टेढी पगडंडियाँ
12
गाङी तो चली गयी पर किरण उसी तरह बौखलायी सी सुधबुध खोए वहीं खङी रही । बसंत ने आकर पुकारा तो जैसे वह होश में आयी । बसंत उससे मुखातिब था – बीबी जी हाथ मुँह धो लीजिए और कमरे में चलकर आराम करिये । वह जैसे नींद से जागी और सीधी कमरे में भागी । अंदर पहुँचकर उसने पूरे जोर से दरवाजा बंदकर अंदर से सिटकनी लगा ली और दीवार के सहारे बैठ घुटनों में सिर दिये रोने लगी । पता नहीं कितनी देर उसी पोजीशन में बैठी रोती रही । एक घंटा , दो घंटे या छ घंटे । जब रो रो थक गयी तो उसने खुद ही सिर उठाकर कमरे का जायजा लिया । यह 12 * 18 का बङा सा कमरा था जिसके बीचोबीच सुंदर सा डबलबैड लगा था जिस पर धुली साफ सुथरी नीले रंग की चादर बिछी थी । दो तकिए रखे थे । पायताने ऊपर ओढने के लिए चादर पङी थी । सामने की दीवार के साथ चार कुर्सियाँ लगी थी जिनके आगे आयताकार मेज बिछी थी । मेज पर जग और गिलास रखे हुए थे । एक कोने में फ्रिज था । सामने की मेज पर कलर्ड टीवी पङा था यानी सुविधा का सारा सामान मौजूद था इस कमरे में पर वे दोनों जन गये कहाँ । अभी तक आये नहीं । इस बीच वह लङका कई बार दरवाजा खटकाकर जा चुका था पर डरके मारे किरण की दरवाजा खोलने की हिम्मत ही न हुई थी । प्यास से उसका गला सूख रहा था । उसने उठकर फ्रिज से पानी की बोतल निकाली और एक साँस में सारी बोतल खाली कर गयी । पानी सीधा उसके कलेजे में जाकर लगा तो उसे ध्यान आया कि उसने तो सुबह से कुछ खाया ही नहीं ।
वह वहीं दीवार के सहारे बैठ कर अपने हालात के बारे में सोचने लगी । क्या तो वह बनने चली थी और अब किस मुसीबत में फँस गयी थी । न जाने ये कितने लोग हैं । अगर सबने मिलकर उसे घेर लिया तो वह अकेली क्या कर सकेगी । उसे मारकर यहीं कहीं गाङ दिया गया तो उसके माँ बापू को तो खबर भी नहीं होगी । माँ ने आज मूँग साबुत बनाए होंगे । बीरा थाली में डालकर रोटी खाने बैठा होगा पर रोटी उससे खाई नहीं गयी होगी । वह उसका इंतजार कर रहा होगा । वह क्या जाने कि उसकी बहन यहाँ किस मुसीबत में फँसी है । तरह तरह की सोच में डूबी वह कभी रो लेती , कभी सोचने लग जाती । घुटनों में सिर दिये वह उसी दीवार के साथ लगी बैठी रही ।
कुंडी खटकी । बाहर बसंत था । चाय देने के लिये पुकार रहा था । किरण का गुस्सा फट पङा – मुझे नहीं चाहिए तुम लोगों की चाय । जाओ यहाँ से ।
बाहर थोङी देर सन्नाटा रहा । फिर रुआसे बसंत की आवाज आई – फिर बीबीजी दूध गरम करके ले आऊँ । आपने सुबह से कुछ बी नहीं खाया । थोङा दूध ही ले लीजिए । उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना वह चला गया । देर तक उसकी पदचाप सूने माहौल में गूंजती रही फिर चुप्पी छा गयी । किरण की रीढ की हड्डी में सिहरन हुई । अब क्या ? थोङी देर बाद बसंत ने फिर पुकारा – बीबीजी दूध गरम कर लाया हूँ । पकङ लीजिए । आप नहीं लेंगी तो छोटा सरदार मुझसे नाराज हो जाएगा । मुझे डाँट पङेगी । ले लीजीए न ।
वह झपट कर उठी । दरवाजा खोलकर दूध का गिलास पकङा और दरवाजा फिर से बंद कर लिया । दूध पीकर उसके मन और पेट दोनों थोङा शांत हो गये । रात होने वाली थी । डर के मारे उसका बुरा हाल था । अभी वे दोनों आ गये तो ?
मैं दरवाजा ही नहीं खोलूँगी ।- उसने अपने मन को तसल्ली दी ।
अगले ही पल वह पसीने पसीने हो गयी । अगर उन्होंने दरवाजा तोङ दिया तो ? भाग कर वह कहाँ जा सकती है ।
सोचते सोचते कब उसकी आँख लग गयी , उसे पता ही नहीं चला । सुबह घेर में हुई हलचल से उसकी आँख खुली तो उसने अपनेआप को वहीं फर्श पर लेटा पाया । वही उकङू बैठे बैठे उसे नींद आ गयी होगी । दरवाजा उसी तरह बंद था जैसे वह बंद करके सोई थी । उसने धीरे से दरवाजा खोला – बाहर देसराज दूध की बाल्टी लेकर कहीं जा रहा था । उसे बाहर निकलते देख दोहरा हो गया । सत श्री अकाल बीबीजी ।
बाथरूम ?
उधर है बीबीजी । उसने एक तरफ इशारा किया और बाल्टी लेकर चला गया ।
किरण जल्दी से वाशरुम मे गयी और दो मिनट में ही लौट आयी । नल से पानी लेकर उसने छींटे मार मारकर मुँह धोया । तबतक बसंत एक कपङे में लपेटकर तीन चार परोंठे और लोटे में चाय ले आया था । लो जी बङी हवेली से आपके लिए चाय और परोंठे ले आया हूँ । खा लीजिए ।
बङी हवेली ? उसने सवालिया नजरों से बसंत को देखा ।
वो जी बङी हवेली , जहाँ सारे लोग रहते हैं । बङे सरदार साहब , सरदारनी जी , छोटे सरदार साहब , गुरनैब भा जी , छोटी सरदारनियाँ , बाकी सारे लोग ।
उसने झपटकर परौंठे और चाय पकङ ली और लेकर फिर से कमरे में आ गयी । इन सरदारों से मुकाबला करने के लिए शरीर में जान तो होनी चाहिए न । वह जमीन पर ही बैठ गयी और छोटे छोटे टुकङों में परौंठा खाने लगी । परौंठा इतना भी स्वाद हो सकता है , उसने कभी सोचा नहीं था । खालिस देसी घी में तल कर बनाया गया था परौंठा । कहाँ तो वह आधा खाने का सोच कर खाने बैठी थी , अब तीन परौंठे खा चुकी थी । चाय का घूंट भर कर उसने गिलास मेज पर रख दिया और दोनों सरदारों का इंतजार करने लगी ।
शाम के तीन बज रहे होंगे कि गुरनैब ने कमरे का दरवाजा खटखटाया – ओ चाची , तेरे लिए चाचे ने दो सूट भेजे हैं । ये साबुन शैंपू और तौलिया है । जल्दी में जैसे मिले वैसे ही ले आये हैं । बाद में और मंगवा लेना । नहा लो सुबह से नहाई नहीं हो । फिर पदचाप दूर जाती सुनाई दी । उफ इस भयंकर गरमी में वह कल से बिन नहाये बैठी थी । पसीने में लथपथ । गंधाती हुई । ऊपर से उसने पंखा भी नहीं चलाया । इतनी गरमी वह सह कैसे गयी । उसने कान धर कर आहट सुनने की कोशिश की । जब उसे पक्का भरोसा हो गया कि अब बाहर कोई नहीं है तो वह बाहर निकली । बाहर दरवाजे के साथ दो लिफाफे पङे थे । उसने लिफाफे उठाये और नहाने चल पङी ।
बाकी कहानी अगली कङी में ...