91. फिजूलखर्ची का दुष्परिणाम
हमारे देष के प्रसिद्ध धार्मिक एवं पर्यटन स्थल वाराणसी षहर में एक संभ्रांत, सुषिक्षित एवं संपन्न परिवार में एक बालक ने जन्म लिया था। वह जब वयस्क हुआ तब उसका रहन सहन राजा महाराजाओं के समान खर्चीला था। अपनी प्रारंभिक षिक्षा पूर्ण करने के उपरांत उसने हिंदी में लेखन प्रारंभ किया और वह एक प्रखर लेखक एवं कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गया। उसने हिंदी साहित्य के क्षेत्र में अपने रचनात्मक सृजन से बहुत प्रसिद्धि प्राप्त की थी। वह एक विद्वान व्यक्ति के रूप में जाने जाते थे।
वे अपनी काव्य साधना एवं पारिवारिक विरासत से प्राप्त धन से वैभव एवं विलासिता का जीवन जिया करते थे। उनके अपने खर्च उनकी आय से कही अधिक होते जा रहे थे और वे धीरे धीरे आर्थिक कंगाली की ओर बढ़ रहे थे। उन्हें इस बात की कोई चिंता नही थी। उनके हितैषियों द्वारा आगाह करने पर भी कि जितनी चादर हो उतना ही पैर पसारना चाहिए उन्हेांने इसे नजरअंदाज करते हुए अपनी मौज मस्ती का जीवन ही व्यतीत करते रहे। यदि इस प्रकार धन का व्यर्थ दुरूपयोग हो तो बडे बडे राजा महाराजाओं का भी खजाना खाली हो जाता है। उनकी इस गलती का परिणाम यह हुआ कि उन्हें आर्थिक तंगी के कारण अपने रिष्तेदारों एवं मित्रों से कर्ज लेकर अपना जीवन यापन करना पड़ा और इसी मानसिक तनाव में वे चैतीस वर्ष की अल्पायु में ही परलोक सिधार गये।
उन्होंने अपनी मृत्यु से पहले अपने मित्र को पत्र लिखकर अपनी व्यथा एवं मन की भावनाओं को व्यक्त करते हुए लिखा था कि किसी भी व्यक्ति के पास असीम धन और असीमित साधन भी हो जाए तो उसको उसका उपयोग बहुत सोच समझकर सावधानीपूर्वक अपने भविष्य की दूर दृष्टि रखते हुए खर्च करना चाहिए। मुझे यदि यह समझ पहले आ गई होती और मैं सचेत हो गया होता तो ऐसी दुर्दषा एवं मानसिक वेदना मुझे कभी नही होती। यह व्यक्तित्व कोई और नही हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक भारतेंदु बाबू हरिषचंद्र थे।
92. सच्चा जीवन
षहर के एक बहुत संपन्न एवं उद्योगपति परिवार से संबंध रखने वाली एक महिला अपने खर्चीले स्वभाव एवं रईसी ठाट बाट से रहने के लिए प्रसिद्ध थी। वह उद्योगपति हरिकिषन की धर्मपत्नी रागिनी थी जो कि प्रायः प्रति सप्ताह किसी ना किसी बहाने से अपने निवास स्थान पर षानदार दावतें दिया करती थी, जिसके कारण वह नगर की सबसे खर्चीली महिला के नाम से प्रसिद्ध थी। उसके इस स्वभाव के कारण उसकी झूठी प्रषंसा करने वालों का एक वर्ग हमेषा उसकी झूठी तारीफों के पुल बाँधता रहता था। उसका पति बहुत परिश्रमी, अपने कार्य के प्रति समर्पित एवं एक सफल व्यवसायी था। उसने अपना कारोबार अपने कठिन परिश्रम, ईमानदारी एवं नैतिकता से स्थापित किया था और वह अपनी पत्नी के बेलगाम खर्चों से बहुत परेषान था।
एक दिन अकस्मात् ही श्रीमती रागिनी के स्वभाव में जबरदस्त परिवर्तन आ गया अब उन्होंने महँगी-महँगी पार्टियाॅं करना, महँगे कपडों पर खर्च करना और अनचाही बातों पर धन का अपव्यय करना बंद कर दिया। वे समाज सेवा के माध्यम से गरीबों एवं बेसहारा व्यक्तियों की मदद करने में अपना समय व्यतीत करने लगी। एक दिन उनसे उनके परिचितो ने उनके स्वभाव में आये इस अकल्पनीय परिवर्तन का कारण पूछा। उन्होंने बताया कि एक दिन वे अपने पति के साथ एक पार्टी में गइ्र्र थी। वहाँ पर उनका परिचय उनके पति ने आई टी उद्योग के देष में एक विषिष्ट स्थान रखने वाले उद्योगपति से कराया। रागिनी उनकी सादगी, आाचार विचार एवं उनके चिंतन से बहुत प्रभावित हुयी, उसे जानकर आष्चर्य हुआ कि वे सज्जन अपने घर का सभी काम खुद करते हैं एवं नौकरों के उपर निर्भर नही रहते है। वे चाहे तो देष की महँगी से महँगी कारें खरीद सकते है परंतु आज भी वे अपनी आवष्यकता के अनरूप छोटी कार का ही उपयोग करते है। वे कभी विदेषी वस्तुओं को ना खुद खरीदते है अैार नही दूसरों को प्रोत्साहित करते हेै। उन्हें अपने देष के उत्पादनों की गुणवत्ता पर पूरा विष्वास है। उनके सादे कपडों और
उच्च विचारों में रागिनी के मन में एक परिवर्तन ला दिया और उसने धन का अपव्यय करना बंद कर दिया। वे सज्जन जिनसे रागिनी प्रभावित हुई वे इंफोसिस कंपनी के चेयरमेन श्री नारायण मूर्ति थे। उसने अपने दूसरे मित्रों को भी सलाह दी कि व्यक्ति अपने अच्छे कर्मो से समाज में मान सम्मान पाकर याद रखा जाता है। जीवन में झूठे आडंबर से अपने को ही नुकसान हेाता है, इसलिये हमें अपना जीवन समाज की सेवा में समर्पित करना चाहिए।
93. करूणामयी व्यक्तित्व
एक दिन कडी धूप में एक व्यक्ति कराहता हुआ रास्ते में लेटा हुआ था। उसके फटे पुराने कपडे, उसकी गरीबी की स्थिति को दर्षा रहे थे। वह बोलने में असमर्थ था और कातर निगाहों से मदद की आषा में आसपास से आने जाने वालों को देख रहा था। लोग उसे देखकर उससे बचते हुए दूर से निकले जा रहे थे। किसी के मन में भी उसके प्रति दयालुता या मदद का भाव नही था। एक व्यक्ति के मन में उसे देखकर करूणा जागृत हुई और वह उसके पास पहुँच कर उसकी तकलीफ के विषय में उससे पूछने लगा। वह बीमार व्यक्ति कुछ भी बोल कर बता पाने में असमर्थ था। उसने इषारे से किसी अस्पताल पहुँचाने की प्रार्थना की। वह राहगीर अपना फर्ज समझकर किसी तरह उसे उठाकर रिक्षे में बैठाकर आसपास गिरे हुये उसके सामान को समेटकर उसे निकट के सरकारी अस्पताल में ले गया। अस्पताल में चिकित्सकों ने उसे तुरंत भर्ती कर लिया और बताया कि इसे हैजा हुआ है और यदि इसका तुरंत इलाज नही किया गया तो इसका जीवन खतरे में आ सकता है। वह राहगीर दिनभर अस्पताल में रहकर उसकी मदद के लिए अपना हाथ बँटाता रहा और जब उसकी समुचित चिकित्सा प्रारंभ हो गई, तब वह उसे छोडकर अपने घर की ओर चला गया। वह राहगीर जिसने अपना फर्ज समझकर उस बीमार की सहायता की वह व्यक्ति ईष्वरचंद्र विद्यासागर थे।
94. हृदय परिवर्तन
बनारस हिंदू विष्वविद्यालय के निर्माण का महामना मदन मोहन मालवीय जी ने प्रण लिया था। उन्होंने अपनी व्यक्तिगत सामथ्र्य के अनुसार धन दान कर दिया था परंतु यह एक बहुत बडा कार्य था, जिसके लिये बहुत धन की आवष्यकता थी। मालवीय जी ने इस पावन कार्य के लिए धन एकत्रित करने का अभियान प्रारंभ किया। उनके निवेदन पर सभी वर्ग के लोगों द्वारा अपने सामथ्र्य के अनुसार दान देना प्रांरभ कर दिया गया। श्री मालवीय जी पर सबका विष्वास था कि उनके द्वारा दिये गये धन का एक पैसा भी दुरूपयोग नही होगा। श्री मालवीय जी अपने एक संकल्प की पूर्ति के लिये षहर षहर घूम रहे थे। एक दिन एक गाँव में रात हो जाने के कारण उन्हें रूकना पडा उनके सभी साथीगण दान में प्राप्त धन की गिनती कर रहे थे। उसी समय एक चोर ने अंधेरे का फायदा उठाकर धन की एक थैली चुरा ली और वहाँ से भागने लगा। दूसरी दिषा से आ रहे मालवीय जी ने चोर को भागते हुए देखा तो उन्होेंने उसे पकड लिया और उससे पूछा कि तुम इतने घबराये हुये और इतनी तेजी से क्यों भाग रहे हो ? क्या बात है ? उसी समय पीछे से भागते हुए आ रहे लोगों ने चोर चोर कहकर मालवीय जी के पास आकर उस चोर की पिटाई षुरू कर दी। मालवीय जी ने किसी तरह से उस चोर को भीड से बचाया और उसे विनम्रतापूर्वक समझाया कि तुम्हें ऐसा कार्य नही करना चाहिए। चोरी करना बहुत खराब कार्य है। एक अच्छे कार्य के लिए इकट्ठे किये जा रहे धन को चुराना नैतिकता, हमारी सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों के विपरीत है। तुम एक अच्छे हट्टे कट्टे नौजवान व्यक्ति हो फिर ऐसा घृणित कार्य क्यों कर रहे हो ? तुम्हें मेहनत से धन कमाना चाहिए ना कि लूटपाट करके। मेहनत की कमाई से तुम समाज में मान सम्मान के साथ जी सकते हो।
मालवीय जी की इन बातों का उस चोर पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और उसकी आँखों से अश्रुधारा निकल पडी। वह मालवीय जी के पैरों में गिरकर उनसे क्षमा माँगने लगा। अब उसका हृदय परिवर्तन हो चुका था उसने चोरी किये हुये धन के साथ साथ पूर्व में जितना भी धन चुराया था वह सब कुछ लाकर मालवीय जी को सौंप दिया और संकल्प लिया कि अब वह चोरी की घृणित प्रवृत्ति छोड़कर ईमानदारी और मेहनत से धनोपार्जन करेगा।
95. साहसिक निर्णय
हमारे देष में प्रतिभावान साहसी और निर्भीक व्यक्तित्व के लोगों की कोई कमी नही है। इसी संदर्भ में श्री जे.आर.डी. टाटा भी अपना विषिष्ट स्थान रखते है। वे एक सफल उद्योगपति के साथ साथ नये नये चमत्कारिक प्रयोग करने के लिए भी जाने जाते थे। इसी संदर्भ में एक दिन उन्होंने मन में दृढ निष्चय कर लिया कि बंबई से कराची तक भारत में निर्मित पूर्णतः स्वदेषी विमान को उड़ाकर ले जाया जाए। उनकी इस भावना की काफी तारीफ की गई परंतु ऐसा करना खतरे से खाली नही था। हमारा देष उस समय तक इतना विकसित नही हुआ था कि विमान के सभी कलपुर्जों के निर्माण पर विष्वसनीयता बनी रहे। जब जे.आर.डी. टाटा को इस बात से अवगत कराया गया तो उन्होंने तुरंत यह निर्णय लेकर सभी को आष्चर्यचकित कर दिया कि वे इस विमान का स्वयं ही अकेले उडाकर ना केवल कराची जायेंगे बल्कि वहाँ से इसे वापिस लेकर गृहनगर भी लौंटेंगे।
निष्चित दिन और निष्चित समय पर जे.आर.डी. टाटा पायलट की ड्रेस में हैट लगाकर आये और सीधे अपने विमान में चढ गये। उन्होंने इंजिन चालू किया हैट हिलाकर सबका अभिवादन किया और हवाई जहाज को उडा लिया। उस समय वहाँ पर उपस्थित सभी जन टाटा जी की हिम्मत और दृढ व्यक्तित्व की प्रषंसा तो कर रहे थे परंतु साथ ही साथ कोई दुर्घटना ना हो इसकी प्रार्थना भी प्रभु से की जा रही थी। श्री जे.आर.डी. टाटा सफलतापूर्वक विमान को कराची तक ले गये और वहाँ उतारकर थोडी देर रूकने के बाद उसे उडाकर वापिस ले आये। उनकी यह ऐतिहासिक यात्रा टाटा की विमान सेवा का यह आधारभूत स्तंभ था एवं टाटा समूह की विमान सेवा उसके राष्ट्रीयकरण होने तक सफलतापूर्वक जनता की सेवा में अपना योगदान देती रही। आज भी भारतीय विमान सेवा का आधारस्तंभ जे.आर.डी. टाटा को माना जाता है।
96. हेन सेंग की व्यथा
यह घटना उस समय की है जब हमारा देष सोने की चिड़िया कहलाता था। नालंदा विष्वविद्यालय में एक चीनी पर्यटक हेन सेंग भी अध्ययन करने एवं भारतीय संस्कृति से अवगत होने आया था। वह जब वापिस चीन चला गया तो उसने अपनी आत्मकथा में उसके जीवन की सबसे उल्लेखनीय एवं लोमहर्षक घटना का विवरण लिखा और साथ में उसके व्यक्तिगत मत के अनुसार यह अनुकरणीय थी या महज एक उत्तेजना की परिणिति थी।
एक दिन वह भारत के पुराने धर्म ग्रंथों, प्राचीन पंाडुलिपियों एवं कीमती वस्तुओं को लेकर एक नौका के माध्यम से दूसरी तरफ जाने के लिए बैठ गया। उस समय तक मौसम एक दम साफ था, नौका के बीच मार्ग पहुँचने पर तेज हवाएँ चालू हो गयी और तूफान आने का भी अंदेषा होने लगा था। नाविक के द्वारा नौका को वापिस ले जाने या नदी के दूसरे पार तट पर ले जाने, दोनो में समान खतरा था। नाविक ने परिस्थितियों को देखते हुए नौका का भार कम करने के लिए सभी सवारियों को अपना सामान नदी में फेंक कर नौका का भार कम करने का निवेदन किया ताकि वे किसी तरह से सुरक्षित तट पर पहुँच सकें।
हेने सेंग बोला कि मुझे मृत्यु का भय नही है मैं भार कम करने के लिए नदी में उतरकर तैर कर बचने को प्रयास करूँगा परंतु तुम मेरे साथ इस बहुमूल्य आध्यात्मिक धरोहर को सरंक्षित रखना। उसकी यह बात नाव में बैठे हुए नांलदा विष्वविद्यालय के पाँच छात्र सुन रहे थे। उन्होंने आपस में कुछ वार्तालाप किया और तुरंत ही वे सभी नदी में कूद गये। उनका यह कृत्य एक प्रकार से आत्महत्या करने के समान था और नाविक भी इस अद्भुत दृष्य को देखकर अपनी आँखों से आंसू नही रोक सका। हेने सेंग नही समझ पा रहा था कि इस घटना को वह क्या कहे ?
97. ज्ञान की खोज
एक विख्यात संत जी नर्मदा नदी के किनारे अपनी कुटिया में रहते थे। उनके एक षिष्य ने एक दिन अचानक ही उनसे पूछा कि स्वामी जी जीवन क्या है ? संत जी ने कहा कि इसका उत्तर तो तुम्हें ही खोजना पडेगा। मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ, आओ मेरे साथ चलो।
अब वे दोनो नदी किनारे उस पार एक महात्मा जी जिनकी बहुत प्रसिद्धि थी, उनके पास पहुँचे। वे उस समय साधना में बैठे हुये थे। उनकी जब साधना समाप्त हुयी तब संत जी ने उनसे पूछा कि जीवन क्या है ? यह जानने के लिए हम दोनो आपके पास आये है। वे संत जी यह सुनकर भड़क गये और बोले कि यह मेरी प्रार्थना का समय है, आप दोनों बेवजह मेरा समय नष्ट मत कीजिए। यह सुनकर वे दोनो वहाँ से चले गये और नदी किनारे खेती कर रहे एक व्यक्ति के पास पहुँचे। उससे से भी उन्होंने वही प्रष्न किया तो वह मुस्कुराते हुए बोला खेत जोतना, फसल उगाना और उसका विक्रय कर अपना जीवन यापन करना, मैं तो बस इतना ही समझता हूँ कि यही मेरा जीवन है।
अब वहाँ से वे नदी किनारे चलते चलते पास ही स्थित एक ष्मषान गृह में पहुँच जाते है। यहाँ पर दोनो देखते है कि एक चिता जल रही है। वे उनके परिजनो को सांत्वना देकर वही प्रष्न पूछते है ? उनके परिवारजन कहते है कि जीवन और मृत्यु एक षाष्वत सत्य है। मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन में कामनाओं की पूर्ति के लिए जीता है, यही उसका जीवन है। यह वार्तालाप वहाँ पर उपस्थित एक धनवान व्यक्ति भी सुन रहा था। वह उन दोनो के पास पहुँचकर बोला जीवन में सुख, षांति और संपन्नता से रहना ही जीवन है, चाहे इसके लिए हमें ऋण भी क्यों ना लेना पडें। किसी महापुरूष के द्वारा बताए गए इस सिद्धांत को मै जीवन मानता हूँ।
अब संत जी अपने षिष्य के साथ वापिस अपनी कुटिया आ जाते है और उससे कहते है कि मैंने तुम्हे इतने लोगों से मिलाकर उनके विचारों को तुम्हारे सामने प्रस्तुत करके, तुम्हें जीवन के विभिन्न दृष्टिकोण से अवगत कराया है। अब तुम स्वयं अपने जीवन के विषय में चिंतन मनन करके अपने जीवन की दिषा स्वयं निर्धारित करो।
98. अनुकरणीय आदर्ष
आज के नेतागण अपनी आय विलासिता पूर्ण जीवन जीने में ही खर्च करते है। ऐसे व्यक्तित्व बिरले ही मिलते है जो कि राजनीति में मितव्ययिता के सिद्धांत पर चलते हुए जनता के धन का दुरूपयोग नह़ी करते है। ऐसा ही एक उदाहरण हमारे देष के राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद जी का रहा है। यह वृतांत आज से कई वर्ष पूर्व का है, एक बार उनका जूता खराब हो गया था, उसे बदलने के लिए उनका सचिव बाजार से उन्नीस रूपये का जूता खरीद कर ले आया यह देखकर उन्होंने कहा जब ग्यारह रूपये के जूते से काम चल सकता है तो फिर यह उन्नीस रूपये का जूता लाने की क्या आवष्यकता थी। इसे आप लौटा दीजिए और मुझे वही सस्ता जूता मेरे लिए ला दीजिए। उनके निजी सचिव, जूता बदलने के लिए अपनी कार की ओर बढ़े तो राष्ट्रपति जी ने उनसे कहा कि पहले तो महँगा जूता लेकर आये अब उसको बदलने के लिए ना जाने कितने रूपये का पेट्रोल खर्च करोगे। यदि हम जनता के धन का इस प्रकार दुरूपयोग करेंगे तो यह नैतिकता के खिलाफ होगा। हमें यह देखना चाहिए कि जनता का पैसा व्यर्थ बर्बाद ना हो।
स्वर्गीय राजेंद्र प्रसाद जी का जीवन सादगी की एक मिसाल थी। वे कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष थे एवं किसी कार्य हेतु पटना जा रहे थे। रास्ते में इलाहाबाद स्टेषन पर उस समय ट्रेन 1 घंटे से भी अधिक समय तक रूकती थी। उन्हें उनके मित्र लीडर अखबार के संपादक श्री चिंतामणि जी से मिलकर अपना एक इंटरव्यू भी देना था। उनका कार्यालय स्टेषन के नजदीक ही था इसलिए वे ट्रेन से उतरकर पैदल ही उस ओर चल पडे और रास्ते में हल्की बूंदा बांदी के कारण वहाँ तक पहुँचते पहुँचते उनके कपडे भीग गये थे। उन्होने लीडर अखबार के कार्यालय पहुँचकर अपना परिचय पत्र चपरासी को दिया जिसने उसे ले जाकर चिंतामणि जी की टेबल पर रख दिया और बाहर आकर कह दिया कि साहब अभी व्यस्त है थोडा समय लगेगा। कुछ समय पष्चात जब चिंतामणि जी ने कार्ड देखा तो वे हड़बड़ाकर तुरंत कुर्सी से उठे और लगभग दौडते हुए बाहर आये और चपरासी से पूछा कि वे सज्जन कहाँ है तो चपरासी ने उन्हें इषारे से बताया कि वे बरामदे की ओर गये है। चिंतामणि जी यह सुनकर तुरंत उस दौडे और यह देखकर हतप्रभ रह गये कि राजेंद्र प्रसाद जी अपने गीले कपडों को सुखा रहे थे। वे चिंतामणि जी का देखकर हंसते हुए बोले कि तुम व्यस्त थे इसलिए मैंने सोचा कि समय का सदुपयोग कर लिया जाए। यह भी तो एक जरूरी काम था। सादगी का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता हैं। हम आज के नेताओं की तुलना इन पुराने नेताओं से करे तो जमीन आसमान का फर्क नजर आयेगा।
स्वर्गीय राजेंद्र प्रसाद जी को हरे भरे पर्वतीय श्रृंखलाओं, बाग बगीचों एवं प्राकृतिक सौंदर्य का बहुत षौक था। वे प्रतिवर्ष एक माह के लिए मध्य प्रदेष के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल पचमढ़ी जिसे सतपुडा की रानी के नाम से भी जाना जाता है, आते थे। उन्हेांने इस रमणीय स्थल को पर्यटन के रूप में विकसित करने का सुझाव देकर इसे एक बहुत संुदर स्वरूप प्रदान कर पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बना दिया था। पचमढी में आज भी एक पर्वत श्रृंखला को राजेंद्र गिरि के नाम से जाना जाता है।
99. चाणक्य
भारत के सुप्रसिद्ध दार्षनिक, राजनीतिज्ञ एवं कूटनीतिज्ञ आचार्य चाणक्य के कार्यकाल में एक विदेषी विद्वान उनसे भेंट करने के लिए आया। उसने आचार्य चाणक्य के व्यक्तित्व की बहुत प्रषंसा सुनी थी और इससे अभिभूत होकर वह उनसे मिलना चाहता था। गंगा तट पर स्नान कर रहे एक व्यक्ति से उसने चाणक्य के निवास स्थान का पता पूछा उसने इषारा करके गंगा जी के किनारे घास फूस से बनी हुयी एक साधारण सी कुटी की ओर इषारा करके बताया कि आचार्य जी वहाँ पर निवास करते है। वह आष्चर्यचकित होकर मन में विचार करता हुआ उस कुटिया के पास पहुँच गया। उसने देखा कि वही व्यक्ति गंगा जी में स्नान करके एक घड़े में जल भरकर ला रहा था। उसने उस व्यक्ति से पूछा कि मैं आचार्य चाणक्य से भेंट करना चाहता हूँ। क्या मेरी उनसे मुलाकात हो सकती है ? यह सुनकर वह व्यक्ति बोला कि आपका इस नगर में स्वागत हैं। मैं ही चाणक्य हूँ। उसे कुटिया के अंदर ससम्मान बुलाते हुये पूछा कि आप बताए मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ?
वह आष्चर्य से मन में सोचने लगा कि क्या यही व्यक्ति चाणक्य है, यह तो दिखने में अत्यंत साधारण दिख रहा है। इसके पास कोई नौकर चाकर भी नह़ी है। सिर्फ एक खाट, मोटे मोटे ग्रंथों का संग्र्रह और लिखने के लिए मेज है। तभी आचार्य चाणक्य ने उससे कहा कि आप पिछले तीन दिनों से हमारे नगर के विभिन्न स्थानों पर भ्रमण कर चुके है। आप हमारे नगर में किस उद्देष्य से आये हुए हैं और मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ ? यह सुनकर वह व्यक्ति आष्चर्यचकित रह गया और उसने आचार्य से पूछा कि आपको यह कैसे मालूम हुआ कि मैं पिछले तीन दिनो से इस नगर में हूँ ? आचार्य चाणक्य ने मुस्कुराते हुए कहा कि हमारी गुप्तचर प्रणाली इतनी मजबूत है कि जैसे ही आपने हमारे नगर की सीमा में प्रवेष किया उसके कुछ देर पष्चात ही मुझे इसकी सूचना मिल गयी थी, किंतु आप के पास कोई षस्त्र नह़ी था और आपकी गतिविधियाँ भी संदिग्ध नह़ी थी इसलिये आपको नगर के विभिन्न स्थानों पर विचरण करने से रोका नही गया। यह सुनते ही वह आष्चर्यचकित रह गया और आचार्य चाणक्य से काफी देर तक चर्चा करता रहा। वह उनसे चर्चा करके इतना अधिक प्रभावित हो गया कि अपने देष लौटकर वहाँ के लोगों को उसने चाणक्य की महानता, त्याग, संयम और सादगी पूर्ण जीवनषैली के विषय में बताया और कुछ माह के बाद वापिस भारत आकर आचार्य चाणक्य का षिष्यत्व ग्रहण कर लिया।
100. जनसेवा
मुंबई महानगर के एक बहुत संपन्न परिवार में एक बालक का जन्म हुआ था जिसका नाम रमेष रखा गया था। उसमें बचपन से ही दया एवं सेवा भावना की प्रवृत्ति थी। वह किसी का भी दुख दर्द देखकर द्रवित हो जाता था एवं यथासंभव उसकी सहायता करने के लिए तत्पर रहता था। वह जब वयस्क हो गया तो अपने पारिवारिक व्यवसाय कपड़े की दुकान का कामकाज देखने लगा। एक दिन एक गरीब व्यक्ति जिसके तन पर फटे हुए कपड़े थे, को देखकर उसकी दरिद्रता पर रमेष को बहुत मानसिक वेदना हुई और उसने अपनी दुकान से कुछ कपडे उसे दे दिये। इस बात का पता जब उसके पिताजी को हुआ तो वे बहुत नाराज होकर उससे बोले कि अगर ऐसी दया तू करता रहेगा तो एक दिन हमारा दिवाला निकल जाएगा।
उसके पिता की यह बातें उसे अच्छी नही लगी। उसने पिताजी से कहा कि जिस व्यक्ति के पास उसकी आवष्यकताओं से अधिक धन है, उसका सदुपयोग गरीबों एवं असहाय लोगों की सेवा में खर्च करना चाहिए, यही हमारी भगवान के प्रति सच्ची पूजा है। इस प्रकार के सत्कर्मों से ही मोक्ष का मार्ग प्रषस्त होता है। उसके पिताजी ने उसके यह उपदेष सुनकर उसे बहुत डाँटा जिससे उसे बहुत बुरा लगा और वह अपना घर छोडकर एक निर्जन स्थान पर एक छोटी सी कुटिया में रहने लगा। अब वह प्रतिदिन गरीबों, असहायों की मदद करने में अपना समय देने लगा और अपना षानो षौकत का जीवन छोडकर “सादा जीवन उच्च विचार “के सिद्धांत को जीवन मंे अपनाने लगा।
उसकी समाज सेवा की भावना से प्रभावित होकर अनेक व्यक्ति जिनके मन में भी दया एवं करूणा थी, उसके पास आने लगे। इस प्रकार अनेक लोगों के योगदान से रमेष के पास इतनी रकम उपलब्ध हो गई कि वह प्रतिदिन भूखे गरीब लोगों को निःषुल्क भोजन उपलब्ध कराने लगा। उसने कुछ दिनों के बाद एक ट्रस्ट बनाकर इस सेवा कार्य को दूर दराज के इलाकों तक विस्तारित कर दिया। इन सेवा कार्यों के कारण रमेष को लोग संत के रूप देखकर उसका सम्मान करने लगे।