From index finger to ring finger - part 4 in Hindi Motivational Stories by Rajesh Maheshwari books and stories PDF | तर्ज़नी से अनामिका तक - भाग ४

Featured Books
Categories
Share

तर्ज़नी से अनामिका तक - भाग ४

२१. जहाँ लक्ष्मी का निवास वहाँ सरस्वती का वास

रामकिषोर नगर के प्रसिद्ध उद्योगपति थे। वे अपनी पत्नी एवं तीन पुत्रों के साथ सुख, समृद्धि एवं वैभव का जीवन व्यतीत कर रहे थे। एक दिन उन्हें सपने में लक्ष्मी जी ने दर्षन देकर कहा कि मैं बहुत समय से तुम्हारे यहाँ विराजमान हूँ, अब मेरा समय यहाँ से पूरा हो चुका है और मैं दो तीन दिन में प्रस्थान करने वाली हूँ। तुम और तुम्हारे परिवार ने मेरी बहुत सेवा सुश्रुषा की है इसलिये मैं चाहती हूँ कि तुम अपनी इच्छानुसार कोई भी एक वरदान मेरे प्रस्थान के पूर्व मुझसे माँग लो तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी। रामकिषोर हडबडाकर नींद से उठ गया और वह फिर सो ना सका। लक्ष्मी जी के चले जाने की बात से वह इतना घबरा गया कि दूसरे दिन सुबह होते ही उसने परिवार के सभी सदस्यों को इस बात से अवगत कराया। उसके तीनों बेटे बोले कि यह महज एक सपना था आपने कैसे इस पर विष्वास कर लिया ? हमारा परिवार धर्म पूर्वक कर्म कर रहा है। लक्ष्मी जी को हम बहुत आदर और सम्मान देते है, हमें छेाडकर वे क्यों चली जायेंगी ? रामकिषोर की पत्नी बहुत होषियार और समझदार थी वह बोली कि लक्ष्मी जी के जाने का पूर्वाभास होना ये उनकी हमारे ऊपर बहुत बडी कृपा है। उन्हेांने एक वर माँगने का विकल्प हमें दिया है। आप उनसे विनम्रतापूर्वक घर में सभी सदस्यों के बीच प्रेम, सद्भाव एवं षांति आजीवन बनी रहे ऐसा आर्षीवाद हमें देती जाए। रामकिषोर ने अपनी पत्नी के द्वारा दिये गये सुझाव पर लक्ष्मी जी से यह वरदान माँग लिया। यह सुनकर लक्ष्मी जी बोली कि तुम्हारी पत्नी बहुत चतुर एवं धार्मिक है उसने ऐसा वरदान माँगने का निवेदन करके मुझे तुम्हारे घर में ही रहने के लिए विवष कर दिया है। यह सर्वमान्य सत्य है कि मेरा निवास वहाँ पर ही रहता है जहाँ पर आपस में प्रेम और सद्भाव होता है। मै अब यही निवास करूँगी । लक्ष्मी जी के निवास के संकल्प के कारण सरस्वती जी को वहाँ पर आना पडा क्योंकि जहाँ लक्ष्मी जी का निवास होता है, वहाँ पर सरस्वती जी का भी वास रहता है।

२२. प्रभु भक्ति

एक उद्योगपति हरिनारायण अपने नाम के अनुरूप ही सच्चे मन व समर्पण से ईश्वर की पूजा करते थे। उनका व्यापार भी ठीक ठाक चल रहा था तभी अचानक ही उन्हें व्यापार में बहुत अच्छा मुनाफा होने लगा और इसे वे प्रभु की कृपा ही मानकर उनके मन में एक पहाडी पर एक मंदिर बनाने की इच्छा जागृत हो गई। वह पहाडी उन्ही के मालिकाना हक में थी। उन्होंने इस पर भव्य मंदिर बनवाना प्रारंभ कर दिया।

उस पहाडी पर मंदिर के रास्ते में ही एक गरीब परिवार रहता था। जब मंदिर का निर्माण कार्य शुरू हुआ तो लोगों ने उसके निर्माण के लिए अपनी ओर से भी सहयोग देना शुरू किया। यह देखकर रास्ते में रहने वाले उस गरीब वृद्ध दंपत्ति के मन में भी इस निर्माण कार्य में सहयोग करने की प्रबल इच्छा जागृत हुई और उन्होंने मंदिर के निर्माण कार्य में आने जाने वाले श्रमिकों एवं अन्य व्यक्तियों को अपनी ओर से जल एवं गुड़ खिलाने का सेवा कार्य करने लगे। जब उस भव्य मंदिर का निर्माण पूरा हो गया और मूर्ति स्थापना के विषय में विचार विमर्ष प्रारंभ हुआ तभी एक रात हरिनारायण को स्वप्न में मानों प्रभु का निर्देश मिला कि उस दंपत्ति के यहाँ जो मूर्ति है उसी की स्थापना इस मंदिर में की जाये और तदनुसार उन्होंने उस मूर्ति को प्राप्त कर उसे मंदिर में स्थापित कर दिया। मंदिर के उद्घाटन के लिये जोर-षोर से तैयारियाँ प्रारंभ हो गई थी और प्रख्यात राजनीतिज्ञों से उद्घाटन का प्रारूप तैयार हो रहा था।

इसी समय हरिनारायण की पत्नी को स्वप्न में प्रभु के दर्शन हुए और उन्हें निर्देश मिला कि इस मंदिर का उद्घाटन उस गरीब दंपत्ति के द्वारा ही किया जाए जो कि प्रभु के प्रति पूर्ण मन से समर्पित होकर सेवाभाव रखते हुए मंदिर के निर्माण हेतु कार्यरत हर व्यक्ति को पूर्ण श्रद्धाभाव से गुड खिलाकर पानी पिलाता था। इसके बाद प्रभु इच्छा के अनुसार उसी वृद्ध दंपत्ति से उसका उद्घाटन करवाया गया। उस उद्योगपति का परिवार इस घटना को देखकर प्रभु के प्रति असीम श्रद्धाभाव से भर गया। उन्होने उस वृद्ध दंपत्ति से अनुरोध करके भगवान की सेवा हेतु उस मंदिर का व्यवस्थापक बना दिया। वे वृद्ध दंपत्ति ईश्वर की निस्वार्थ सेवा के कारण सुखी और आनंदमय जीवन व्यतीत करने लगे।

२३. संगति का प्रभाव

महेश एक कर्तव्यनिष्ठ व मेहनती व्यक्ति था जो कि एक कारखाने में लिपिक के पद पर कार्यरत था। वह अपनी पत्नी और एक बच्ची के साथ सुखमय जीवन जी रहा था। उसके विभाग में रमेश नामक एक दूसरे लिपिक से उसकी घनिष्ठ मित्रता हो गयी। वह एक बिगडा हुआ, शराब का आदी व्यक्ति था। उसकी इस बुरी आदत ने धीरे धीरे महेश को भी जकड लिया और वह भी शराब का आदी हो गया था। वह अपनी मेहनत की कमाई के रूपये शराब में उडा देता था जिससे उसके घर में आर्थिक तंगी के कारण झगडे होने लगे। वह अपनी बेटी पिंकू को बहुत प्यार करता था।

एक दिन जब वह मदिरालय में शराब पी रहा था तभी उसके पास खबर आई की उसकी बेटी अचानक छत से गिर गई है और उसे गंभीर अवस्था में अस्पताल में भर्ती किया गया है। महेष शराब के नशे में इतना डूबा हुआ था कि उसने इसे अनसुना कर दिया और शराब पीने में ही अपना समय गंवाता रहा। जब वह देर रात्रि घर पहुँचा तो उसे पिंकू के निधन का पता हुआ। यह जानकर वह स्तब्ध रह गया कि उसकी प्यारी बच्ची अंतिम समय तक अपने पापा की याद करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो गई।

महेश का नशा उतर चुका था और उसका हृदय व्यथित होकर उसे बार-बार धिक्कार रहा था। उसकी आँखों से अश्रुधारा लगातार बह रही थी और वह आत्मग्लानि में आत्महत्या करने के लिए संकल्प कर चुका था। यह जानकर उसकी पत्नी ने उसे रूंधे गले से समझाया कि आत्महत्या करना कायरता की निशानी है अगर आपको कुछ करना ही है तो शराब पीने की आदत को खत्म कीजिए। आपकी इस आदत ने ही हमारे परिवार के बर्बाद कर दिया और हमारी बच्ची की जान ले ली।

महेश को यह बात समझ आ गयी थी और उसने शराब छोडने का दृढ संकल्प कर लिया था। उस दिन के बाद से उसने शराब को हाथ भी नही लगाया। कुछ वर्षों पश्चात उसने अपनी बेटी की स्मृति में एक नशा मुक्ति केंद्र की स्थापना की।

२४. कर्तव्य से संतुष्टि

जबलपुर का लोकसभा में प्रतिनितिधत्व कर चुके श्री श्रवण पटेल का कथन है कि उनके पिता स्वर्गीय राजर्षि परमानंद भाई पटेल बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। वे एक समर्पित समाजसेवी, राजनीतिज्ञ, सफल उद्योगपति, आध्यात्मिक विचारक एवं प्रदेश के रणजी ट्राफी खिलाडी थे। वे सिद्धांतवादी राजनीति में विश्वास रखते थे। उनका यह दृढ मत था कि यदि हमें मनुष्य जीवन मिला है तो हमारा यह कर्तव्य बनता है कि हम असहाय, पीड़ित, जरूरतमंद गरीब लोगों की मदद करे।

श्री श्रवण पटेल बताते है कि उनका रूझान मात्र किक्रेट के प्रति था और उन्हें भी कम उम्र में रणजी ट्राफी खेलने का यश प्राप्त हुआ। उनके पूज्य पिताजी ने उनके बडे होने पर यह मन बना लिया था कि उन्हें समाज में सेवा कार्य करने के लिए प्रेरणा देंगें। उनके मन में राजनीति के प्रति कोई रूझान नही था। माता पिता की तीव्र इच्छा के चलते सन् 1980 में उन्हें म.प्र. विधानसभा का चुनाव लडना पडा और बहोरीबंद विधानसभा के ढीमरखेडा ब्लाक का प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला। वे चुनाव के दौरान जब पहली बार क्षेत्र में गये तो लौटने के पश्चात वहाँ के पिछडेपन एवं लोगों की गरीबी देखकर इतना दुखी होकर घर वापिस आये और सीधे आँखों में आँसू लेकर माँ से उन्होंने कहा कि इतना दुख संसार में होगा यह मैं नही जानता था और मैं यह चुनाव नही लड सकूँगा। माँ ने उन्हें समझाया और कहा कि ईश्वर ने पिछडे क्षेत्र का उत्थान करने का अवसर तुम्हें दे दिया है और मुझे विश्वास है कि तुम इस कसौटी पर खरे उतरोगे।

उन्हें ढीमरखेडा क्षेत्र का भ्रमण करते हुए, खमतरा गांव में जाने का अवसर प्राप्त हुआ। यह पिछडा क्षेत्र था इस कारण वहाँ पर अत्याधिक गरीबी एवं भुखमरी की स्थिति थी। दुर्भाग्यवश सूखा पड जाने के कारण एक चौदह, पंद्रह वर्षीय आदिवासी कन्या ने भूख के कारण जंगली घास खा ली थी। जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। उन्होंने यह अनुभव किया कि यदि उनके क्षेत्र में आवागमन का साधन सुलभ होता तो शायद उस कन्या को बचाया जा सकता था।

उस समय का एक और प्रसंग उन्हें आज भी याद है कि वर्षा ऋतु के समय में ढीमरखेडा ब्लाक के ग्राम झिन्ना पिपरिया में कुएँ का जल प्रदूषित हो गया था और पानी पीने के पश्चात कई लोगों की मृत्यु हो गई थी। उन्होंने जब वहाँ पर जाना चाहा तो उन्हें सलाह दी गई कि वहाँ पर हैजा की स्थिति बन गई है और आपके स्वास्थ्य को भी खतरा हो सकता है। उन्होंने सोचा कि विधायक होने के कारण उनका कर्तव्य है कि ऐसे कठिन समय में वे जनता के समीप रहे और जब वे वहाँ पहुँचे तो वहाँ पर लाशो का ढेर देखकर बहुत व्यथित हो गये क्योंकि वहाँ पर भी आवागमन का साधन यदि सहज रूप में उपलब्ध होता तो बहुत से लोगों को बचाया जा सकता था।

उन्होंने उसी समय मन ही मन संकल्प लिया था कि यदि भविष्य में उन्हें कभी अवसर मिलेगा तो वे इस क्षेत्र की सडकों को बनवाने का प्रयास करेंगें। सन् 1998 में उन्हें पुनः तीसरी बार विधायक चुना गया और उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा देते हुए मध्य प्रदेश का लोक निर्माण मंत्री बनाया गया। केंद्र सरकार की सी.आर.एफ योजना के अंतर्गत पर्याप्त मात्रा में धन उपलब्ध करवाया गया था। जिससे उन्होने जबलपुर एवं कटनी जिले की ग्रामीण सडकों गुणवत्ता पूर्ण निर्माण करके जीर्णोद्धार कर दिया।

वर्तमान में यद्यपि वे अब राजनीति से अलग है परंतु उन्हें यह जानकर अत्याधिक संतोष होता है कि उनके पंचवर्षीय कार्यकाल 1998 से 2003 में जो सडकों का जाल जनता के लाभ के लिए उपलब्ध कराया गया था, जिसके कारण आज भी, कोई गर्भवती माता डिलेवरी के समय डाक्टर या मिड वाइफ के अभाव में अपने जीवन का दाँव नही खेलेगी, कोई पीडित या गंभीर रूप से जीवन और मरण के संघर्ष में उलझा हुआ व्यक्ति चिकित्सा सुविधा के अभाव में अपना दम नही तोडेगा।

उनका स्पष्ट मत है कि मानव सेवा पूर्ण रूप से व्यक्तिगत अहंकार से मुक्त होना चाहिए इसमें यदि परोपकार या सेवा के पीछे लक्ष्य प्राप्ति की इच्छा माला पहनने की प्रवृत्ति या भाषणों के माध्यम से अपने अहंकार की तृप्ति का आंशिक भाव भी हो तो वह मानव सेवा की सच्ची भक्ति नही हो सकती।

२५. आध्यात्मिक ज्ञान की आवश्यकता

स्वामी जी से उनके एक शिष्य ने पूछा कि पशु पक्षी और मानव में क्या अंतर होता है। दोनो ही तो जीव है। उन्होंने इसका उत्तर देते हुए समझाया कि पशु पक्षी अपने बच्चों को सुरक्षित स्थान पर जन्म देकर, उनको भोजन उपलब्ध कराकर उनका पोषण करके सही वक्त पर उन्हें शिकार करने की शिक्षा देते है। यही उनका जीवन है।

आज के वर्तमान युग में माता पिता भी यही सोच रखते है कि बच्चों को जन्म देकर उनका शारीरिक पोषण करके, अच्छी शिक्षा दिलाने के बाद, धनोपार्जन करना सिखाकर, उन्हें अपने पैरों पर खडा कर देना ही उनके कर्तव्य का पूर्ण हो जाना समझते है। इसे ही वे अपने धर्म का पालन करना मान लेते है। यह सोच उचित नही है क्योंकि यदि ऐसा हो तो मनुष्य और पशु पक्षियो में क्या अंतर होगा ?

मनुष्य जीवन एक उच्च उद्देश्य के लिए प्राप्त हुआ हैं जो कि आध्यात्मिक जगत के ज्ञान की प्राप्ति है। सभी माता पिता का कर्तव्य है कि वे अपनी संतान को सिर्फ भौतिक जगत से संबंधित शिक्षा देकर ही अपने कर्तव्य की इति श्री नही समझना चाहिए बल्कि उन्हे भौतिक जगत से आध्यात्मिक जगत की ओर समर्पित होना भी सिखाना चाहिए। प्रभु की कृपा से हमें मनुष्य योनि की प्राप्ति हुई है। हमे अपने धर्म का पालन करते हुए आध्यात्मिक जगत की समुचित शिक्षा बाल्यकाल से ही अपनी संतानों को देना चाहिए। आज समाज में जो विसंगतियाँ और पारिवारिक विच्छेद हो रहे है उसका प्रमुख कारण आध्यात्मिक शिक्षा की कमी है। यदि बच्चों को भौतिक जगत की बातों के साथ साथ आध्यात्मिक ज्ञान भी बाल्यकाल से ही प्राप्त हो तो वे अपनी सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों के प्रति समर्पित रहेंगें।

२६. प्रायश्चित

एक कस्बे में एक गरीब महिला जिसे आँखो से कम दिखता था, भिक्षा माँगकर किसी तरह अपना जीवन यापन कर रही थी। एक दिन वह बीमार हो गई, किसी दयावान व्यक्ति ने उसे इलाज के लिये 500रू का नोट देकर कहा कि माई इससे दवा खरीद कर खा लेना। वह भी उसे आशीर्वाद देती हई अपने घर की ओर बढ़ गई। अंधेरा घिरने लगा था, रास्ते में एक सुनसान स्थान पर दो लड़के षराब पीकर ऊधम मचा रहे थे। वहाँ पहुँचने पर उन लड़को ने भिक्षापात्र में 500रू का नोट देखकर शरारतवश वह पैसा अपने जेब में डाल लिया, महिला को आभास तो हो गया था पर वह कुछ बोली नही और चुपचाप अपने घर की ओर चली गई।

सुबह दोनो शरारती लड़को का नशा उतर जाने पर वे अपनी इस हरकत के लिये शर्मिंदा महसूस कर रहे थे। वे शाम को उस भिखारिन को रूपये वापस करने के लिये इंतजार कर रहे थे। जब वह नियत समय पर नही आयी तो वे पता पूछकर उसके घर पहुँचे जहाँ उन्हें पता चला कि रात्रि में उसकी तबीयत अचानक बिगड़ गयी और दवा न खरीद पाने के कारण वृद्धा की मृत्यु हो गई थी। यह सुनकर वे स्तब्ध रह गये कि उनकी एक शरारत ने किसी की जान ले ली थी। इससे उनके मन में स्वयं के प्रति घृणा और अपराधबोध का आभास होने लगा।

उन्होने अब कभी भी शराब न पीने की कसम खाई और शरारतपूर्ण गतिविधियों को भी बंद कर दिया। उन लडकों में आये इस अकस्मात और आश्चर्यजनक परिवर्तन से उनके माता पिता भी आश्चर्यचकित थे। जब उन्हें वास्तविकता का पता हुआ तो उन्होने हृदय से मृतात्मा के प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुये अपने बच्चों को कहा कि तुम जीवन में अच्छे पथ पर चलो और वक्त आने पर दीन दुखियों की सेवा करने से कभी विमुख न होओ, यहीं तुम्हारे लिये सच्चा प्रायश्चित होगा।

२७. नैतिकता

परमानंद जी एक सफल व्यापारी के साथ साथ राजनीति में भी गहरी पैठ रखते थे। वे अपने गृहनगर में भारी मतों से जीतकर एम.एल.ए भी बन गये थे। एक दिन मुख्यमंत्री जी ने अपने कार्यालय में किसी कार्यवश उन्हें बुलाया था। उस दिन दुर्भाग्य से परमानंद जी के निजी सेवक इमरतीलाल, जिसने उन्हें बचपन से पाल पोसकर बडा किया था, वह अचानक हृदयाघात के कारण अस्पताल में गंभीर अवस्था में भर्ती किया गये थे। परमानंद जी स्वयं उसकी देखभाल में व्यस्त थे और उन्होंने मुख्यमंत्री जी को संदेश भिजवा दिया था कि उनके निजी सेवक की तबीयत अधिक खराब होने के कारण वे उनसे नियत समय पर मिल पाने में असमर्थ है।

यह सुनकर मुख्यमंत्री जी काफी नाराज हो गये और सोचने लगे कि यह कैसा व्यक्तित्व है जिसके लिए मुख्यमंत्री से ज्यादा महत्वपूर्ण उसका नौकर है। इस घटना के कुछ समय बाद ही इमरतीलाल की तबीयत स्थिर हो जाने के पश्चात परमानंद जी मुख्यमंत्री जी के पास मिलने के लिये गये। मुख्यमंत्री जी ने मुलाकात के दौरान व्यंग्य करते हुए कहा कि आप बहुत बडे राजनीतिज्ञ हो गये है आपके लिए मुख्यमंत्री से ज्यादा महत्वपूर्ण नौकर है।

यह सुनकर परमानंद जी जो कि एक बहुत स्वाभिमानी और स्पष्ट वक्ता थे। उन्होंने निडर होकर जवाब दिया कि जिस व्यक्ति की गोद में बचपन में खेल कर मे बडा हुआ और जो आजतक मेरी देखभाल परिवार के सदस्य के समान कर रहा हो, उसकी तबीयत के विषय में समय देना मेरे लिए आप से मिलने से ज्यादा महत्वपूर्ण था। मै इस पद पर वैसे भी समाज के कल्याण एवं जनता की सेवा के लिए चुना गया हूँ। यदि आपको यह लगता है कि मेरे इस कृत्य से आपका अपमान हुआ है, तो मैं विधान सभा की सदस्यता से इस्तीफा भी दे सकता हूँ।

यह सुनते ही मुख्यमंत्री जी का पारा एक दम से ठंडा हो गया और वे हतप्रभ होकर परमानंद जी के चेहरे की ओर देखने लगे। उन्हें ऐसे स्पष्ट जवाब की अपेक्षा नही थी। उन्होंने इस्तीफा ना देने का अनुरोध करते हुए, दूसरे दिन मिलने के लिए कह दिया। दूसरे दिन मुलाकात होने पर उन्होंने परमानंद जी की तारीफ करते हुए कहा कि आप जैसे व्यक्तित्व आज के समय में बिरले ही होते हे। आपका निर्णय समय एवं परिस्थितियों के अनुसार एकदम सही था।

२८. संकल्प

जबलपुर शहर से लगी हुई पहाडियों पर एक पुजारी जी रहते थे। एक दिन उन्हें विचार आया कि पहाडी से गिरे हुये पत्थरों को धार्मिक स्थल का रूप दे दिया जाए। इसे कार्यरूप में परिणित करने के लिये उन्होने एक पत्थर को तराश कर मूर्ति का रूप दे दिया और आसपास के गांवों में मूर्ति के स्वयं प्रकट होने का प्रचार प्रसार करवा दिया।

इससे ग्रामीण श्रद्धालुजन वहाँ पर दर्शन करने आने लगे। इस प्रकार बातों बातों में ही इसकी चर्चा शहर भर में होने लगी कि एक धार्मिक स्थान का उद्गम हुआ हैं। इस प्रकार मंदिर में दर्षन के लिये लोगों की भारी भीड़ आने लगी। वे वहाँ पर मन्नतें माँगने लगे। अब श्रद्धालुजनो द्वारा चढ़ाई गई धनराशि से पुजारी जी की तिजोरी भरने लगी और उनके कठिनाईयों के दिन समाप्त हो गये। मंदिर में लगने वाली भीड़ से आकर्षित होकर नेतागण भी वहाँ पहुँचने लगे और क्षेत्र के विकास का सपना दिखाकर अपनी लोकप्रियता बढ़ाने का प्रयास करने लगे।

कुछ वर्षों बाद पुजारी जी अचानक बीमार पड़ गये। जाँच के उपरांत पता चला कि वे कैंसर जैसे घातक रोग की अंतिम अवस्था में है यह जानकर वे फूट फूट कर रोने और भगवान को उलाहना देने लगे कि हे प्रभु मुझे इतना कठोर दंड क्यों दिया जा रहा है ? मैंने तो जीवनभर आपकी सेवा की है।

उनका जीवन बड़ी पीड़ादायक स्थिति में बीत रहा था। एक रात अचानक ही उन्होनें स्वप्न में देखा की प्रभु उनसे कह रहे हैं कि तुम मुझे किस बात की उलाहना दे रहे हो ? याद करो एक बालक भूखा प्यासा मंदिर की शरण में आया था अपने उदरपूर्ति के लिये विनम्रतापूर्वक दो रोटी माँग रहा था परंतु तुमने उसकी एक ना सुनी और उसे दुत्कार कर भगा दिया। एक दिन एक वृद्ध बरसते हुये पानी में मंदिर में आश्रय पाने के लिये आया था। उसे मंदिर बंद होने का कारण बताते हुये तुमने बाहर कर दिया था। गांव के कुछ विद्यार्थीगण अपनी षाला के निर्माण के लिये दान हेतु निवेदन करने आये थे। उन्हें शासकीय योजनाओं का लाभ लेने का सुझाव देकर तुमने विदा कर दिया था। मंदिर में प्रतिदिन जो दान आता है उसे जनहित में खर्च ना करके, यह जानते हुये भी कि यह जनता का धन है तुम अपनी तिजोरी में रख लेते हो। तुमने एक विधवा महिला के अकेलेपन का फायदा उठाकर उसे अपनी इच्छापूर्ति का साधन बनाकर उसका शोषण किया और बदनामी का भय दिखाकर उसे चुप रहने पर मजबूर किया।

तुम्हारे इतने दुष्कर्मों के बाद तुम्हें मुझे उलाहना देने का क्या अधिकार है। तुम्हारे कर्म कभी धर्म प्रधान नही रहे। जीवन में हर व्यक्ति का उसका कर्मफल भोगना ही पड़ता है। इन्ही गलतियों के कारण तुम्हें इसका दंड भोगना ही पडे़गा। पुजारी जी की आँखें अचानक ही खुल गई और स्वप्न में देखे गये दृश्य मानो यथार्थ में उनकी आँखों के सामने घूमने लगे और पश्चाताप के कारण उनके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी।

२९. अंतिम दान

सेठ रामसजीवन नगर के प्रमुख व्यवसायी थे जो अपने पुत्र एवं पत्नी के साथ सुखी जीवन बिता रहे थे। एक दिन अचानक उन्हें खून की उल्टी हुयी और चिकित्सकों ने जाँच के उपरांत पाया कि वे कैंसर जैसे घातक रोग की अंतिम अवस्था में हैं एवं उनका जीवन बहुत कम बचा है। यह जानकर उन्होने अपनी सारी संपत्ति अपनी पत्नी एवं बेटे के नाम कर दी। कुछ माह बाद उन्हें महसूस हुआ कि उनके हाथ से बागडोर जाते ही उनकी घर में उपेक्षा आरंभ हो गई है। यह जानकर उन्हें अत्यंत दुख हुआ कि उन पर होने वाला दवाइयों, देखभाल आदि का खर्च भी सभी को एक भार नजर आने लगा है। जीवन का यह कड़वा सत्य उनके सामने था और एक दिन वे आहत मन से किसी को बिना कुछ बताये ही घर छोडकर एक रिक्षे में बैठकर विराट हास्पिस की ओर रवाना हो गये। किसी का भी वक्त और भाग्य कब बदल जाता है, इंसान इससे अनभिज्ञ रहता है।

रास्ते में रिक्षे वाले ने उनसे कहा कि यह जगह तो कैंसर के मरीजों के उपचार के लिये है यहाँ पर गरीब रोगी रहते है जिन होने वाला खर्च उनके परिवारजन वहन करने में असमर्थ होते हैं आप तो वहाँ पर दान देने जा रहे होंगे। मैं एक गरीब रिक्षा चालक हूँ परंतु मेरी ओर से भी यह 50 रू वहाँ दे दीजियेगा। सेठ जी ने रूपये लिये और उनकी आँखे सजल हो गयी।

उन्होने विराट हाॅस्पिस में पहुँचकर अपने आने का प्रयोजन बता दिया। वहाँ के अधीक्षक ने अस्पताल में भर्ती कर लिया। उस सेवा संस्थान में निषुल्क दवाईयों एवं भोजन की उपलब्धता के साथ साथ निस्वार्थ भाव से सेवा भी की जाती थी। एक रात सेठ रामसजीवन ने देखा कि एक मरीज बिस्तर पर बैठे बैठे रो रहा है वे उसके पास जाकर कंधे पर हाथ रखकर बोले हम सब कि नियति मृत्यु है जो कि हमें मालूम है तब फिर यह विलाप क्यों? वह बोला मैं मृत्यु के डर से नही रो रहा हूँ। अगले सप्ताह मेरी बेटी की षादी होने वाली है मेरे घर में मैं ही कमाॅंऊ व्यक्ति था अब पता नही यह षादी कैसे संपन्न हो सकेगी। यह सुनकर सेठ जी बोले कि चिंता मत करो भगवान सब अच्छा करेंगे तुम निष्चिंत होकर अभी सो जाओ। दूसरे दिन प्रातः सेठ जी ने अधीक्षक महोदय को बुलाकर कहा मुझे मालूम है मेरा जीवन कुछ दिनों का ही बाकी बचा है। यह मेरी हीरे की अंगूठी की अब मुझे कोई आवष्यकता नही है। यह बहुत कीमती है इसे बेचकर जो रूपया प्राप्त हो उसे इस गरीब व्यक्ति की बेटी की षादी में दे दीजिये मैं समझूँगा कि मैनंे अपनी ही बेटी का कन्यादान किया है और बाकी बचे हुये धन को आप अपने संस्थान के उपयोग में ले लें। इस प्रकार सेठ जी ने अपने पास बचे हुये अंतिम धन का भी सदुपयोग कर लिया। उस रात सेठ जी बहुत गहरी निद्रा में सोये। दूसरे दिन जब नर्स उन्हें उठाने के लिये पहुँची तो देखा कि वे परलोक सिधार चुके थे।

३०. चापलूसी

सेठ पुरूषोत्तमदास शहर के प्रसिद्ध उद्योगपति थे। जिन्होने कड़ी मेहनत एवं परिश्रम से अपने उद्योग का निर्माण किया था। उनका एकमात्र पुत्र राकेश अमेरिका से पढ़कर वापिस आ गया था और उसके पिताजी ने सारी जवाबदारी उसे सौंप दी थी। राकेश होशियार एवं परिश्रमी था, परंतु चाटुकारिता को नही समझ पाता था। वह सहज ही सब पर विश्वास कर लेता था।

उसने उद्योग के संचालन में परिवर्तन लाने हेतू उस क्षेत्र के पढ़े लिखे डिग्रीधारियों की नियुक्ति की, उसके इस बदलाव से पुराने अनुभवी अधिकारीगण अपने को उपेक्षित महसूस करने लगे। नये अधिकारियों ने कारखाने में नये उत्पादन की योजना बनाई एवं राकेश को इससे होने वाले भारी मुनाफे को बताकर सहमति ले ली। इस नये उत्पादन में पुराने अनुभवी अधिकारियों को नजरअंदाज किया गया।

इस उत्पादन के संबंध में पुराने अधिकारियों ने राकेश को आगाह किया था कि इन मशीनो से उच्च गुणवत्ता वाले माल का उत्पादन करना संभव नही है। नये अधिकारियों ने अपनी लुभावनी एवं चापलूसी पूर्ण बातों से राकेश को अपनी बात का विश्वास दिला दिया। कंपनी की पुरानी साख के कारण बिना सेम्पल देखे ही करोंडो का आर्डर बाजार से प्राप्त हो गया। यह देख कर राकेश एवं नये अधिकारीगण संभावित मुनाफे को सोचकर फूले नही समा रहे थे।

जब कारखाने में इसका उत्पादन किया गया तो माल उस गुणवत्ता का नही बना जो बाजार में जा सके। सारे प्रयासों के बावजूद भी माल वैसा नही बन पा रहा था जैसी उम्मीद थी और नये अधिकारियों ने भी अपने हाथ खड़े कर दिये थे। उनमें से कुछ ने तो यह परिणाम देखकर नौकरी छोड़ दी। राकेश अत्यंत दुविधापूर्ण स्थिति में था। यदि अपेक्षित माल नही बनाया गया तो कंपनी की साख पर कलंक लग जाएगा। अब उसे नये अधिकारियों की चापलूसी भरी बातें कचोट रही थी।

राकेश ने इस कठिन परिस्थिति में भी धैर्य बनाए रखा तथा अपने पुराने अधिकारियों की उपेक्षा के लिए माफी माँगते हुए, अब क्या किया जाए इस पर विचार किया। सभी अधिकारियों ने एकमत से कहा कि कंपनी की साख को बचाना हमारा पहला कर्तव्य है अतः इस माल के निर्माण एवं समय पर भेजने हेतु हमें उच्च स्तरीय मशीनरी की आवश्यकता है, अगर यह ऊँचे दामों पर भी मिले तो भी हमें तुरंत उसे खरीदना चाहिये। राकेश की सहमति के उपरांत विदेशो से सारी मशीनरी आयात की गई एवं दिनरात एक करके अधिकारियो एवं श्रमिकों ने माल उत्पादन करके नियत समय पर बाजार में पहुचा दिया।

इस सारी कवायद से कंपनी को मुनाफा तो नही हुआ परंतु उसकी साख बच गई जो कि किसी भी उद्योग के लिये सबसे महत्वपूर्ण बात होती है। राकेश को भी यह बात समझ आ गई कि अनुभव बहुत बड़ा गुण है एवं चापलूसी की बातों में आकर अपने विवेक का उपयोग न करना बहुत बड़ा अवगुण है और हमें अपने पुराने अनुभवी व्यक्तियों को कभी भी नजर अंदाज नही करना चाहिये क्योंकि व्यवसाय का उद्देश्य केवल लाभ कमाना नही होता यदि व्यवसाय को भावना से जोड़ दिया जाये तो इसका प्रभाव और गहरा होता है।