका आर्डर लेने के बाद कभी वापिस नहीं आएगा। आपने कभी सोचा है जो तमाम कहानियां ऐसे ही वे लोग शुरू करते हैं जिनको पता ही नहीं होता कि कहानी में उनका कितना अहम हिस्स हैं . (पृष्ठ 18)
सुदीप की उम्र है करीब 25 साल । उसने कैजुअल काली टीशर्ट और नीली जींस पहनी हुई है । चित्रा की उम्र है 26 -27 साल। चकराने शॉर्ट कुर्ता और नीली जींस पहनी हुई है । ये दोनों कौन हैं क्या करते हैं धीरे-धीरे आपको पता चल जाएगा । अभी जानने लायक बस इतना है कि दोनों एक साथ कैसे की टेबल पर हैं। दोनों ने एक-एक पिज्जा और नींबू शहद पानी आर्डर किया है ।
“लोग बनारस क्यों आते हैं ?”
“क्यों का पता नहीं लेकिन यह पता है कि कब आते हैं।“
“ कब आते हैं ?“
“जब आगे कोई रास्ता नहीं दिखता।“
यह सवाल-जवाब सुदीप और चित्रा भी एक-दूसरे से कर सकते थे। लेकिन यह सवाल सुदीप और चित्रा के ठीक पीछे वाली टेबल पर बैठे किन्हीं दो लोगों ने किया। उन दोनों की आवाज इन दोनों को सुनाई पड़ी। इन दोनों लोगों ने उस दिन यह सवाल ना पूछा होता तो यह कहानी शुरू नहीं होती।
पीछे वाली टेबल पर बैठे उन दो अजनबी यों की बात सुनकर चित्रा ने कहा –“हाऊ ट्टू!”
“कहां अटक गई हैं आप! सॉरी शायद मुझे नहीं पूछना चाहिए।“ सुदीप ने कहा।
“ इट्स ओके, मैं अपनी किताब में एक जगह अटक गई हूं। कहानी आगे ही नहीं बढ़ रही। यहां बीएचयू में एक कविता का इबेंट था । वहां से इनविटेशन आया तो सोचा शायद बनारस में मोक्ष तो सबको मिलता है शायद मुझे कहानी मिल जाए। तुम बनारस क्यों आए हो?” चित्रा ने पीछे की टेबल पर बैठे लोगों की बात सुनने की नाकाम कोशिश करते हुए पूछा।
“ मेरे एक दोस्त की शादी थी वह बनारस के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। कई सालों से यहां आने का मन था।“
“ कैसा लगा बनारस ?”
“ जैसा सुना था वैसा तो नहीं लगा अभी तक।“
“ कितने दिन से आए हो?”
“ एक दिन हो गया। कल ही फ्रेंड की शादी थी।“
“ बनारस चढ़ने में टाइम लगता है।“ चित्रा ने कहा।
“ सॉरी, मैं समझा नहीं ।“
“ दो दिन के लिए आओगे तो बनारस कभी अच्छा नहीं लगेगा। बनारस आओ तो फुर्सत से आओ। बनारस आते बहुत लोग हैं लेकिन पहुंच कम लोग पाते हैं।“
“तुम्हारी यह आखिरी लाइन मेरे ऊपर से गुजर गईम लेकिन एक बात बताओ ज्यादा अंदर ऊपर से बनारस बदल थोदे जाएगा ?”
“ वेल, मैं बस इतना बोलूंगी,दो दिन से ज्यादा रुक कर देखो तब यह सवाल नहीं पूछोगे।“
इतने में पिज़्ज़ा आ गया। दोनो ने अपना अपना पिज़्ज़ा खाना शुरु कर दिया।“ (पृष्ठ १९)
और फिर दोनों के लिखने पढ़ने के विचार, आम आदमी की तरह रहने के विचार , आपस में ऐसे मैच करते हैं कि दोनों अपनी दोस्ती लंबी रखने का तय करके हर बरस 10 अक्टूबर के दिन परस्पर मिलने का तय करते हैं। हर 10 अक्टूबर को वे मिलते हैं । 10 अक्टूबर 2010 से आरंभ हुआ यह सिलसिला 10 अक्टूबर 2019 तक चलता है 2020 में भी चित्रा आई हुई है. चित्रा पाठक मिलने के लिए नहीं अपनी किताब प्रमोट करने के लिए आई है और उसी के साथ लेकर सुरभि पाराशर की भी एक ट्रायलॉजिक की तीसरी किताब में विमोचित होने जा रही है । उसकी वह घोषणा करती है, जबकि सुरभि पाराशर हमेशा चित्र पाठक की तुलना में व्यस्त चल रही है –
“ यूं तो हिंदुस्तान में किताब का लांच होना कोई इतनी बड़ी बात नहीं है, लेकिन आने वाली किताब चित्रा पाठक की है इसलिए दिल्ली में अच्छी-खासी सरगर्मी है। चित्रा की उम्र है करीब 37-38 साल। उसकी पिछली तीन किताबें कुल मिलाकर 50 लाख से ऊपर बिकी है । जहां एक तरफ ऐसा लगता है कि किताब बेचने के मामले में चेतन भगत और अमीश त्रिपाठी को कोई पीछा नहीं छोड़ पाएगा, वहीं चित्रा उनको लगातार टक्कर देने लगी है। हिंदुस्तान का कोई ऐसा लिटरेचर फेस्ट कोई ऐसा बड़ा कॉलेज नहीं है जहां चित्रा को नहीं बुलाया जाता। चित्रा को क्या पसंद है क्या नहीं , यह पूरी दुनिया को पता है । शहर की कोई भी पेज 3 पार्टी बिना चित्रा के पूरी नहीं होती। (पृष्ठ ११)
चित्र पाठक के साथ तो दुर्भाग्य है कि उसकी पहली किताब छपने में लंबा समय लगता है।
“असल में हिंदुस्तान में जब भी कोई किताब लिखना शुरू करते करने की सोचता है तो उसको यही लगता है कि जब उसकी किताब आएगी तो लोग लाइन लगाकर किताब खरीदेंगे । मिलेंगे जहां वह बोलने जाएगा वहां ऑटोग्राफ के लिए भीड़ लग जाएगी ।कमाल की बात है सोशल मीडिया और यूट्यूब नेटफ्लिक्स अमेजॉन प्राइम वीडियो थे डिस्ट्रक्शन के बाद भी पहले तो किताब पूरी कर लेना अपने आप में एक बड़ा काम है। उस पर से किताब आ जाना ही अपने आप में थोड़ी इतनी बड़ी बात हो जाती है कि किताब बिकने तक आदमी के अंदर इतना शक नहीं बसता की मेहनत कर पाए ।
चित्रा किताब के ना चलने की वजह से टूट गई थी। कितने साल से उसने सोच कर रखा था कि किताब आने के बाद से अपनी जिंदगी बदल जाएगी। किताब पता नहीं कब से उसके अंदर पल रही थी। किताब का मर जाना ऐसे ही था जैसे उसको कोई बच्चा छोड़कर चला गया हो।“ (पृष्ठ ११७)
चित्र पाठक और सुदीप यादव की दोस्ती की सबसे बड़ी खास बात यह है कि वह अच्छे दोस्त हैं, सच्चे दोस्त हैं, जेंडरलेस दोस्त हैं यानी कि आपस में एक बिस्तर पर सोने के बाद भी उनमें लड़का लड़की जैसा कुछ नहीं होता। (पृष्ठ ७७)
वे रात को सटकर सोते हैं, लेकिन सिर्फ एक बार उन दोनों के बीच शारीरिक संबंध बनते हैं 10 अक्टूबर 2014 को। (पृष्ठ ९३) अन्यथा दोनों के बीच दैहिक अनुपस्थिति रहती है । उपन्यास का आरंभ विचित्र है अजूबा है एक प्रचलित कहानी के फॉर्म में या प्रचलित उपन्यास के फॉर्म में या प्रचलित पद्धति से ना होकर अपनी अजीब सी पद्धति से है, जिसका उल्लेख स्वयं लेखक अपनी भूमिका में करता है।
इस किताब की अनेक विशेषताएं हैं सुदीप यादव चित्रा पाठक की किताब की स्क्रिप्ट की चिंता करता है और जब बहुत दिनों तक पुस्तक नहीं छप पाती तो उसकी स्क्रिप्ट को स्वयं जाचता है और कुछ बहुमूल्य सुझाव देता है। तो चित्र भी सुधि भी अभी कंपनी के समाचारों पर नजर रखती है ।परेशान है लेकिन चित्रा सुदीप से कोई आर्थिक मदद नहीं लेती। सुदीप एक बार गलती से मदद की बात भी करता है तो चित्रा बुरा मान जाती है। (पृष्ठ ९१)
दोनों के बीच इतने खुले संबंध है कि चित्रा का भी एक लड़का दोस्त बन गया है और इतना गहरा कर बिस्तर तक आ गया है। तो सुदीप की भी एक लड़की दोस्त बन गई है जो उसकी कंपनी में ही हैं सुनैना और जिससे वह शादी करना चाहता है । जिसे निसंकोच वह चित्रा को बता देता है ।
दिनांक 10- 10- 10 से शुरू हुई यह कहानी 10- 10- 20 तक चलती है। हर वर्ष 10 अक्टूबर को वे लोग आपस में मिलते हैं । हर बार जगह अलग होती है। बस 10 10 13 को नहीं मिलते, क्योंकि सुदीप अपनी कंपनी के शेयर की बातचीत करने जापान गया हुआ है । 10 10 10 से आरंभ हुई 10 अक्टूबर 18 ऐसी तारीख आती है, जब चित्रा की बुक किताब प्रकाशित हो जाती है और बहुत-बहुत सक्सेज होती है। उसे दो करोड एडवांस रौयल्टी भी दे दी जाती है। चित्रा एक बार पिता सुदीप यादव के पिता के घर पहुंचती है तो पिता उसका खूब सम्मान स्वागत करते हैं और उस पर स्नेह भी बताते हैं । सुदीप अनिच्छा से अपनी कंपनी के 15% शेयर बेचने का निर्णय लेता है।
पूरी कहानी में सुदीप जब इतनी कामयाबी नहीं पाता तो जापान की कंपनी को भी शेयर बेचता है । इस तरह शेयर बेचते-बेचते उसके पास से 15% शेय्रर बचते हैं तो एक साजिश के तहत उसको कंपनी से हटा दिया जाता है, उसकी जगह लेता है अभिजात जो उसका सहायक था वह सुनयना से शादी भी कर रहा है। सुदीप खुद के खिलाफ साजिश का मुकदमा एनसीएलटी (नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल) के समक्ष पेश करता है, लंबी पेशियों के बाद इस फैसले का इस कोर्ट का फैसला सुदीप के पक्ष में जाता है, जिसमें उसके 15% शेय्र्अर की वैल्यू का उसे भुगतान तुरंत किया जाता है, जो 310 करोड़ होता है और अचरज की बात यह है कि सुदीप इस राशि में से 40% कंपनी के संस्थापक सदस्यों में बांट्ता है, 40% एक स्वयंसेवी संगठन को देता है और खुद के पास केवल 20% रखता है। आखिर में गोरखपुर के पास का हादसा पाठक झेल नहीं पाता और ना कल्पना कर पाता है, न हीं यह हादसा कहानी के प्रचलित सिद्धांतों से मेल भी खाता है।
“चित्रा और सुदीप जैसे हम शापित लोग हैं। हमारा नाम पता पहचान शक्ल जिंदगी सब कुछ शाप है ।
मैं भी कहानी ऐसे खत्म नहीं करना चाहता लेकिन मेरे हाथ से यह दोनों बहुत पहले ही छूट गए थे। मैंने सुदीप और चित्रा की कहानी क्यों लिखी ,इसका कोई जवाब नहीं है सिवाय इसके कि सुदीप और चित्रा के बीच ऐसा रिश्ता था इसका नाम प्यार या दोस्ती रखा जा सकता हो । मैं इतना अच्छा नहीं लिखता कि इस रिश्ते को कोई नाम गड सकूं । या में कोई किताब या फिल्म का नाम बता सकूं कि चित्रा और सुधीर उस कहानी के किरदार जैसे थे। हम सबके अंदर का एक हिस्सा चित्र और सुदीप जैसा है ही, जो किसी के जैसा नहीं हैं। जो किसी के जैसा जीना नहीं चाहते थे (पृष्ठ 149)
इस उपन्यास में कहानी खोजना पड़ती है और कहानी के मूल मुद्दे भी टटोलना पड़ते हैं। हालांकि हम कह सकते हैं कि दिव्य प्रकाश दुबे हर बार नए तरीके से कहानी कहने का शिल्प लेकर आते हैं फिर भी जिस तरह इस उपन्यास का प्रचार किया गया, उस तरह से उपन्यास पढ़ने के बाद पूरी संतुष्टि पाठक को नहीं मिलती है। उपन्यास का शिल्प बहुत अलग प्रकार का है, केवल अक्टूबर की 10 तारीख का उल्लेख किया जाता है, उपन्यास की शुरुआत में अक्टूबर की तारीख नहीं लिखी हैं, शुरुआत में जब चित्रा और सुदीप की भेंट होती है , फिर 9 अक्टूबर की तारीख लिखी है जब वे गंगा मे नाव यात्रा करते हैं, फिर 10 अक्टूबर जब उनकी मित्रता पक्की हो जाती है, तब मिलते हैं। चित्रा गवाए मुराकामी की किताब “ कॉफ़ा ऑन शोर” खरीद कर लाती हैं और इस पर विद लव लव एंड लाइफ लाइट अपना ऑटोग्राफ स्टाइल में नाम लिखा और तारीख डाल दी, 10- 10- 10, अगले मिलने की तारीख चित्र अपने हाथ से लिखती है 10-10 -11…. इस तरह हर बार उसी किताब पर तारीख बदल दी जाती है और वो अगली साल की तारीख को मिलते हैं । बीच में कुछ समाचार के तौर पर लेखक खबरें बताता है।
उपन्यास में कम चरित्र हैं । मुख्य चरित्र चित्रा और सुदीप का है। चित्रा जिस प्रकाशक के यहां अपनी मेनुस्क्रिप्ट जमा करती है वहाँ की कर्मचारी रुचिका कहती है कि इस वर्ष अभी किताब नहीं छप पाएगी परंतु तुम घोस्टराइटिंग कर सकती हो तो करो। एक प्रसिद्ध लेखिका के लिए चित्रा पाठक घोस्ट राइटिंग करती है, जिसके बदले उसे खूब सारा पैसा मिलता है । टीवी पर भी वह घोस्ट राइटिंग के तहत लिखती है, पर उसका नाम कहीं जाता। अंत में वह जिस लेखिका के लिए घोस्ट राइटिंग कर रही होती है, उसी की कृपा से उसकी पहली किताब छ्पती है जो बहुत सक्सेज होती है । इस उपन्यास में दूसरा पात्र सुदीप है, सुजीत यादव एक अजीब प्रकार का चरित्र है जो है तो महत्वाकांक्षी और केवल ट्वेल्थ पास है फिर भी उसे शेयर मार्केट का व स्टार्टअप जैसी कंपनियों का खूब ज्ञान है और अपनी योजना से वह कंपनी को लगातार ऊंचा उठाता जाता है। वह चित्रा से बिना किसी अपेक्षा के मित्रता रखता है। भीतर ही भीतर कहीं प्यार भी करता है पर वे प्रकट नहीं करते और उस प्यार को देख के स्तर पर दोनों कभी नहीं लाते हैं । इस उपन्यास के अन्य चरित्र महत्वपूर्ण तो नहीं है, पर कहानी को आगे कहने के लिए अपना मैं समय-समय पर उपस्थित होते हैं। एक अज्ञात बाबा’ बार-बार इस कहानी में आता है’ चित्रा और सुदीप जब भी बनारस जाते हैं वह बाबा उनकी नाव में चढ़ जाता है। पहली बार है गाता है –
सब ठाठ धरा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा
यह धूम धड़ाका साथ लिए, क्यों फिरता है जंगल-जंगल
इक तिनका साथ न जावेगा,, मौकूफ जब अन्न और जल
घरबार अटारी चौपारी क्या खासा तनसुख है मसलन
क्या चिलमन, पर्दे, फर्श नये, क्य लाल पलंग और रंग महल
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा। “
बाबा सुनाते हुए बिल्कुल ऐसे मग्न हो गए थे जैसे भोले बाबा से सीधा कांटेक्ट हो गया हो। बाबा सुनाने के बाद जब चुप हुए तब चित्रा ने पूछा “बाबा जो आप सुना रहे थे वह कबीर दास का है न?”
बाबा गुस्सा होते हुए बोले, “नजीर अकबराबादी नाम का बड़ा शायर हुआ था बेटी, वोह भी कबीर था। तुझ में मुझ में इस लड़के में सबके अंदर कबीर है । “
इसके बाद बाबा बहुत देर तक कुछ ना कुछ गाते रहे लेकिन सुदीप को सब “ठाट पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा” वाली लाइन चिपक गई।“ (पृष्ठ ४५)
जाने क्यों सुदीप अपनी जेब के सारे पैसे उस बाबा को देता है बाबा आप मिट्टी जमीन में फेंक कर चला जाता है, कई बार बाबा इनको बनारस में मिलता है और कुछ अजीब सी बातें करता है। दिनांक 10 अक्टूबर 2011 को कैंची धाम उत्तराखंड में अभी दोनों मिलते हैं । यहां नीम करोली वाले बाबा के आश्रम की चर्चा है और सुदीप महसूस करता है कि यहां बाबा की तपस्या वाले आश्रम का वातावरण पर आसपास के लोगों पर एक सकारात्मक असर डालता है, यहां आकर पाठक को साधु बाबाओं के प्रति विश्वास भी बढ़ता है और आदर व स्नेह भी।
“ सुदीप ने आश्रम देखा।, वहां हाथ मुंह धोया। नीम करोली बाबा के बारे में जितनी ही कम जानकारी है उतनी ही ज्यादा उनके बारे में कहानियां हैं । कुछ लोग उनको हनुमान जी का भक्त मानते हैं, कुछ कहते हैं कि वह खुद हनुमान थे। ऐसी मान्यता है कि हिप्पी मूवमेंट के समय में नीम करोली बाबा विदेशियों में सबसे ज्यादा पॉपुलर थे। स्टीव जॉब्स अपनी भारत यात्रा के दौरान उनके आश्रम आया था। हालांकि स्टीव जॉब्स का बाबा से मिलना नहीं हो पाया था। बाबा ने 1973 में अपना शरीर छोड़ दिया था । (पृष्ठ ५७)
इस उपन्यास का एक चरित्र सुधीर के पिता है राम पिता की तरह प्रेमी हैं स्नेहिल हैं बेटे के प्रति स्नेह रखते हैं। एक च्रित्र रुचिका का है जो चित्रा को कुशल्ता से लगातार इस भ्रम में रखती है कि किताब इसलिए नहीं छप रही कि प्रकाशक का इंटरेस्ट नहीं है, जबकि रुचिका की नियुक्ति किताब नए लेखको को ही लेकर आने की है। क्योंकि घोस्ट राइटिंग में कुछ पैसा रुचिका को ही मिलता है इसलिए वह हमेशा घोस्ट राइटिंग ही करवाती रहती है। तो इस तरह अन्य चरित्र केवल सहायक चरित्र हैं। मूल चरित्र सुदीप और चित्रा ही हैं।
इस उपन्यास में किताब लेखन, पुरस्कार, किताबों की बिक्री, किताबों से होने वाली आमदनी की बड़ी विस्तृत चर्चाएं हैं। सुदीप और चित्रा देश-विदेश के तमाम लेखकों की किताबों के बारे में बात करते हैं और जैसा कि मैंने कहा गवाये मुरा कामी की किताब “काफ्फा ऑन द शोर” तो इसमें महत्वपूर्ण भूमिका इस तरह निभाती है कि अगली मीटिंग की डेट उसी पर लिखी जाती है। भारतीय बेस्टसेलर लेखक अमीश त्रिपाठी और चेतन भगत की भी चर्चा होती है। पहले अध्याय की शुरुआत में ही 10- 10- 20 को लेखक और पुस्तकों की चर्चा होती है (पृष्ठ 11) पुस्तक लिखना कितना कठिन है यह बताने के लिए एक जगह सुधीर यादव कहता है कि अमेजॉन नेटफ्लिक्स यूट्यूब वीडियो के व्यस्तता के बीच हुई कितना कितना कठिन होता है। सुदीप चित्रा की स्क्रिप्ट सुधारता है।
मुक्तेश्वर में 10-10-2011 को दोनों जने ठहरे हुए हैं वहां म्यूजिक एक म्यूजिक बैंड ठहरा हुआ है] उसमें भी ओपन माइक जैसा एक कार्यक्रम होता है, हर एक वक्ता अपना किस्सा कहता है, अपनी बात करता है। ( पृष्ठ 65)
इस उपन्यास में कारपोरेट जगत की चालें और दबाव खूब आए हैं। उपन्यास की भाषा हिंदी अंग्रेजी में मिश्रित है, रोमन लिपि में अनेक अंग्रेजी के वाक्य भी लिखे गए हैं । उपन्यास का काल आज का है, आज की कहानी है, इसमें नेटफ्लिक्स आता है, मोबाइल आता है, प्राइम वीडियो और दूसरी इस तरह की आज के भारतीय व्यक्ति की व्यस्तता की निरंतरता लगातार है। उपन्यास अमित से शुरू होता है और वही जाकर गोल घेरा लेता हुआ वहीं पहुंचता है ,अंत में भी एक प्रस्तावना लेखक लिखता है।
इस उपन्यास में खिलंदड़ी भाषा मे संवाद है । लेखक ने जो संवाद प्रयोग किए हैं, उसमें व्यंग की एक अंडरटोन है । इसलिए करुणा उतनी करुना जनक नहीं लगती,तो उतना दुखी नहीं लगता बल्कि हर हादसा को एक निरपेक्ष भाव से लेखक ने लिखा है। संवाद पाठक तक वह वैसा का वैसा पहुंचता है। सुदीप और चित्रा आपस में बेतकल्लुफ होकर बात करते हैं, जो इस खिलंदड़ी और व्यंग की अंडरटोन वाली भाषा का एक नमूना है।
“ सुदीप ने जैसे ही पहाड़ के लिए अलग ड्राइवर लिया, चित्रा ने कहा, “ड्राइवर की जरूरत नहीं है। मैं चला लूंगी।‘ सुदीप को थोड़ा ताज्जुब हुआ।
“ पक्का मार तो नहीं डालोगी?” सुदीप ने पूछा।
“ मैंने पहाड़ों में बहुत कार चलाई है। चिंता मत करो ।और मर भी जाओगे तो क्या ! तुम्हारे मरने की तो न्यूज़ बनेगी हमारा क्या है! किसी को पता भी नहीं चलेगा कि चित्रा पाठक स्वर्ग सिधार गई।“
सुदीप कार में बैठकर अपनी बेल्ट लगाते हुए बोला, “ मैंने नैनीताल के सबसे अच्छे होटल में 2 कमरे बुक कराने के लिए अपनी टीम को बोल दिया है।“
“ नैनीताल जा कौन रहा है”
“ तुमने बोला तो कि हम नैनीताल जा रहे हैं ।“
“हां बोला था लेकिन नैनीताल में इतनी भीड़ होती है कि मजा नहीं आएगा।“
चित्रा ने कार चलाना शुरु करते हुए एक दो झटके दे दिए थे।“ चिंता मत करो खो नही जाओगे कहीं तो ले ही जाऊंगी तुम्हें ।“
सुदीप अभी चित्रा के नए प्लान के साथ एडजस्ट कर ही रहा था कि चित्रा ने पूछा,” तो मिस्टर मिलेनियर! यह बताओ कि पूरे एक साल में दो सबसे बड़ी चीजें क्या हुई तुम्हारे साथ?”
“ पहली चीज एक गर्लफ्रेंड बन गई ।“
“क्या नाम है ।करती क्या है?”
“ सुनयना, ऑफिस में ही बिजनेस हेड है।“
“ गुड, दूसरी चीज?”
“ दूसरी चीज, मैंने अपने 15% शेयर कल बेच दिए।“
“ बेच दिए तुमने ?”
‘कोई और ऑप्शन नहीं था। खैर, यह सब छोड़ो अब तुम बताओ । “
“मेरी लाइफ में कुछ नया नहीं है यार, पिछले हफ्ते जाकर नोबेल का पहला ड्राफ़्ट पूरा हुआ है। लेकिन मुझे मजा नहीं आ रहा (पृष्ठ 59)
इसमें कई शब्द नए प्रयोग किए हैं एक है “गंजिंग करना “ जिसका आशय हजरतगंज में घूमना है, विपश्यना बौद्ध योग साधना में मौन रहकर 7 दिन की साधना को कहा जाता है, विपश्यना का शाब्दिक अर्थ है विशेष प्रकार से देखना विपश्यना कहलाता है। सुदीप एक बार विपश्यना में भी जाता है।
इस उपन्यास को नई पीढ़ी के उपन्यासों में रखा जा सकता है, जिनका ,उख्य उद्देश्य किसी पीड़ित जन कि बात करना नहीं, कोई वैचारिक सरोकार नहीं , द्वंद्व नहीं, न भाषा के हिन्दुस्तानी स्वरूप को बनाए रखना है , बल्कि यह उपन्यास पोपुलर राइटिंग कि परम्परा का उपन्यास है जो शायद पीछ;इ उपन्यासों कि तरह पच्चीसेक हजार तो बिकेगा ही