a lesson from his life in Hindi Women Focused by Jyoti Prajapati books and stories PDF | एक सबक उनके जीवन से

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एक सबक उनके जीवन से

"आज लगभग छह साल बाद देखा था मैंने सरिता भाभी को..!! हालत में पहले से काफी अंतर आ गया था !! दुबली तो तब भी थी...लेकिन अब कुछ ज़्यादा ही दुबली नज़र आ रही थी !! उनकी गोद मे एक छोटा सा बच्चा था और अगल-बगल में सोनू-मोनू भी थे ! कितने बड़े दिखने लगे है इन छह सालो में !! बिल्कुल भैया की छवि दिखती है उनमें ! जब वे यहां से गए थे तब सोनू पांच साल और मोनू दो साल का था ! भाभी ने तो मुझे पहचाना ही नही था ! वो जब मन्दिर की सीढ़ियों पर बैठी हुई थी, तब मैं ही जाकर बोली उनसे,"कैसी हो भाभी? पहचाना मुझे?"
भाभी कुछ पल गौर से देखकर पहचानने की कोशिश करती रही ! अचानक मुझे उनके हाव-भाव देखकर लगा कि वे पहचान गयी हैं मुझे..लेकिन उन्होंने याद करने का उपक्रम जारी रखा ! तब मैंने ही उनके बगल में बैठते हुए कहा ,"भाभी मैं, शुभ्रा! भोपाल में आपके पड़ोस में रहती थी !!"
भाभी मुस्कान बिखेर कर बोली,"अरे शुभ्रा दीदी...कैसी हैं आप? इतने सालों बाद देखा न तो पहचान नही पाई !!"
थोड़ी देर तक हम दोनो ने बातचीत की। इस दौरान मुझे भाभी के चेहरे पर घबराहट सी नज़र आई ! शायद उन्हें लग रहा था कि मैं कहीं अतीत के पन्ने ना पलटने लगूं !
लेकिन मैं इतनी बेगैरत और संस्कारविहीन नही जो किसी की बसी-बसाई गृहस्थी में सेंध लगाऊं ! किसी के घर की बातें इधर से उधर करूँ ! मुझे नही समझ आता, महिलाओं को कौन सा रस मिलता है दूसरो के घरों में तांकझांक करके, उनके घर की खबरें जानकर? अगर उन्हें पता चल भी गया कि फलाने के घर झगड़ा हो रहा है, सास-बहू में बन नही रही है, पति-पत्नी में मनमुटाव है तो क्या कर लेंगी वो औरतें..? जाकर पंचायत लगाएंगी उनके घर मे?
भाभी से मुझे पता चला कि वे लोग उनके बेटे को माताजी के मन्दिर दर्शन कराने लेकर आये थे ! वे लोग दर्शन कर आये हैं, उनकी सासु माँ को कुछ लेना था तो बच्चे के पापा उन्हें लेकर गए है !!"
कितना अजीब लगा , भैया कहने के बजाय में उन्हें बच्चे के पापा कहकर संबोधित कर रही हूँ!! लेकिन जब वो भैया हैं ही नही तो कैसे कहूँ उन्हें भैया..? मैंने सोनू-मोनू को पचास रुपये पकड़ाए और जैसे ही जाने लगी, छोटे बच्चे के पापा आ गए ! मुझे देखकर पहचानने की कोशिश करने लगे। भाभी ने ही मेरा परिचय दिया ! भाभी की सासु मां के साथ एक दस-बारह साल की बच्ची थी। जिसे खूब सारे खिलौने दिलाकर लाये थे वे लोग। सासु माँ ने मोनू को एक छोटी सी खिलौने वाली कार पकड़ा दी, जिसे लेते ही वो खुशी से उछल पड़ा और सोनू के लिए खिलौने वाली गन लाये थे ! छोटे बच्चे के लिए और उस बच्ची के लिए तो जैसे पूरी दुकान ही खरीद लाये थे दोनो माँ-बेटे !!
सोनू-मोनू के साथ ऐसा भेदभाव देख, ना जाने क्यों दिल रो पड़ा! मुझे वहां और रुकना भारी लग रहा था ! मैंने भाभी से विदा ली और सबसे नमस्कार करके आ गयी !
मैं भी अपने पति के साथ माताजी के मंदिर आई थी, हमारी सालभर की बेटी को मातारानी का आशीर्वाद दिलाने ! सोचा नही था, अचानक भाभी से मुलाकात हो जाएगी !!
घर लौटते समय मैंने इनके कंधे पर सिर टिका दिया। बच्ची सासु माँ के पास थी। मुझसे ज़्यादा उन्ही के पास रहती थी। सासु मां उसे सम्भाल लेती थी तो मैं निश्चिन्त होकर अपना काम निपटा लेती थी। जिस दिन वे नही होती, गुड़िया मुझे परेशान कर लेती ! दिमाग मे बार-बार सोनू-मोनू घूम रहे थे और उनके साथ याद आ गए प्रशांत भैया ! !
प्रशांत भैया का घर मेरे घर से कुछ ही दूरी पर था ! बचपन से जानती थी मैं उन्हें। हमेशा भैया की तरह ही माना था उन्हें !! उनकी मम्मी का स्वभाव बहुत तेज़ था ! स्वभाव तेज़ था मतलब लड़ने - झगड़ने वाला तेज़ नही, बल्कि किसी से भी अपना काम कैसे करवाना है तो तेज़ स्वभाव! प्रशांत भैया और प्रखर भैया...दोनो भाई ही है।
प्रशांत भैया की शादी सरिता भाभी से हुई थी। भैया तो शुरू से ही फिदा थे भाभी पर। भाभी भी तेज़ स्वभाव की थी। सिर्फ अपनी चलाने की शौकीन। खुह उनकी माँ ने भी अपनी इकलौती बेटी को सहारा दिया।
हमे प्रशांत भैया की मम्मी का स्वभाव मालूम था, इसलिए जब भी उनके घर मे झगड़ा होता, हम यही कयास लगाते की आंटी ने जरूर अपनी चलाने की कोशिश की होगी और भैया ने भाभी का सपोर्ट किया होगा !
कभी पास के मंदिर पर भजन होते तब वे कहती कि भैया को सिर्फ पत्नी दिखाई देती है, माँ नही। अगर पत्नी ने कहा कि सोने के चम्मच से ही निवाला खाऊँगी तो सोने की चम्मच से ही खिलायेगा उसे...माँ-बाप चाहे भूखे बैठे रहें ! आंटी की बातो में एक बात हमेशा नोटिस की थी मैंने...वो अपनी बहू को दोष नही देती थी, बल्कि बेटे को ही दोष दिया करती थी या फिर भाभी की मम्मी को ! भाभी के बारे में तो मुझे नही याद उन्होंने कभी कहा हो कुछ ! और तो और मैंने कभी भाभी के मुंह से भी आंटी के बारे में कुछ गलत नही सुना। वे भी हमेशा मुस्कुराते हुए ही मिलती थी। जब भी उनसे मिलते, ऐसा लगता कि आंटी नाहक ही उनके बारे में मिथ्या फैला रही हैं। तब हमें भाभी पर बड़ी दया आती...हम सोचते, बेचारी भाभी...कैसी ससुराल में फंस गई?

मोनू छह-सात महीने का ही था, जब मेरी शादी हुई थी !! शादी के बाद कि पहली राखी थी...जिसे मनाने मैं मायके पहुंची हुई थी। मम्मी ने बताया था कि प्रशांत भैया के घर मे बहुत क्लेश हो रहा है आजकल। भाभी को गए पांच महीने हो चुके हैं, लेकिन वो आने का नाम ही नही ले रही। उन्हें बस अलग रहना था ससुराल से ! सास-ससुर के संग नही रहना !! " तब मैंने भी भाभी का समर्थन करते हुए कहा दिया था कि,"ऐसी सास के साथ कौन रहना पसन्द करेगा..जो रात-दिन चिकचिक करने लगी रहती हो?"
तब मम्मी ने आंटी का पक्ष लेकर कहा था,"बेटा...एक उम्र होती है, जब व्यक्ति चिढ़चिढाया हो जाता है। इतने सालों तक वो घर और नौकरी दोनो संभाल रही थी। उम्मीद थी कि बहु आकर थोड़ी ज़िम्मेदारी उठा लेगी तो राहत मिलेगी। लेकिन बहु को भी नौकरी पर जाना होता है, ऐसे में काम बटने की बजाय बढ़ जाता है तो चिढ़चिढ़ करना स्वभाविक होता है। मैं भी तो चिढ़चिढ़ करती हूँ ना। पहले पूरा समय स्कूल में निकल जाता था।अब रिटायरमेंट के बाद घर में फालतू बैठे रहो तो बेकार की बातें सोचने में आती है। स्कूल में तो हम आपस मे बातें साझा कर लिया करते थे..अब क्या दूसरो के घर बैठने जाओ?"
उस दिन मम्मी का तर्क मुझे सोचने पर मजबूर कर गया था ! मैंने खुद देखा था, आंटी कैसे भागमभाग में रहती थी। शाम को आती तो थकान नज़र आने लगती चेहरे पर।
काम वाली बाई भी लगाओ तो उस पर भी ध्यान देना जरूरी। नही तो एक काम करे और चार काम बढ़ा जाए।

उस दिन राखी की खरीदारी करने जब मार्केट जा रही थी, तब प्रशांत भैया से बात हुई थी। उस दिन बातो ही बातो में भैया ने कहा,"आजकल ये मोबाइल जितना अच्छा है, उतना ही दुखदाई हो गया है। " फिर मुझे सलाह देकर बोले थे,"इस मोबाइल पर ही मत लगी रहना ससुराल में ! वैसे तो आंटी बहुत अच्छी हैं, तेरी गृहस्थी में दखलंदाज़ी नही देंगी...लेकिन तू फिर भी उनसे सलाह मशविरा मत लेना कभी भी।" उस समय तो मैं मुस्कुराकर आ गयी। मेरे मन मे तब यही चल रहा था कि,"लड़को को सिर्फ अपने माता-पिता की फिक्र होती है। लड़कियां अगर अपने पैरेंट्स से सलाह ले ले तो कौन सी बड़ी बात हो गयी? अगर पैरेंट्स ने सलाह दे भी दी तो कौन सा ये लोग उसे मान ही लेंगे..?" लेकिन भैया की कही एक बात पर मैं भी सहमत थी।। जब उन्होंने कहा था कि,"बेटी और बहू में बहुत अंतर होता है। कुछ बेटियों को जब मां-बाप डांटते हैं ना, तब वे एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देती हैं। उसका ज़िक्र किसी से नही करती। और अगर करें भी, तब भी कोई उनकी बात को इतना महत्व नही देता बल्कि हंसकर , समझाकर टाल देते हैं। लेकिन ससुराल में किसी ने कुछ कह दिया तो बहुये दोनो कानो से सुनकर, मोबाइल पर मायके वालों से सब बक़ देती है। और जप माँ-बाप, परिवार, रिश्तेदार, पड़ोसी बेटियों की बातो को हंसकर टाल जाते है , अनदेखा कर देते है ...वही लोग बहुओं की बात को पूरा बढाचढाकर पेश करते है और तुरन्त एक्शन लेने के लिए भी तैयार रहते हैं !!"

घर आकर मैंने मम्मी को भैया की ये बात बताई तो मम्मी ने बताया कि भैया पत्नी पीड़ित है । जानकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआकी भैया तो इतना प्यार करते हैं भाभी सर फिर भी? तब मम्मी ने बताया की भाभी और उनके मायके वाले काफी समय से भैया पर दवाब बना रहे है अलग होने के लिए ! उन्हें यहां नही रहना! क्योंकि प्रखर भैया ने भी इंदौर में लव मैरिज कर ली थी और अपनी पत्नी के साथ वही रहने लगे थे। छोटी भाभी भी वहीँ पर भैया के साथ काम करती थी। इस बात पर सरिता भाभी भी ज़िद करने लगी थी कि हम भी अलग रहेंगे। माता-पिता सिर्फ हमारे थोड़े ही हैं। उन्हें भी ध्यान देना चाहिए था ! प्रखर भैया तो इंदौर में एक प्राइवेट कम्पनी में काम करते थे लेकिन प्रशांत भैया के पास तो ना सरकारी और ना ही प्राइवेट जॉब थी। वे तो कंस्ट्रक्शन का काम देखते थे। उनके पुरखो का बनाया हुआ काम और नाम था...जिसका फायदा उन्हें अपने काम मे मिलता था। लेकिन काम कभी मिलता कभी नही। इसलिए वे अलग होने के डरते थे कि अभी तो पापा-मम्मी सब सम्भाल रहे हैं, अगर अलग हो गए तो कैसे काम चलेगा? लेकिन तब भी भाभी का तर्क होता कि मैं जॉब कर तो रही हूँ।
भाभी और उनके मायके वालों के बढ़ते दवाब के चलते भैया तनाव में आ गए थे। भाभी गुस्से में मायके चली गयी। चार-पांच महीने हो गए थे आने का नाम ही नही था!

रक्षाबंधन के दो दिन पहले प्रशांत भैया को अटैक आया था। उन्हें जब हॉस्पिटल लेकर जा रहे थे, तभी एक ओर साइलेंट अट्रैक उठा...जिसने भैया को हमसे छीन लिया।
बेचारे अंकल-आंटी की हालत खराब हो गई थी। जिस उम्र में बच्चे माता-पिता को अग्नि देते हैं, उस उम्र में उन्हें बेटे की अर्थी देखना पड़ रही थी।
भाभी उस दिन अपने मायके वालो के साथ आई थी। सब की सहानुभूति थी उनकी तरफ। सबका एक ही कहना था..".बेचारी की पूरी ज़िंदगी बर्बाद हो गई। बेटे को कैसे पालेगी? बेटे कितने छोटे हैं अभी तो? सब कैसे होगा?"
और भी बहुत कुछ कहते रहे लोग। अगले दिन ही भाभी की मम्मी ने उन्हें अपने साथ वापस लेकर जाने का कह दिया। पहले तो सब लोग सन्न रह गए सुनकर। लेकिन फिर उनकी मम्मी ने तर्क दिया,"बच्चे यहां रहेंगे तो पापा को याद करेंगे। सरिता को भी हम सँभाल लेंगे!"

आंटी ने भी मूक स्वीकृति दे दी थी। इसके बाद सरिता भाभी सीधे भैया की तेरहवीं पर आई थी। उसके बाद जो गयी लौटी ही नही। आंटी जरूर बच्चो से बात करने के लिए सम्पर्क कर लिया करती थी।

लगभग तीन साल बाद पता चला था कि भाभी की दूसरी शादी कर दी है उन के घरवालो ने। जब मैं मायके पहुंची तब आंटी को देखकर बहुत दुख होता। समय से पहले बुढापा आना किसे कहते हैं, ये मैंने उन्हें देखकर ही जाना!
रोज़ घर के सामने से निकलती वो...ना किसी से बातें करना , ना ही मुस्कुराना। बस अब ज़िन्दगी के दिन काट रही हो जैसे। मैं जब अपनी उम्र की लड़कियों से, भाभियों से मिलती तो उन सबको भाभी से सहानुभूति होती और जब मम्मी से, पड़ोस की आंटी से मिलती तो उन्हें आंटी से सहानुभूति होती कि बेटा तो गया ही उसका अंश भी नही मिला !
बहुत दुख होता था मुझे...लेकिन मैं ये भी जानती थी कि कौन भी माँ अपने बच्चो से कैसे अलग रह सकती है?
भाभी ने बच्चो को यहां इसलिए नही छोड़ा था कि उन्हें डर था, कहीं बच्चो के मन मे उनके खिलाफ और उनके परिवार वालो के खिलाफ नफरत न भर दे वे लोग।



आज जब इतने सालों बाद भाभी को देखा तो उन्होंने कोशिश तो बहुत की खुद को खुश दिखाने की...लेकिन फिर भी उनके चेहरे पर वो रौनक नही नज़र आई जो प्रशांत भैया की पत्नी के तौर पर भी। चाहे भैया के यहाँ उनके झगड़े हुए, कमी में उन्होंने गुजारा किया...लेकिन प्रशांत भैया ने उनके लिए कोई कमी नही छोड़ी थी ! लेकिन आज इतने रइस परिवार की बहू होने के बाद भी रिक्तता थी उनके चेहरे पर।
मुझे भाभी की नई ससुराल की जानकारी मिलती रहती थी कि पहली पत्नी का प्रसव के दौरान निधन हो गया था। पहले की एक बेटी थी उनकी। फिर दूसरी शादी सरिता भाभी से हुई। आज भी भाभी के ससुराल वालो का अपनी पहली बहु के मायके से पूरा सम्पर्क है। बच्ची को उसकी नानी के घर लेकर जाया जाता है...लेकिन भाभी का उनके मायके आना बहुत कम हो गया था। ऐसे में ससुराल से सम्पर्क कैसे रख सकती थी वे?

वास्तव में अगर मैं कहूँ न तो पहले मुझे आंटी की गलती नज़र आती थी...क्योंकि " सास " शब्द की एक नकारात्मक छवि बनी हुई थी दिमाग मे।चाहे सास अच्छी भी मिल जाये, तब भी हम उसमे बुराई ढूँढे बिना नही मानते!! कुछ हमारी मानसिकता भी वैसी ही बन जाती है।
पहले मुझे बि अपनी सास नही सुहाती थी, लेकिन मेरी खुद की माँ जब बहु की सास और जो रोकटोक मेरी सास मुझपर लगाती थी, वही रोकटोक मम्मी भाभी पर लगाने लगी तब मुझे समझ आया...."ये महिलाओं का प्राकृतिक गुण होता है शायद। उनका नारी स्वभाव...जो अलग-अलग सम्बन्ध के लिए अलग-अलग भाव मे प्रकट होता है। बेटी के लिए अलग, बहु के लिए अलग, बहन के लिए अलग।
बस उसी दिन से मैंने अपना नजरिया बदल लिया। अगर अब सासु माँ रोकटोक करती या बेवजह डांटती भी थी तो मैं खामोश रह जाती। फिर वे इसे मेरी ढिठाई समझें या कुछ और...मुझे कोई मतलब नही था। क्योंकि मेरे पति को नज़र आता था कि मैं उनकी माँ को पलटकर जवाब नही देती। और वे खुश रहते मुझसे। जब मैं अपनी मां के बारे में नही सुन सकती तो वे भी कैसे सुनते??

तीन दिन बाद मैं वापस अपने मायके जाने वाली हूँ। लेकिन आज सरिता भाभी और सोनू-मोनू को देखकर मन विचलित सा हो गया। भाभी तो खुश हो भी अपने ससुराल में...लेकिन सोनू-मोनू के साथ जो भेदभाव होता है, उसके बारे में पहले भी जानकारी मिल चुकी थी मुझे। आज तो आंखों से देख भी लिया। प्रशांत भैया और आंटी कितने लाड़ से रखते थे बच्चो को...लेकिन अब तो बच्चो का बचपन नज़र ही नही आता। ऐसे बच्चे समय से पहले ही बड़े हो जाते हैं।

कल तक सबको भाभी से सहानुभूति होती थी, फिर आंटी से होने लगी....जब बच्चो को देखेंगे तो उनसे भी जताने लगेंगे। ये शायद हमारे समाज की सच्चाई है कि लोग एकतरफा फैसला लेते हैं। जिनकी बात पहले कानो में पड़ जाए, वो अधिक सच्चा लगता है।
आंटी के यहां कौन सही था? कौन नही? इसका हम सिर्फ अंदाज़ा लगा सकते हैं ऊपरी तौर पर। क्योंकि वास्तविकता से कोई अवगत नही है। लेकिन प्रशांत भैया की मौत ने मुझे अंदर तक हिला दिया था। सबको यही लगा कि उन्होने अचानक दम तोड़ा....लेकिन एक दिन जब मैं इनसे किसी बात को बहस कर रही थी तब ये ही बोल उठे थे भैया का उदाहरण देते हुए कि,"प्रशांत भैया अचानक नही मरे...घुट-घुट कर दम तोड़ा है उन्होंने। किसी दिन तुम दोनो सास-बहू के झगड़ो से तंग आकर मैं भी ऐसे ही मर जाऊंगा। बेचारे आदमी इसी लिए ज़्यादा मरते हैं अटैक से। तुम औरतें तो लड़-झगड़ के, रो के अपना मन का गुबार निकाल लेती हो हम आदमी कहाँ जाएं?"

इनका उस दिन ये सब कहा मेरे लिए कान में पिघलता शीशा डाल देने से कम नही था !! बस उसी दिन से कसम खा ली थी कि कभी अगर मेरा किसी से झगड़ा होगा भी तो इनसे नही कहूंगी। आज तो झगड़ लुंगी, लेकिन ज़िन्दगी तो इन्ही के साथ बिताना है...! औरतो की खुशियाँ उन्ही पर निर्भर करती है। जीवन मे कुछ नज़र अंदाज़ करना पड़ता है तो कुछ बर्दाश्त। लेकिन ना सबकुछ नज़रन्दाज़ किया जा सकता है और ना ही बर्दाश्त। अब ये महिलाओं पर ही निर्भर करता है कि वे समझौता करती हैं, संयम बरतती है, सहन करती हैं या सामांजस्य बैठाने की कोशिश।

*समाप्त*