sala futichar in Hindi Motivational Stories by श्रुत कीर्ति अग्रवाल books and stories PDF | साला फटीचर

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साला फटीचर

साला फटीचर

आज काम का बोझ बहुत ज्यादा था, आलोक को मानो साँस लेने की भी फुर्सत नहीं थी। ऐसे में जब पियून ने किसी विजय कुमार का कार्ड लाकर सामने रखा तो उसने मना ही कर दिया... एक तो थकान से मन चिड़चिड़ाया हुआ है तिस पर से बिना पहले से अपॉइंटमेंट लिए क्यों आ जाते हैं लोग? किसी दूसरे की प्राॅब्लम समझने का कल्चर ही नहीं है इधर!

कोई जिद्दी आदमी ही रहा होगा जो पियून के रोकने के बावजूद फिल्मी स्टाइल में जबरदस्ती केबिन में घुसा चला आ रहा था। झल्लाकर नजर ऊपर उठाई तो चौंक ही गया वह... "विजय तुम? इतने सालों में न खैर न खबर... कहाँ हो यार आजकल?"

आलोक को अब अपनी स्टूडेंट लाइफ याद आने लगी थी। यह विजय... ऊँचा, बलिष्ठ, बेहद खुशमिजाज... सबसे बढ़कर आईआईटी की प्रवेश परीक्षा में रैंक होल्डर... फिर लगातार, हर साल का टॉपर! ईश्वर कभी-कभी इतने पक्षपाती हो जाते हैं कि एक ही इंसान को सबकुछ दे डालते हैं। फैकल्टी का दुलारा, कालेज का हीरो... कभी इग्ज़ाम के कारण, तो कभी प्रोजेक्ट्स बनाने में जब सब पागल से हो चुके होते, वह सीटी बजाता, मस्तियाँ कर रहा होता। किसी को उससे नोट्स चाहिये होते थे तो कोई उससे कुछ पढ़ने-समझने को उतावला होता और हमेशा उसके आगे-पीछे स्टूडेंट्स की एक भीड़ सी लगी रहती! जिसे देखो वही उसकी गुड बुक में आने को परेशान... पर आलोक जानता है, अंदर से सभी उसी की तरह, विजय से ईर्ष्या भी करते थे, उसी के जैसा बनने के सपने भी देखते थे!

उसके प्रश्न पर ध्यान दिए बिना विजय ने कहा, "बहुत बड़ा अफसर हो गया है तू तो! बिना अपॉइंटमेंट के आने वालों को धक्के मार कर निकलवा ही देगा?"

"क्या करूँ यार... इतना प्रेशर है कि क्या बताऊँ! यही तो नौकरी की हकीकत है! पैसे तो मिलते हैं यहाँ पर एक-एक पाई की चार गुनी कीमत चुकानी पड़ती है। गलाकाट प्रतियोगिता है और हर पल स्वयं को साबित करते रहने की मजबूरी! जिस दिन परफार्मेंस में जरा सी कमी आई, दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंकेंगें। और हम, इस तनख्वाह की नाव पर सवार होकर इतना हाथ-पैर फैला चुके होते हैं, कि बँधुआ मजदूर बन जाते हैं इनके! पर आजकल किसे नहीं पता ये सब, हम सभी तो एक ही नाव में सवार हैं। चल तू अपनी सुना! कहाँ रहकर डॉलर छाप रहा है? न्यूयार्क या शिकागो?" उसके साधारण से पैंट-शर्ट पर नजर डालते हुए आलोक ने पूछा।

विजय ने उसकी आवाज़ में आश्चर्य सुना था या व्यंग्य कि ठहाका मारकर हँस पड़ा। "केनी में रहता हूँ मैं, अपने गांव में!"
"क्या बात कर रहा है?" आलोक बुरी तरह चौंक पड़ा। "तेरे जैसा लड़का गांव में? तेरा पैकेज तो सबसे शानदार था। वर्ल्ड की इतनी बड़ी कंपनी के लिये तेरा कैंपस सिलेक्शन हुआ था!"
फिर कुछ सोंचकर आवाज़ धीमी कर ली, "क्या कोई दिक्कत हुई जो वापस आना पड़ा?"

"नहीं, गया ही नहीं था मैं!" विजय ने कहा, "न्यूज़ में सुना होगा तुम लोगों ने, उस साल हमारे इलाके में भयंकर सूखा पड़ा था और कर्जे के बोझ से दबे हुए बहुत सारे किसानों ने आत्महत्या कर ली थी, याद है तुझे?"

ऐसी खबरें तो रोज ही आती रहती हैं पर उनपर ध्यान किसका जाता है? आलोक कुछ बोलने ही वाला था मगर विजय के चेहरे की गंभीरता देख, चुप रह गया।

"उसमें मेरे चाचा भी थे, रामधनी कक्का भी थे, और मेरे सबसे प्यारे दोस्त के वो फूफा भी थे जिन्होंने उसे अपने बच्चे की तरह पाला था! एक-एक कर के, महीने भर में इतने लोग चले गये पर कसूर क्या था उनका? किसी ने सुध क्यों नहीं ली उनकी? मैं उन सभी के साथ बहुत अटैच्ड था। उनके परिजनों के आँसू मुझसे बर्दाश्त नहीँ होते थे।

बहुत बुरा समय था वह... मै डिस्टर्ब था! यूँ तो सबने यही समझाया कि मुझे नौकरी ज्वाइन करनी चाहिए और बहुत सारे पैसे कमा कर यहाँ भेजने चाहिये, पर मुझे यह समझ में नहीं आता था। उससे तो केवल मेरे परिवार का कर्जा उतरता न? मुझे लगता था कि मैं तो पूरे गाँव के लिए, बहुत कुछ करने में सक्षम हूँ, फिर खुद को दायरे में क्यूँ बाँधकर रखूँ? इस हवा, पानी, मिट्टी, प्यार मुहब्बत का कर्ज मात्र पैसे भेज देने से उतर जाता क्या?"

बहुत सोंचा, माँ-बाबा से लड़ाई भी बहुत हुई, बेहद परेशान रहा, पर डिसाइड कर ही लिया कि अब यहीं रहना है और लाइफ में चैलेंज अगर लेने ही हैं तो अपने लिए लूँगा, विदेशियों के लिए नहीं! कैसे बताऊँ तुझे, एक बार निर्णय लेते ही मैंने कितना रिलेक्स फील किया था..."

आलोक ने डरते-डरते पूछा, "अब सब ठीक हो गया?"
अतीत के दर्द से बाहर आ, विजय अब मुस्कुरा रहा था। बहुत काम कर रहे हैं हम लोग, और बहुत कुछ करना अभी बाकी है। वाटर हार्वेस्टिंग, आधुनिक तकनीक से खेती, सिंचाई... कुँए तालाबों का जीर्णोद्धार, स्वयं उत्तम क्वालिटी के बीज पैदा कर रद्दी बाजारू बीजों से छुटकारा, इंटरनेट पर बोली लगाकर फसल की बिक्री... इसके अलावा फलदार पेड़ लगाना, मवेशियों का चारा.. अगर नई तकनीक में पुराने अनुभवों को मिला लिया जाय न, तो चमत्कार भी किया जा सकता है।"

फिर शायद याद आ गया कि वह कुछ ज्यादा ही तो नहीं बोल रहा, उसने अपनी बात एकाएक वहीं समाप्त कर दी। "छोड़ वह सब! अभी तेरे पास तीन पीस ट्रैक्टर का आर्डर करने आया हूँ डियर... हो सके तो कुछ डिस्काउंट में दिलवा दे।"

आलोक को उस जमाने के अपने आदर्श याद आने लगे थे... देश, समाज, स्वच्छ राजनीति, पर्यावरण... वो सब बातें ही क्यों रह गईं? क्यों सबकुछ भूल कर वह महज भौतिक सुखों के पीछे भागने लग पड़ा? शरीर पर एक लाख का सूट होने के बावजूद, उसे आज फिर विजय से ईर्ष्या हो रही थी... यह साला फटीचर होकर भी सबसे ऊपर ही रहेगा।

मौलिक एवं स्वरचित

श्रुत कीर्ति अग्रवाल
shrutipatna6@gmail.com