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बसस्टैंड पर खङे लोगों में दहशत फैल गयी थी । दिनदहाङे इतने सारे लोगों के बीच से एक लङकी उठा ली गयी । हे रामजी घोर कलयुग । राम राम कैसा जमाना आ गया है । लोग इतना डर गये थे कि कोई किसी की तरफ देखता तक न था । कोई किसी से बात भी न करता था । सब जङ हो गये थे । निंजा था ये । दो चार बंदे मारना उसका बायें हाथ का खेल था । साथ में भतीजा हो तो क्या कहने । जिधर निकल जाता , लोग पहले ही हाथ जोङ लेते । जिसपर मेहरबान हो गया , उसकी तो चाँदी ही चाँदी । लङकियाँ उस पर जान छिङकती थी । एक को बुलाए तो दस दौङी आँए । उसे लङकी उठाने की क्या जरूरत पङ गयी । इशारा कर देता , लङकी खुद गोद में आ बैठती । सबने मन ही मन सोचा पर बोला कोई नहीं । जिनकी बस आ गयी थी , वे चुपचाप बस में सवार हो गये । जिनकी बस आई न थी , वे वापिस घर की ओर लपक लिए । घर जाकर भी किसी ने किसी से कोई बात नहीं की । फिर भी शाम होते न होते हवा मे सुगबुगाहट शुरु हुई और एक कान से दूसरे कान होते होते पूरे शहर में खबर फैल गयी । जो सुनता , कानों को हाथ लगाता फिर मन ही मन ईश्वर का धन्यवाद करता कि उसकी बहु बेटियाँ सुरक्षित हैं ।
काफी देर ऐसे ही सन्नाटा छाया रहा । फिर अचानक कोई बोला – “ ऐसे कैसे कोई किसी को उठा के ले जा सकता है । पहले से ही दोनों में कोई साँठगाँठ होगी । तबी तो ऐन वक्त पर कार आई और लङकी को बीच में बिठाकर ले गयी “ ।
दूसरा बोला –“ कह तो तू सही रहा है । मैं वहीं था जब वह कार में बैठी । निरंजन ने हाथ पकङकर बैठाया तो चुपचाप बैठ गयी । न रोई । न चीखी । न चिल्लाई “ ।
“ अगर चीखती तो तुम बचा लेते क्या “ ? – पास से ही किसी ने कहा , “ देखा नहीं । कार जाने के घंटा डेढ घंटा बाद तक कोई अपनी जगह से हिला नहीं “।
“ जान सबको प्यारी है भई । हाथ में बंदूक हो तो सामने किसी ने मरने आना है “ ।
“ लङकी शहर की तो नहीं लगती “ ।
“ न भई , शहर की नहीं है । मलोट से आने वाली बस से आ रही है कुछ महीनों से । कालेज में पढती है शायद “ ।
“ बेहद खूबसूरत है । अप्सरा है कोई “ ।
“ यार ये लङकियाँ खूबसूरत नहीं होनी चाहिए । अच्छों अच्छों का ईमान डोल जाता है खूबसूरत लङकी को देख कर “ ।
“ अब इसमें लङकी बेचारी क्या करे । रंग रूप तो ईश्वर देता है । किसी को इतना काला और बेढंगा बना देता है कि देखने को मन न करे । और किसी पर रूप का खजाना खोल देता है कि मन नजर हटाना नहीं चाहता । दिल करता है , देखे जाओ बस देखे जाओ “ ।
यही रूप लङकियों का दुश्मन हो जाता है । गुंडे मवाली उनकी जान के दुश्मन बन जाते हैं ।
“ पर ये निरंजन और गुरनैब तो लङकियों की तरफ झांकते तक नहीं । मैं इन्हें बरसों से जानता हूँ । सच है कि थोङे शौकीन तबीयत के हैं पर शोहदे नहीं हैं “ ।
लोग धीरे धीरे खुसरफुसर करते इस घटना की चर्चा कर रहे थे । अपने अपने तरीके से स्थिति का आकलन कर रहे थे ।
शाम होते न होते खबर बीङ तलाब भी पहुँच गयी । कौन सी लङकी थी , इस बारे में अभी कुछ पक्का नहीं था पर यह बात ईंट की तरह पक्की थी कि बङे संधुओं के बेटों ने एक लङकी बसस्टैंड से उठा ली थी । मंगर ने भी सुना पर उसका मन किरण के लिए कुछ बुरा सोचना ही न चाहता था । पाँच बजे की बस से लौटती है किरण । कभी कभी साढे पाँच भी बज जाते हैं । आती ही होनी है । अभी आ जाएगी । पहले पाँच बजे फिर साढे पाँच । देखते देखते से छ हो गये तो उसे घबराहट होने लगी ।
गाँव के लोग चार बजे से ही उसके ठीहे के चारों ओर चक्कर काट रहे थे पर उसे जूतों से उलझता देख आगे निकल जाते । अब उसे ठीहा बंद करते देखा तो दौङकर उसके पास आ जुटे ।
“ मंगर , किरण आ गयी क्या शहर से “ ?
“ अभी घर जाकर देखता हूँ भाई वैसे तो पाँच बजे तक आ जाती है । अब तो साढे छ होने को हैं “ ।
मंगर घर पहुँचा तो किरण अभी आई न थी । उसका माथा ठनका । बाहर बैठा बीरा लाठी को तेल पिला रहा था ।
तू इसे लेकर कहाँ जा रहा है । रख इसे ।
बापू किरण ... किरम नी आई अब तलक । बीरा फिस पङा ।
“ देख तू घर पर अपनी माँ के पास रह । ज्यादा गरमी से बनती बात भी बिगङ जाती है । मैं गाँव के दो चार रसूख वाले आदमी लेकर किरण को ढूंढने शहर जाता हूँ । तेरी जरुरत हुई तो तुझे बुलवा लेंगे । समझा “ ।
आनन फानन में सात आठ लोग शहर जाने के लिए तैयार होकर आ गये । हरनाम ने अपनी ट्रैक्टर ट्राली निकाली और वे सब उसमें सवार होकर शहर के लिए चल पङे । सबसे पहले ये लोग कालेज गये । कालेज बंद हो चुका था । सारा स्टाफ घर जा चुका था । सिर्फ दो गार्ड पहरे पर थे । दोनों शाम पाँच बजे से डयूटी पर थे । सुबह कालेज में क्या हुआ । कौन आया कौन गया , उन्हें कैसे पता होता । पर वह भला आदमी था । इन लोगों को परेशान देखा तो उसने प्रोफेसर का नम्बर मिला दिया – लो जी बात कर लो । बायचांस ये प्रोफेसर साहब किरण की कक्षा को पढाते थे । उन्होंने हैरान होकर कहा – “ आज तो किरण कालेज आई ही नहीं । पिछले सात महीने में यह पहली बार है , जब उसने छुट्टी मारी है तो वापिस घर जाने न जाने का तो सवाल ही नहीं होता । आप लोग किसी सहेली के घर या रिश्तेदारी में देखो । वहीं होगी । और कहाँ जाएगी “ ।
फोन कट गया । तो वे सब परेशान हो गये ।
किरण को इस कालेज में आये सात महीने हो गये थे पर उसने किसी सहेली का जिक्र कभी किया ही नहीं और कोई रिश्तेदारी भी नहीं है । ये लङकी आज पढने क्यों नहीं आई और गयी तो गयी कहाँ ।
चलो बसस्टैंड जाकर पूछें ।
और वे सब बसस्टैंड चल पङे । तब तक रात के आठ बजने को हो गये थे । बसस्टैंड पर इक्का दुक्का सवारियाँ ही खङी थी । अंतिम बस आते ही यह सब भी चली जाती । सरपंच ने वहाँ के दुकानदारों से पूछताछ करने की बहुत कोशिश की पर सबने जैसे एक ही उत्तर रट रखा था – मैं तो दुकान के अंदर ग्राहकों से घिरा खङा था । मुझे नहीं पता कि यहाँ क्या हुआ था । मैंने तो कुछ न देखा न सुना । रोज इतने लोग बसो से सफर करते हैं , हम कैसे हिसाब रख सकते हैं , कौन आया कौन नहीं ।
अब क्या हो । किसी को कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था ।
बाकी कहानी अगली कङी में ...