प्रश्न:ईश्वर कहां है!अगर है तो दिखाई क्यों नहीं देता?
इस समस्त ब्रह्माण्ड में हीं ईश्वरीय चेतना प्रवाहित हो रही है।इसके कण कण में ईश्वर व्याप्त है। बिजली से बल्ब पंखा कुलर हीटर जलते चलते आप देख सकते हैं बिजली को देखा है आपने!अगर नहीं देखा है तो फिर क्या बिजली का अस्तित्व नहीं है?बिजली की तरह इस सम्पूर्ण जगत में जो चेतना का प्रवाह है वही ईश्वर है।आप ईश्वर को मानेंगे तो भी वो चेतना आपके अंदर है और नहीं मानेंगे तो भी वो चेतना आपके साथ साथ पूरे ब्रह्मांड में प्रवाहित होती रहेगी।अब बात आती है मंत्र जप तप और देवी देवताओं की तो हमने परंपरा रूप में परमात्मा के विभिन्न गुणों को जो समाज और जीव जगत केलिए कल्याणकारी है, विभिन्न देवी देवताओं के रूप में मूर्त रूप देकर आराधना करते हैं जैसे ज्ञान और बुद्धि की देवी सरस्वती और गणेश,बल और धैर्य बजरंगबली,शौर्य और शीलता दुर्गा आदि।अब प्रश्न आता है कि परमात्मा हमारे अंदर हीं हैं फिर जप तप और मंत्र क्यों? देखिए जीव जन्तु जप तप मंत्र का उपयोग नहीं करते फिर भी उनका अस्तित्व है और रहेगा क्योंकि ईश्वर नहीं कहता कि तुम मेरा जप तप मंत्र के द्वारा अराधना करो। लेकिन मनुष्य करते हैं क्यों?जानवर तो नहीं करते मस्त हैं अपनी दुनिया में। मनुष्य करते हैं क्योंकि वे विवेकशील प्राणी है और इसी विवेकशीलता का परिणाम सांइस भी है और धर्म भी। विवेकशील होने के कारण मनुष्य के अन्दर अनगिनत आशाएं आकांक्षाएं और प्रश्न है जोकि जीव जंतुओं में नहीं है उनकी आशा आकांक्षाएं सीमित है इसलिए ना उन्हें विज्ञान से मतलब है और ना धर्म से। मनुष्य जो कि विवेकशील है उसकी आशा आकांक्षाएं और प्रश्न अंतहीन है इनसे जूझने केलिए और अपनी आशा और आकांक्षाओं को पूरा करने केलिए उसे अधिकाधिक उर्जा और चेतना की आवश्यकता है जिसे वह जप तप साधना के द्वारा स्वयं के ईश्वरीय चेतना को उद्दीप्त करता है।
अब नास्तिकों का प्रश्न ये है कि बिजली का प्रवाह न हो लेकिन छूने से झटका लगता है जिससे ये भान हो जाता है कि बिजली का प्रवाह हो रहा है लेकिन ईश्वरीय चेतना के प्रवाह का पता लगाने का क्या उपाय है?
सही बात है कि बिजली का प्रवाह देखने से नहीं छूने से पता चलेगा क्योंकि हर किसी चीज के होने का प्रमाण सिर्फ उसका देखाई देना हीं नहीं है। हां तो बिजली का प्रवाह छूने से पता चलेगा वो भी नंगे हाथों से और पैर पर में भी कोई बिचली के कुचालक जैसे प्लास्टिक,सूखी लकड़ी आदि का आवरण नहीं होना चाहिए।उसी तरह ईश्वर की उर्जा और चेतना महसूस करने के लिए क्रोध,लोभ,स्वार्थ,अहंकार,द्वेष आदि का आवरण हटाकर स्वयं से जुड़ों,अपने अंदर के ईश्वरीय चेतना को उद्दीप्त करो।एक बार जुड़े गये तो धीरे धीरे समस्त ब्रह्माण्ड से आपका जुडाव हो जाएगा क्योंकि वही चेतना सब जगह व्याप्त है तब जाकर आप ईश्वर के अस्तित्व को समझ पाएंगे। किसी चीज को नकार देना आसान है लेकिन किसी बात को स्वीकार करने और जानने केलिए कठोर तप की जरूरत होती है। कोई भी वैज्ञानिक नया आविष्कार यूं हीं नहीं कर लेता तपाना पड़ता है स्वयं को,ना खाने की सुध रहती है ना सोने की पागल हो जाते हैं वो उस आविष्कार के पीछे। लेकिन जब वो आविष्कार हो जाता है लोग बिना मेहनत के कुछ पैसे चुकाकर उसके मजे ले लेते हैं। उसी तरह ईश्वरीय सत्ता को महसूस करने केलिए भी तपना होता है और जो उसे महसूस कर लेता है फिर उसे कुछ नहीं चाहिए।उसके लिए फिर विज्ञान इतिहास भूगोल किसी का औचित्य नहीं रह जाता।वो सब पा लेता है।
फिर प्रश्न उठता है कि जब ईश्वरीय चेतना सब जगह व्याप्त है फिर धार्मिक स्थान इतने अधिक पाप के अड्डे क्यों बने हुए हैं?
धर्म की आड़ में हीं क्यों हर चीज की आड़ में पाप है।चिराग के नीचे भी अंधेरा मिलेगा। विद्यालय, राजनीति,स्वास्थ्य विभाग, पुलिस,प्रशासन सब पाप और भ्रष्टाचार के अड़डे बने हुए हैं क्यों?हर जगह यही सब हो रहा है।लोग पकड़े जाते हैं,सजा पाते हैं और ये चलता रहता है क्यों?क्योंकि इंसान अपने आपको बहुत बुद्धिमान मान बैठा है।सब में सब कुछ पा लेने की होड़ मची हुई है।जानवर ऐसा क्यों नहीं कर रहे हैं क्योंकि उन्हें बुद्धि नहीं मिली इसलिए उनकी इच्छा आकांक्षाएं सीमित हो गई। वहीं इंसान की इच्छाएं अनियंत्रित बवंडर की तरह हो गई हैं क्योंकि उसने स्वयं को छोड़ दिया है वह स्वयं को नियंत्रित करने का प्रयास नहीं करता।उसने तप और साधना को बेकार मान लिया है।जप तप साधना सांसारिक वस्तुएं पाने केलिए नहीं हैं बल्कि स्वयं की अनियंत्रित इच्छाओं को नियंत्रित करने का माध्यम हैं ताकि स्वयं को स्वार्थ के मार्ग से निकाल कर जीव जगत के उत्थान में लगाया जा सके लेकिन अब इसे लोगों ने उपहास का विषय वस्तु बना दिया है। धर्म क्या है? साधारण लोग समझते हैं कि पूजन पद्धति धर्म है।पूजन पद्धति धर्म नहीं है।धर्म की परिभाषा रामायण में भी दी गई है वैसे मूल रूप से वेदों में दी गई है।'धार्येतु इति धर्मः' ऐसा वेद में कहा गया है जिसका अर्थ है जो धारण करने योग्य है वो हीं धर्म है।जैसे परोपकार,दया, सहिष्णुता,सदाचार,लोक कल्याण,सत्य आदि। रामायण में भी इन्हीं सद्गुणों को राम ने धर्म कहा है।वैसे राम को शिव और शक्ति का उपासक बताया गया है रामायण में लेकिन राम ने इसको धर्म नहीं कहा है।राम ने इन्हीं ईश्वरीय गुणों और कर्त्तव्यों को धर्म कहा। एकबार आप रामायण पढ़ें और अगर पढ़ नहीं सकते तो सीरियल हीं देख लें।अब लोग अगर सच्चे धर्म की पालना नहीं करते तो इसमें धर्म का तो दोष नहीं है।अब लोग धर्म का पालन नहीं कर रहे सिर्फ पूजा पद्धति का पालन कर रहे हैं वो भी जैसे तैसे बिना उसका मर्म जाने। बिना धर्म को जाने पूजा पद्धति का पालन बेकार है।धर्म का पालन कठिन है क्योंकि इसमें घाटा है इसलिए लोग इस तरफ से मुंह मोड़ लेते हैं और सिर्फ पूजा पद्धति का पालन करते हैं।
क्रमशः.......
चर्चा आगे जारी रहेगी।चर्चा में भाग लेने केलिए आप सभी सादर आमंत्रित हैं।🙏