चमड़े का मोल in Hindi Short Stories by Yatendra Tomar books and stories PDF | चमड़े का मोल

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चमड़े का मोल

सुबह के 9 बज चुके हैं, धूप धीरे-धीरे खिसकती हुई खिड़की तक आ पहुँची है और शेखर अभी भी सो ही रहा है, शायद बीती रात दर्द कुछ ज़्यादा ही था, जिसके चलते नींद बहुत देरी से लगी। और फिर शरीर में कहीं अगर पीड़ा हो तो नींद कम ही आती है, वही पीडा हमें जगाये रखती है।

शेखर एक साफ्टवेयर इंजीनियर है और पिछले 2 साल से दिल्ली में रह रहा है, पिछले हफ्ते ऑफिस से घर आते समय उसका एक रोड एक्सीडेंट हो गया था, खैर एक्सीडेंट मेें कोई हड्डी तो नहीं टूटी पर दाहिना पैर बहुत बुरी तरह घायल हो गया था, घुटने से एडी तक की खाल पूरी तरह निकल गई थी। सो पिछले 5 दिनों से शेेेेखर अस्पताल मेेंं ही था। पर शेखर की जैसी प्रकृति(बिहेवियर) है उसे इस तरह एक ही जगह पर बंद रहना कुछ भाता नहीं, वो हमेशा अपने जीवन मे एक गति रखता है।

शेखर अक्सर कहता है कि जीवन बहते हुए पानी जैसा ही है, बहाव को रोकोगे तो जीवन भी बंधा हुआ सा हो जाएगा। और भला फिर अस्पताल के बिस्तर पर पड़े पड़े कौन नहीं ऊबेगा, सो शेखर ने घर जाने का फैसला किया। डॉक्टरों ने कहा भी कि घाव को ठीक होने में 3-4 हफ्ते का वक्त लगेेंगा, पर शेखर को कहीं भीतर पता है कि हमारे अलावा अस्तित्व भी बखूबी जानता है कि घावों को भरने की प्रक्रिया क्या है, अस्तित्व अपने तरीकों से चीजों को ठीक करना जानता है, रास्ते भर मन ही मन ये सब विचार करते हुए वो घर आ गया, शाम भी करीब करीब बीत ही चुकी थी, और रात अपने आने का इशारा दे रहीं थीं। आते ही शेखर ने कमरे में बिखरे पड़े सामान को देखा, दर्द तो लगातार कायम ही था, सोचकर कि कल सुबह जल्दी उठकर थोड़ी कमरे की अस्त व्यस्तता को ठीक करा जायेगा और वो सोने चला गया।

और सुबह जब नींद खुली तो देखा कि धूप खिड़की तक आ चुकी है, घड़ी के काटे 9 के अंक पर आकर अटके हैं। कारण था कि रात बहुत देर से नींद आयी, जब शरीर में कहीं अगर पीड़ा होती है तो नींद कम ही आती है, वही पीडा हमें जगाये रखती है।

पैर से लंगड़ाते हुए शेखर सीधा बाहर के कमरे में आया और नजर सीधे दरवाजे के पास पड़े अखबार पर पड़ी, अखबार उठाकर वो पास रखी कुर्सी पर बैठ गया, पर खबरें पढ़ते पढ़ते उसकी नजरें कहीं ठहर सी गई, पेपर में एक लेख छपा हुआ था शेखर उसी लेख को पढ़ें जा रहा था, और पढ़ते पढ़ते चेहरे पर एक उदासी छा गई, वो लेख इंसानी जरूरतों के लिए जानवरों पर होने वाले शोषण के बारे में था।

लेख में लिखा था कि किस तरह हमारी उपभोग की वस्तुएँ लाखों जानवरों को मारने और उन पर प्रयोग करने के बाद बनती है, किस तरह केक, मिठाई और अन्य दूध से बने उत्पादों के कारण गायों को किस पीड़ा से गुजरना पड़ता है जो दूध बछड़ों के लिए था,वो हम जबरदस्ती निकाल रहे हैं। फिर किस तरह गायों को और उनके बछड़ों को बूचड़खानों में भेज दिया जाता है जब गाय दूध देना बंद कर देती है, ये सब पढ़ते हुए उसकी आंखों से आंसुओं की धार बहे जा रही थी, ये वो बातें थीं जिनपर कभी उसने गौर ही नहीं किया।

लेख में आगे लिखा था, कि किस तरह साबुन में वसा के लिए जानवरों की हड्डीयो का इस्तेमाल होता है, शैम्पू और अन्य कोसमेटिक्स बनाने में किस तरह खरगोशों पर प्रयोग किए जाते हैं। ये पढ़ते पढ़ते वो अपने पैर के घाव को देखता है और हर दिन कटने वाले जानवरों के बारे में सोचता है, कि जब उसे अपनी चमड़ी के इतने घाव से इतनी पीड़ा हो रही है तो उन जानवरों को कितनी पीड़ा होती होगी, उस पीड़ा का क्या मोल होगा, जिन्हें बस हम अपनी जुबान के स्वाद के लिए काट देते हैं। जब हम पीड़ा और दुःख में होते हैं तब हम कहीं बेहतर तरीके से औरों के दर्द को समझ पाते हैं।और फिर पीड़ा तो पीड़ा है चाहे कोई हो।

वो लेख को आगे और पढ़ता गया, कि कैसे मांसाहार ग्लोबल वार्मिंग का दूसरा सबसे बड़ा कारण है, मांस खाना पूरी पृथ्वी को निगल रहा है, और कितनी ही बीमारियो का कारण मांसाहार है। हमारी कितनी ही चीजें उन्हीं पशुओं की हत्या के बाद उसी चमड़े से बनाई जाती है, ये सब पढ़ते पर उसे दुख तो हुआ ही साथ ही उसे स्वयं से घृणा हो उठी, क्योंकि कितनी ही बार अपने दोस्तों के साथ पार्टी के नाम पर उसने कितने ही मुर्गों की जान ली।

अक्सर हम सच से बचने की कोशिश करते हैं और जब सच दिख जाता है तब हम आंखें मूंद लेते हैं। पर शायद शेखर की पीड़ा ने, उसके दर्द ने उसको ऐसा नहीं करने दिया, उसके भीतर से कई आवाजें उठ रही थी कि हत्या तो हत्या है चाहे कोई पशु ही क्यों न हो। और यही अंदर की आवाज़ ही हमारी सच्ची साथी है, यही अंदर की आवाज़ हमें हमेशा सही राह दिखलाती है।

आज शेखर पूरी तरह मांसाहार से मुक्त है, और वीगन है, और अब किसी ऐसी चीज का उपयोग नहीं करता जो पशुओं से निर्मित होती हो जैसे साबुन, केक, अंडा, चिकन, पनीर इत्यादि क्योंकि उसने इन चीजों के दूसरे विकल्प खोज लिए थे, वीगन विकल्प। हम अकेले सब नहीं कर सकते पर एक ईमानदार पहल तो कर सकते हैं क्या पता कुछ बड़ा हो जाये।

इन सबको गुजरे हुए करीब चार साल हो गए है और शेखर अपनी टेबल पर बैठा हुआ इन सबको याद कर रहा है कि कैसे उस एक घटना ने उसे बदल कर रख दिया, कैसे पशुओं से प्रेम करना सिखा दिया, कैसे वीगन बना दिया, ये सब याद करते हुए उसकी आंखों से करुणा लिए कुछ आंसू झलक आए।