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मुक्ता को अस्थमा था अत: वह बहुत अधिक काम नहीं कर पाती थी | हाँ, अपनी देख-रेख में उन कैदियों से काम करवाती रहती थी जिन्हें घर में आने की आज्ञा थी, उन सबका लीडर रौनक था | उसने अपने मधुर व्यवहार से सबका मन जीत रखा था | मालूम नहीं उससे कैसे इतना बड़ा अपराध हो गया था ? जितना समिधा अभी तक रौनक को समझ सकी थी, उससे वह यह तो समझ गई थी कि मूल रूप से रौनक अपराधी प्रवृत्ति का नहीं था | तब क्या भूख ही उसके अपराध की जिम्मेदार थी ?
मुक्ता इन दोनों महिलाओं के साथ अपना कुछ समय बिताना चाहती थी, कुछ ‘क्वालिटी-टाइम’!परंतु समिधा को उलझन में देखकर उसने एक-दो बार कहकर चुप्पी साध ली | उसका बस चलता तो वह इन दोनों को अपने पास से क्षण भर को भी हटने न देती | मुक्ता को दोनों स्त्रियों में वह अपनत्व मिला था जिसके लिए वह वर्षों भटकती रही थी | उसकी ज़िंदगी भी वहाँ के कैदियों की भाँति ही जैसे किसी कैदखाने के सींकचों में बंद होकर रह गई थी | वह खुलकर साँस लेना चाहती थी |
इन दोनों महिलाओं से मिलने के बाद उसके मायूस चेहरे पर मुस्कान दिखाई देने लगी थी | लेकिन समिधा का इस समय रुकना कठिन था | उसका चेहरा कुछ और ही कहानी बयान कर रहा था जिसे पुण्या के साथ मुक्ता ने भी समझा था और स्वयं ही बोली थी ;
“थक गई हैं दीदी ।आपकी ज़रूरत का सब सामान रखवा दिया है, आप लोग आराम कीजिए, कल मिलते हैं | ”
कुछ ही देर में सब अपने-अपने दड़बे में लौट गए | अगले दिन सुबह फिर काम पर लग जाना था | पुण्या और समिधा उस बँगले में आ गईं जिसकी व्यवस्था उनके लिए की गई थी | समिधा ने अपने बैग को पलंग पर ही एक ओर रख दिया और स्वयं को बिस्तर पर फेंक दिया |
“नहा-धोकर फ़्रेश हो जाइए दीदी –फिर अच्छी नींद आएगी | ”
“पहले तुम फ़्रेश हो जाओ| ”और आँखों पर तकिया रखकर लेट गई |
ज़िंदगी की खिड़की से झरती भूत की धूप-छाँव में उसकी आँखों की बंद पुतलियाँ इधर-उधर डोलने लगीं | मन के भीतर कुछ उमड़ने लगा | न जाने कब उसकी निर्जीव सी ऊँगलियाँ पुराने अधफटे पृष्ठों को पलटने लगीं | शिथिल शरीर न जाने कैसे वर्षों से छूट गई पुरानी गलियों में पहुँचकर चेतन हो उठा |
किन्नी और उसकी मार-पिटाई, बीबी का भैंस के नीचे बैठकर दूध निकालना, मास्टर जी का किन्नी, सिम्मी और मुन्नी जीजी को पंक्ति में बैठाकर पढ़ाना, निन्नू का दरवाज़े की ओट से झाँकना! सब कुछ उसे खींचकर वर्षों पुरानी गहरी खाई में ले गए | बंद आँखों की कोरों से न जाने कब आँसू सरककर उसके कपोलों से फिसलते हुए आँखों पर रखे तकिये में समाने लगे, उसे स्वयं भी इसका एहसास नहीं हुआ |
इस समय समिधा उत्तर-प्रदेश के एक छोटे से शहर में विचरण कर रही थी जहाँ से उसका निकास हुआ था | वह हर पल अपनी माँ और उस भूमि का शुक्रिया अदा करती रही है जिन्होंने उसे जन्म देकर उसके भीतर संवेदनाएँ भरी थीं | उसे मानसिक संतुलन तथा समझ दी थी कि वह जीवन में कुछ सही सोच सके, कुछ रचनात्मक कर सके, न कि अपने जीवन को केवल आयाराम-गयाराम की भाँति गुज़र जाने दे |
वह नहीं जानती कि कोई दूसरा जन्म होता भी है या नहीं लेकिन ‘एक सही इंसान ‘बनने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, कितना संतुलित होना पड़ता है, कितने समन्वय से कम लेना होता है, कितने अहं की छटनी करनी पड़ती है –पूरी उम्र गुज़र जाती है –फिर भी सही इंसान होने में कुछ तो खामी रह ही जाती है |
हाँ, कोई भी मानव संपूर्ण नहीं है –वह मानव है इसीलिए क्रोध, अहंकार, लालसा, प्रेम, ईर्ष्या, मान-अपमान सब कुछ उसके भीतर निहित है | पर—कुछ क़दम तो बढ़ें --‘सही मनुष्य’ बनने की दिशा में | अतीत की गलियों में उतरते ही उसे अचानक माँ याद आने लगी थीं |
गलियाँ थीं कि सँकरी होती जा रहीं थीं जो उसके विदग्ध मन को कभी निरे अंधकार में घसीट ले जातीं तो कभी उनमें प्रकाश का जुगनू टिमटिमाने लगता |
“तू क्या कर रही हैं यहाँ ? ”न जाने कहाँ से किन्नी टपक पड़ी थी |
“मैं –ही—ही—ही—“उसने व्यर्थ में ही दाँत निपोरे, चोरी पकड़ी गई थी | ’क्या कहूँ ? ’सोचने में समय तो लगता ही है |
“मैं तो कुछ भी नहीं –बस, यूँ ही –“, उसे मालूम था वह किन्नी से कभी कुछ भी नहीं छिपा सकती थी | बेवकूफ़ तो हरगिज़ नहीं बना सकती थी |
“तू चल ज़रा घर, बताती हूँ तुझे –बदतमीज़ कहीं की –“उसने सुम्मी का कान कसकर उमेठ दिया था, इतनी ज़ोर से कि मुँह से ‘उई’निकलने पर उसका चाट का दोना हिल उठा, फिर भी वह उसे कसकर पकड़े ही रही |
“वैसे तू बता, तू क्या करने आई थी यहाँ ? ”सुम्मी ने कान छुड़ाने की चेष्टा करते हुए उसीका प्रश्न उसी पर दागने की कोशिश करते हुए उससे पूछा और कान छुड़ाकर भागने की चेष्टा की |
इतना आसान था क्या किन्नी से पीछा छुड़ाना ? भैंस के थन से सीधे मुँह में दूध की धार पी जाने वाली पक्की जाटनी –बामन कन्या को कैसे भागने दे सकती थी ? भाग-दौड़ में चाट का दौना सुम्मी के हाथ से नीचे गिर पड़ा और उसकी आँखों में से गुस्से भरे हुए आँसू निकल टपकने लगे |
“दुश्मन कहीं की “उसने दुखी होकर कहा |
“मैं हूँ तेरी दुश्मन कि तू ही अपनी दुश्मन है --? और तू अपनी भी क्या मौसी जी की दुश्मन है --!करेगी तू खौं-खौं, परेशान होंगी मौसी जि बेचारी –मुझे क्या, मर –शरम तो है नहीं तुझे !उधर दिल्ली में डॉक्टर से तेरे ऑपरेशन का टाइम ले रखा है| मौसी जी बेचारी अपना काम संभालें कि तेरी पहरेदारी करें –इधर तू चाट के दौने चाटती फिर—मुझे क्या ? ”किन्नी ने कंधे उचके और बड़बड़ करती हुई अपने घर की ओर मुड़ गई |