Vikramaditya's justice in English Spiritual Stories by Krishna Kant Srivastava books and stories PDF | विक्रमादित्य का न्याय

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विक्रमादित्य का न्याय


एक बार राजा विक्रमादित्य की सभा में एक व्यापारी ने प्रवेश किया। राजा ने उसे देखा तो देखते ही उनके मन में विचार आया कि क्यों न इस व्यापारी का सब कुछ छीन लिया जाए। व्यापारी के जाने के बाद राजा ने सोचा – मैं प्रजा को हमेशा न्याय देता हूं। आज मेरे मन में यह अन्याय पूर्ण विचार क्यों आ गया कि व्यापारी की संपत्ति छीन ली जाये और उसे संपत्ति विहीन कर दिया जाए?
विक्रमादित्य ने अपने मंत्री से सवाल किया। मंत्री ने कहा, “इस प्रश्न का सही जवाब मैं कुछ दिन बाद दे पाउंगा, राजा ने मंत्री की बात सहर्ष स्वीकार कर ली। मंत्री विलक्षण बुद्धि का था मंत्री इधर-उधर के सोच-विचार में समय व्यर्थ न कर सीधा व्यापारी से मिलने पहुँचा। व्यापारी से दोस्ती करके उसने व्यापारी से पूछा, “तुम्हारे दुखी व चिंतित होने का क्या कारण है? तुम तो भारी मुनाफे वाला चंदन का व्यापार करते हो।”
व्यापारी बोला, “तुम्हारी नगरी सहित मैं कई नगरों में चंदन की गाडियां भरे फिर रहा हूं, पर किसी भी नगर में इस बार चन्दन की बिक्री नहीं हुई। हमारा बहुत सारा धन इस व्यापार में फंस गया है। अब नुकसान से बच पाने का कोई उपाय नजर नहीं आ रहा है।
व्यापारी की बातें सुन मंत्री ने पूछा, “क्या तुम्हें लगता है कि अब इस घाटे से उभरने का कोई रास्ता नहीं बचा है?”
व्यापारी हंस कर कहने लगा हां एक रास्ता है अगर राजा विक्रमादित्य की मृत्यु हो जाये तो उनके दाह-संस्कार के लिए सारा चंदन बिक सकता है।
मंत्री को राजा विक्रमादित्य के प्रश्न का उत्तर देने की सामग्री मिल चुकी थी। अगले दिन मंत्री ने व्यापारी को आदेश दिया कि, तुम प्रतिदिन राजा का भोजन पकाने के लिए 50 किलो चंदन दे दिया करो और नगद पैसे उसी समय ले लिया करो। व्यापारी मंत्री के आदेश को सुनकर बड़ा खुश हुआ। वह अब मन ही मन राजा की लंबी उम्र होने की कामना करने लगा।
कुछ दिनों बाद राज-सभा चल रही थी। वह व्यापारी दोबारा राजा को वहां दिखाई दे गया। तो राजा के मन में विचार आने लगा कि यह कितना आकर्षक व्यक्ति है इसे क्यों ना पुरस्कार दिया जाये?
राजा ने मंत्री को बुलाया और पूछा, “मंत्रीवर, क्या तुम्हें याद है कि जब यह व्यापारी पहली बार राज-सभा में आया था तब मैंने तुमसे कुछ प्रश्न पूछा था, उसका उत्तर तुमने अभी तक नहीं दिया। आज जब मैंने इसे देखा तो मेरे मन का भाव बदल गया। पता नहीं आज मुझे इस व्यापारी पर क्रोध नहीं आ रहा है और इसे पुरस्कृत करने का मन हो रहा है।
मंत्री को प्रश्न का उत्तर देने के लिए जैसे इसी क्षण की प्रतीक्षा थी। उसने राजा विक्रमादित्य को समझाया, “महाराज, दोनों ही प्रश्नों का उत्तर आज दे रहा हूं। जब यह व्यापारी पहले आया था तब अपने मुनाफे के लिए वह आपकी मृत्यु के बारे में सोच रहा था। लेकिन अब यह आपके भोजन के लिए 50 किलो चंदन की लकड़ियाँ रोज देता है। इसलिए अब ये आपके लम्बे जीवन की कामना करता है। यही कारण है कि पहले आप इसे दण्डित करना चाहते थे और अब पुरस्कृत करना चाहते हैं।”
सार - अपनी जैसी भावना होती है वैसा ही प्रतिबिंब दूसरे के मन पर पड़ने लगता है। हम जैसा दूसरों के लिए मन में भाव रखते हैं वैसा ही भाव दूसरों के मन में हमारे प्रति हो जाता है। अतः हमेशा औरों के प्रति सकारात्मक भाव रखें।

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