Berojgar Sangit in Hindi Poems by Prabhat Anand books and stories PDF | 'बेरोजगार' : यथार्थवादी कविताओं का एक संग्रह

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'बेरोजगार' : यथार्थवादी कविताओं का एक संग्रह

#नींद

"भगवान के लिए, बेकार! बेकार! का ये शोर बंद करो"


...वो अधेड़ युवक रात भर बड़बड़ाता है,
सोये अपनी ख्वाहिशों की कब्र पे।




#सपनें

सपनें-
जिनको पूरा होते
सोचने भर से,
कभी रोमांच हो जाता था।
वो सपनें, बढ़ती उम्र के साथ
एक-एक कर,
मरती जाती हैं।
अपने सपनों को यूं मरते देख,
आदमी लगभग मर हीं जाता है।
या फिर बचा रह जाता है-

'एक टूटा हुआ आदमी'




#देशबंदी

मालिक-मालिक, बाप-भैया करके
गुजर गया एक और सप्ताह
तब पता चला 'प्रधान ' ने भेजें हैं पैसे
"तेरे पास ये कागज नहीं, वो कागज नहीं
अपना पांच सौ निकलोगे कैसे? "
पूरा दिन 'रूल इज रुल ' पर सुनता रहा
'साहेब जी' का भाषन
और शाम ढ़ले
-फूटे सिर घर लौटा।

डंडे अक्सर फटेहालों पर तेज बरसती हैं।




#सिक्सवर्ड्सस्टोरी

1. काली है, बेरोजगार से ब्याह होगा

2. पीठ पीछे गुस्साया, बेरोजगार है शायद

3. संसद: बेरोजगारों के ख्वाहिशों की कब्रगाह

4. तुम बदसूरत नहीं हो, बेरोजगार हो।




#लेखन

'एक कहानी - जिसमें आह है, कराह है'


जब नजरों के अंत तक
छाई होती है निराशा,
कितना साफ दिखता है
मौत से पहले का नजारा।
ऐसी निराशा में भी
खुद को समेट कर,
ख़ून-पसीना एक कर
जब कुछ करता हूं
हाय! कितनी तमाचे खाता हूं
अपनी उम्मीदों पर
हर बार,
मेरी हार
कितनी शर्मनाक होती है
मैं कितना टूट जाता हूं
पूर्णतः बेसहाय
और तब
मैं खुद को बंद कर लेता हूं
किसी कमरे में
और जो चुभ रहा होता है
सीने में एक नुकिला टिल्ला -सा
जो बना होता है
अनगिनत,
अनकही
इच्छाओं की लाश से
उसे अपनी कलम की नोक से कुरेद
सफ़ेद कागज पर फैला देता हूं
तब जो कहानी बनता है
उसमे आह होती है
कराह होती है।



#रोटी

हाथ पैर कितना भी मार कर,
बस यही जान पड़ता है,
जहाँ खड़े थे कल,
दो कदम पीछे ही खड़े है आज।

इतना बेबस हूँ,
जिंदगी की उठा-पटक में,
कि अब तो इस हद तक समेट लिया है,
अपनी ख्वाहिसों की आसमां को,
कि घुटन सी होती है।

क्या कोई दो रोटी की चाह भी न रखे?





#अवसाद

मेरी जिन्दगी!
क्या तुझे ग्रहण लगी है?
क्यों निचोड़ती हो रोज?
क्यों मरोड़ती हो रोज?
...सिवाये आसुओं के
मुझे तुझसे
मिला कुछ भी नहीं।




#बेबसी

आखिर ऐसा क्यों है
कि जो सामर्थ्यवान हैं,
इच्छा शक्ति नहीं रखते।
और कुछ असमर्थ हो कर भी,
एक तड़प लिये फिरते हैं।
उनमें एक बेचैनी-सी होती है।
एक छटपटाहट-सा होता है।

कुछ न कर पाने की
एक बेरोजगार कि 'असमर्थता'
उसे अंदर हीं अंदर मार देता है।




#बदज़ुबान

यूँ तो मेरे बदजुबां होने के
कारण अनेक है
पर पास मेरे रोजगार न होना
उनमें से एक है!




#देशभक्ति

चहुँओर पैर पसारती बेरोजगारी
‌और जवाब में
‌नेताओं के घिनौनें तर्क
‌हर सुबह, हाथों में अख़बार पकड़ते ही
‌मेरे सपनों का भारत लूट जाता है।

न जाने कितने जुतें फट चूके हैं
परीक्षा केंद्रों का चक्कर काटते-काटते
जो उफान मारते आवेश थे
मेरे दिल में
इस देश के लिए
अब क्षीन होते जा रहें हैं।

रेलवे स्टेशन पर लगे
सौ फिट उच्ची तिरंगे के नीचे
मैं बैठा हताश
यही सोचे जा रहा हूं
क्या अंग्रेज दोषी हैं
कोई गंदी मौत से भी बुरी
मेरी इस बेरोजगारी के?






#प्रेम/शादी


" ये खूबसूरती
निचोड़ लो!
इस गुलबदन को
लूट लो!
की पूरी मद हूँ मैं
थोड़ा मर्द बनो,
दो चार घुट लो!"

तेरा आकर पास
आँखो में आखें डाल
यूं उकसाना
मुझे पागल कर रहा है

पर मुझे माफ कर दो
तुम मेरे लिए
एक शरीर से कहीं ज्यादा हो।
...सिर्फ नोंचने के लिए
मैंने तुम्हें नहीं चाहा।


ये मेरी नपुंसकता नहीं है,

मैं एक बेरोजगार हूं,
और तुम एक अमीरजादी।

तो मेरा प्रेम,
मेरी वफादारी का
मतलब रह नहीं जाता है।

तुम्हारे साथ के जो लोग हैं,
वो सांप हैं।
वे कभी भी,
तुम्हे मेरा होने नहीं देंगे।
आज या कल,
तुम मुझसे नफ़रत करोगी।

खैर! भले ही मैं तुम्हें पा न सकूं,
ये तसल्ली तो है ही मुझे
कि आखिरकार
तुम्हें भी
वो एहसास हुआ
जो मुझे हुआ।

चूकि इस रिश्ते का
कोई भविष्य नहीं है,
मैं हम दोनों के खातिर,
इस तबाही को रोकता हूँ।
मैं तुमसे प्रेम में,
तुम्हीं से दुरी चुनता हूँ।




#मन

एक दुनिया
इसी दुनिया में
पर इससे बेहतर
जहाँ गम कम है
जहाँ लोग कम है
और जो कम लोग हैं
वे वो लोग हैं
जिनको मैंने ही है बनाया
अपने खातिर
खातिरदारी के लिए
जी हुजूरी के लिए
हर जरूरी के लिए
जो मैं नही कर पा रहा
या जो कह भी नही सकता
इस दुनिया में
वही सब कुछ
कभी करते हैं वे कुछ
कभी करता हूँ मैं कुछ
होता हो चाहे जो कुछ
होता है मेरे लिए ही

मेरी वो दुनिया
मैं उस दुनिये का
मैं वहाँ अच्छा हूं
वहाँ अच्छा है सब कुछ
वहाँ सब कुछ अच्छा है।



#दौड़

आज जब दौड़ते-दौड़ते थक गया
तो थोड़ा रुक गया।

रुक कर जब कुछ देखो
तो साफ दिखता है।

मुझे दिख रहा था
मेरी अभी तक की
हफ़ा देने वाली सफर कि 'अर्थहीनता'।




#सांसे

...अध्याय खत्म होने को है


बंद,
अंधेरे कमरे में,
बेहोश-सा पड़ा,
सोचे जा रहा हूँ
... क्या मेरी तरह हीं
घायल हैं सभी??
या सिर्फ मुझे हीं आता है
हर रात,
सोते वक़्त,
ये ख्याल
कि हे ईश्वर!
काश ऐसा हो
कि जो सोएं
फिर न उठे कभी।






##हल

कराहें सुन कर भी
अनसुना कर देने में
लगता है समुंदर भर का साहस।
कोई बेबस का छाती फाड़ के रोना
कितना बेचैन कर देता है।
पर वो जो बैठे हैं सिर पर ताज लिए
रोज ही ऐसा कैसे कर लेते हैं ?

अब तो हद हो गयी।

अब जरूरत है कि
‌हम तलवे चाटना छोड़ दें
‌और शाही कुर्सियों पर बैठें, शाहों को
‌पटक दें खींच कर नीचे
‌और अपने जूतों की नोंक से
‌उनकी मुँहे खुला, पूछें
‌चल दोष गिना मेरा
मेरे बेरोजगार होने में।

अब जरूरत है कि
'ताज-पुरुष' को भी झकझोरा जाये।
इतना झकझोरा जाये
कि थरथरा जाये उसकी कुर्सी
और वो समझे
कि नौकरों का इतना सोना ठीक नही
इतना जोर से झकझोरा जाये
कि उसका भ्रम टूटे,
और ये साबित हो
कि गलत को गलत कहने की क्षमता
हममे अभी बची है,
कि हम सिर्फ चापलूसों की एक फ़ौज
बन न रह गये हैं।






##दोस्त

'स्वप्न वालों...भागो!'


वो जो सिखा रहा है
जिंदगी में मौज के सिवा कुछ भी नहीं
उसकी आँखों पर हवसी चश्मा है
अपनी जिंदगी का तमाशा बना,
घूमता है दर-दर मुँह मारते ..... उससे दूर भागो!

वो जो शराब पिलाने के लिए,
कर रहा पुरजोर कोशिश
और बता रहा शराब को
जन्नत की कोई घूँटी
वो नशे में कई बार सगे रिस्तों की भी
पवित्रता पी चूका है ..... उससे दूर भागो!

वो जो उपदेश दे रहा
कि शादी के बाद
हर योजित सोच
चौपट हो जाती है
वो अपनी और अपनी बीबी की
स्वप्नों के कब्र पर खड़ा है...... उससे दूर भागो!





##बदलाव

कुछ ढूंढता हूँ मैं
पर क्या ढूंढता हूँ???
कोई दिन न गुजरा
जब न ढूंढता हूँ
ढूंढ़ते-ढूंढ़ते
आधी उम्र हो आई
जो भी ढूंढता हूँ
व्यर्थ ढूंढता हूँ।



धन्यवाद!

©प्रभात