गांधीजी ने देशवासियों को सत्य, अहिंसा तथा प्रेम का पाठ पढ़ाया। लेकिन हमलोग कुछ ज्यादा ही देशभक्त निकल गए। अतः गांधीजी के बताए हुए रास्तों पर नहीं चलकर ‘गाँधीछाप’ के रास्ते पर चलने लगे। आज जिधर भी नजरें दौडाता हूँ तो यही एक बात देखता हूँ कि मनुष्य गांधीछाप के पीछे दौड़ रहा है। इसमें वे भी शामिल हैं जिन्होंने ‘त्याग’ को अपने जीवन का मूलमंत्र बनाया है। गाँधीछाप के चमक से कोई भी अछूता नहीं रहा है – श्रमिक, अधिकारी, राजनेता, चिकित्सक, साधु-संत, कसाई आदि सभी इसके दीवाने हैं। गांधीछाप की प्राप्ति के लिए सभी इस कदर अभिनय करते हैं कि वास्तविक अभिनेता भी शरमा जाए। इसकी प्राप्ति के लिए क्या नहीं करना पड़ता है। पिता-पुत्र, चाचा-भतीजे, पति-पत्नी आदि में अनबन भी इसी को लेकर होते आया है। गांधीछाप की प्राप्ति के लिए भ्रष्टाचार, व्यभिचार, अनाचार, कदाचार आदि का सहारा लेना पड़ता है। शिष्टाचार, सदाचार, शौचाचार आदि पीछे रह जाता है। जिसे इसकी प्राप्ति हो जाती है वह कितना बड़ा भी भ्रष्ट क्यों न हो – लेकिन उसकी तारीफ में जो कसीदे पढ़े जाते हैं, उससे साबित होता है कि मनुष्य किस तरह से इसका गुलाम हो गया है। उस व्यक्ति को ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और समर्पित बताया जाता है। फूलमालाओं से सजाया जाता है। जबकि वह शख्स वास्तविक में निकम्मा, भ्रष्ट तथा रिश्वतखोरी करनेवाला होता है। जो शख्स गांधीछाप के पीछे नहीं जाता है वह बुद्धू की श्रेणी में आ जाता है। समाज में उसकी इज्जत नहीं के बराबर होती है। किसी के रहमोकरम पर रहना होता है। जिसे इसकी प्राप्ति हो जाती है वह झूठ बोलना भी सीख लेता है। वह चाहकर भी सत्य नहीं बोल पाता है। वह फिर परंपरा के अनुसार भेड़ चाल चलने लगता है। गाँधीछाप का प्रभाव इतना पड़ता है कि एक व्यक्ति जो आज किसी को बुरा बताता है वही व्यक्ति कल उसे अच्छा बताने लगता है। झूठी तारीफ़ तथा चापलूसी करने में सबसे आगे रहते हैं। गांधीछाप से भरपूर व्यक्ति को भी इस संसार से विदा होना पड़ता है। वे चाहकर भी इस मृत्युलोक में चिरंजीवी बनकर नहीं रह सकते। यहाँ तक कि महाभारत काल में इच्छामृत्यु के वरदान को लिए हुए देवव्रत भीष्म को भी मृत्यु को वरन करना ही पड़ा था। अतः इससे भरपूर व्यक्ति के देहावसान होने पर अभिनन्दन पत्र भी शानदार तरीके से पढ़ा जाता है। मृतात्मा के बारे में केवल असत्य और लफ्फाजी भरा महिमा गान ही गाया जाता है। हो सकता है कि यह सब सुनकर यमराज के लिपिक चित्रगुप्तजी रोने लगते होंगे। प्रशस्तिगान से जीवात्मा भी हैरान हो जाता होगा। विरोध मरने के बाद समाप्त हो जाता है। यह तो इसी मृत्युलोक में देखने को मिलता है। मृतात्मा के बारे में अपूरणीय क्षति बतानेवाले की कमी नहीं रहती है। किसी भी इंसान की मौत को अपूरणीय क्षति बताना यह सिद्ध करता है कि प्रकृति और परमेश्वर दोनों जगह गांधीछाप का महत्व है। इसके बिना सृष्टि निर्माण असंभव है। हो सकता है कि ब्रह्माजी ने सृष्टि-निर्माण की जिम्मेदारी गांधीछाप के ऊपर ही डाल दी हो। कुछ अपवाद हो सकते हैं। लेकिन आज के समय में ऐसे अपवाद खोजने से भी नहीं मिलते हैं। कितने सुधीजन ‘त्याग-त्याग’ कहते हुए प्राण त्याग देते हैं। प्राण त्यागते हुए भी उनकी इच्छा गांधीछाप की ओलावृष्टि होने की होती है। गांधीछाप को प्राप्त करने के लिए सारी मर्यादा, लज्जा और मूल्य त्यागने में हमें गर्व तथा गौरव का अनुभव होता है। अब तो जमाना बीत गया। पहले इंसान की कद्र उसके कर्म से होती थी। अब तो गांधीछाप की चमक-दमक और चापलूसी ने सारे पैमाने ध्वस्त कर दिए हैं। सरकारी दफ्तरों में टंगी फोटो में गाँधी जी आज भी जिन्दा है। जिसके नीचे बैठ कर अधिकारी "गांधीछाप" के सहयोग से काम करते हैं।