Rakshabandhan.......the festival of bandhan (satire article) in Hindi Moral Stories by Dr Mrs Lalit Kishori Sharma books and stories PDF | रक्षाबंधन.......बंधन का पर्व (व्यंग लेख)

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रक्षाबंधन.......बंधन का पर्व (व्यंग लेख)

हमारा भारतवर्ष अनेक त्योहारों का देश है। यहां वर्ष के प्रत्येक महीने में कोई न कोई त्यौहार या पर्व मनाया ही जाता है । होली दीपावली गणेश चतुर्थी रक्षाबधन कृष्ण जन्माष्टमी आदि अनेक पर्व बड़े ही उत्साह एवं आनंद के साथ मनाए जाते हैं। इनमें रक्षाबंधन का पर्व एक ऐसा त्यौहार है जिसका भारतीय संस्कृति में पली हुई प्रत्येक बहन को बड़ी बेचैनी से इंतजार रहता है। वर्ष के 364 दिन वह इस त्यौहार के आने की प्रतीक्षा में बड़ी खुशी खुशी व्यतीत कर देती है। ससुराल के बंधनों में जकड़ी हुई बहन भी रक्षाबंधन के पर्व पर अपने प्यारे प्यारे भाई को रक्षा के बंधन सूत्र में बांधने हेतु बेताब रहती है। वह पलक पावडे बिछाए अपने भाई के आने की प्रतीक्षा करती रहती है।

कहते हैं रक्षाबंधन का पर्व बड़ा ही मनोहारी होता है यह भाई बहन के मधुर रिश्ते को और भी अधिक मधुर बना देने वाला होता है। पर सच मानिए 21वीं सदी के इस स्वतंत्र भारत में यदि आप हमसे पूछे हैं तो हम तो यही कहेंगे के जिस पर्व के नाम में ही बंधन शब्द लगा हो वह भला कैसे मनोहरी हो सकता है? कैसे आनंददायी हो सकता है? आज के युग में भला बंधन की बात कौन स्वीकारेगा? फिर वह बंधन चाहे रक्षा का ही क्यों ना हो? भला बंधन तो बंधन ही है ।

आज का प्रगतिशील बालक जब माता-पिता के बंधन में नहीं रहना चाहता तो भाई बहन के बंधन को वह कैसे स्वीकार कर सकता है ? सच तो यह है कि आज का मानव विकास के उच्च उच्च शिखर पर पहुंच गया है जहां पर अकेला ही स्वच्छंद विचरण करना चाहता है। और इस स्वच्छंद विचरण की होड़ में वह किसी भी प्रकार का बंधन स्वीकार करने को तैयार नहीं है फिर चाहे वह विचारों की अभिव्यक्ति का वंधन हो, चाहे भाषा का बंधन हो , चाहे आज्ञा मानने का बंधन हो चाहे धार्मिक बंधन हो या अनुशासन का बंधन।

अजी आप भी यहां छोटे-मोटे बंधनों को गिन रहे हैं। हम तो इतने सभ्य हो चुके हैं कि शादी जैसे पवित्र बंधन को भी स्वीकार नहीं करते । जब चाहे तब अदालत के एक कागज पर हस्ताक्षर कर बड़ी आसानी से हम उस प्रणय सूत्र के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। आज के युग में तो धर्म, जाति, सभ्यता , संस्कृति यहां तक की प्रकृति के बंधन भी नकारा कर देना हमारा स्वभाव बन गया है।


आप सच मानिए अब वह दिन भी दूर नहीं जब बालक मां के गर्भ के बंधन को भी अस्वीकार कर देगा । नारी तो आज भी मां बनने के बंधन से मुक्त होती जा रही है केवल नारी क्यों आज तो पुरुष वर्ग भी अपने पुरुषत्व के बंधन से मुक्त रह कर ही संतान प्राप्त कर लेना चाहता है। बंधन से मुक्ति में ही जीवन का आनंद है। हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथों में ठीक ही कहा गया है कि--" सा विद्या या विमुक्तए" अर्थात विद्या वही है जो समस्त बंधनों से मुक्ति दिला दे। आज के सभ्य में मानव ने इस सद्ववाक्य की सार्थकता को भी मानव पूर्ण तरह आत्मसात कर लिया है और निरंतर वह संपूर्ण बंधनों से मुक्ति की होड़ में लगा हुआ है।

हां! यदि आप चाहे तो आप भी संपूर्ण बंधनों से मुक्त हो सकते हैं जैसे पड़ोसी से मेल मिलाप बनाए रखने का बंधन, रिश्तेदारों से रिश्ता निभाने का बंधन, बेटा बेटी के प्रति पितृत्व का कर्तव्य पूर्ण करने का बंधन, पति पत्नी के बीच भावनात्मक संबंध बनाए रखने का बंधन, आदि अनेक प्रकार के बंधनों से आप मुक्त हो सकते हैं। ओह ! एक बात तो हम भूल ही गए कि आप प्रेम में भी बंधन को स्वीकार करना पसंद नहीं करते, क्योंकि आप प्यार का आनंद तो लेना चाहते हैं परंतु उस प्यार को किसी रिश्ते के पवित्र बंधन में बांधना नहीं चाहते । किसी ने सच ही तो कहा है

उस सिंह से शूकर सुखी
जो घूमता स्वच्छंद है।

यदि स्वच्छंद होकर शूकर भी सुखी है तो बंधन रहकर सिंह बनने से भी क्या लाभ है? क्योंकि हम सुख ढूंढने की आपाधापी मैं ही तो लगे हुए हैं ।

वास्तव में बंधन हीन होना भी कितना आनंददायी होता है । संसार के अनेकानेक बंधनों में बंधी बहना रक्षाबंधन के पर्व पर अपने सबसे प्यारे भाई को रक्षा सूत्र में बांध के समय यह क्यों भूल जाती है कि किसी भी प्रकार का बंधन उसके भाई को कष्ट में डाल सकता है। भाई भी इस रक्षा सूत्र के बंधन के साथ ही, बहन की रक्षा करना, ससुराल के बंधनों से मुक्ति दिलाना, बहन की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति करना, बहन के पुत्र प्राप्ति पर पंच देना, बहन की बेटी की शादी में भात भरना आदि अनेकानेक बंधनों के बंधन से भी बन जाता है । जो उसे इस रक्षा सूत्र की लाज निभाने के लिए करने पड़ते हैं और वर्तमान में बढ़ती हुई महंगाई की जंजीरों में बना हुआ मानव यह सोचने पर बाध्य हो जाता है कि काश ! यह रक्षा का बंधन मेरे हाथ में न बधा होता तो मैं भी इन अनेकानेक कार्यों के बंधनों से मुक्त हो गया होता। इन्हीं कारणों से वर्तमान के स्वार्थ पूर्ण समाज में जहां प्रेम और आत्मीयता के रिश्तो का महत्व समाप्त प्रायः हो गया है वहां रक्षाबंधन जैसा पर्व भी मात्र--- बंधन का पर्व बनकर रह गया है


इति