उजाले की ओर ---संस्मरण
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आज़ादी की 75 वीं सालगिरह ! हम सब बड़े ज़ोर-शोर से झंडे लेकर खड़े हो जाते हैं |हर चौराहे पर छोटे-छोटे बच्चों के हाथ में झंडे देखकर उन्हें खरीदकर
उनके साथ या केवल झंडे के साथ अपनी तस्वीरें सोशल-मीडिया पर अपलोड करके हम देश भक्त बन जाते हैं |
लेकिन एक दिन ही क्यों ?हमारा भारत ऐसा हो कि हम हर पल ही आज़ादी को महसूस करें ,उसे जीएँ |
याद कर सकें अपने उन देश के पहरेदारों को जो हमारी सीमा पर चौबीसों घंटे तैनात रहते हैं | जीने और मरने के भेद को भी जो मिटा डालते हैं |
उनके लिए उनके घर-परिवार और स्वयं उनका जीवन बहुत बाद में है | पहले है देश की धरती,उस पर लहराता तिरंगा !
नमन है उन रण-बांकुरों को जो अपने लिए नहीं ,देश के लिए जीते हैं |
बात 1962 के भारत-चीन के युद्ध के समय की है | हम काफ़ी छोटे थे उस समय ,बड़ों की बात सुनकर हमारे भीतर एक उत्साह भरा रहता था |
हम रेडियो में समाचार सुनते ,अख़बार में समाचार पढ़ते और अपने परिवार में सैनिकों की वीरता की गाथाएँ सुनते |
उन दिनों मैं मुज़फ्फ़रनगर (उ.प्रदेश ) में एक छोटे शहर में रहती थी | दिल्ली से पढ़कर आई थी ,ग्यारहवीं में माँ के इंटर-कॉलेज में प्रवेश दिलवा दिया गया था |
शहर के प्रमुख रास्तों से सैनिकों के ट्रक भर-भरकर गुज़रते |हम उन सैनिकों को मिलने ,उन्हें राखियाँ बाँधने ,उन्हें शुभकामनाएँ देने जाते |
उन दिनों एक ऐसा वातावरण था कि शहर का हर आम बंदा भी अपने सैनिकों की सुरक्षा के लिए प्रार्थना कर रहा था |
परिवार की स्त्रियाँ नाश्ते बनातीं ,पैकेट्स बनाए जाते और उन्हें लेकर हम सब हाई-वे से गुज़रने वाले सैनिकों के ट्रकों पर लेकर जाते |
बहुत सी बार ट्रक वहाँ रोक दिए जाते ,जहाँ लोगों का जमघट होता |
बहनें सैनिक भाइयों के हाथों में रखियाँ बांधतीं | छोटी बच्चियाँ उनकी आरती उतारतीं |
हम सब उन्हें शुभकामनाएँ देते | कैसे मुस्कुराते हुए जाते थे वे जाँबाज़ सिपाही !
उनके चेहरों पर मुस्कान खिली देखी थी हमने सदा ही |
कोई अपनी नव-विवाहिता पत्नी को तो कोई नवजात बच्चे को छोड़कर देश के लिए अपनी जान क़ुरबान करने निकल पड़ा था |
मुझे याद है ,हमारे पड़ौस में एक छोटी बच्ची रहती थी जो अपंग थी | उसके पिता भी भारतीय सेना में थे जो नहीं रहे थे|
वह बच्ची ज़िद करके सैनिकों से मिलने जाती ,उसे ट्रक में चढ़ा दिया जाता और ट्रक में रखे बक्से पर बैठकर वह सिपाहियों की आरती उतारती |
उसको देखकर सबकी आँखों में आँसू भर जाते |
सिपाहियों में से कोई न कोई बोल ही पड़ता ;
"इतने सारे हमारे देशवासी हमारी मंगलकामना करने वाले हैं ,हमें कुछ हो ही नहीं सकता |"
"भैया ! आप लौटकर इसी रास्ते से आना ,मैं फिर आपकी आरेती उतारूंगी --" छोटी गुड़िया कहती |
उनके संवाद सुनकर वहाँ खड़े ,उन्हें शुभकामनाएँ देने आए हुए सभी लोगों की आँखें नाम हो जातीं |
ऐसे थे वो दिन ! हर सिपाही सबका अपना था | जिनके लिए कभी पूजा-अर्चना होतीं ,कभी यज्ञ करवाए जाते |
हमें अच्छी तरह याद है कि ऐसे सामूहिक यज्ञों में बच्चे या हम जैसे किशोर भी सम्मिलित होते थे |
अपनेपन के एहसास को जीते थे उन दिनों लोग ! एक की आँख का पानी सबकी आँखों में उतर आता था |
न जाने कितने सैनिक शहीद हुए होंगे---लेकिन हमने सदा उस रास्ते से उन्हें जाते देखा था ,वापिस लौटते कभी नहीं --- !!
ऐ वीरों नमन तुमको ,देश की ज़िंदगानी हो ,
तुम तो साँसें भी हो देश की ,ज़िंदगी की रवानी हो |
जय हिन्द ,जय भारत
आप सबकी मित्र
डॉ. प्रणव भारती