अध्याय तीन
पति परमेश्वर नहीं होता
इंसान की फितरत नहीं बदलती, यह सुना तो था पर इसका सबसे बड़ा उदाहरण तुम निकलोगे, यह नहीं जानती थी | हाँ, किशोर तुम !तुम मेरे पति थे | हाईस्कूल में ही हमारी शादी तय हो गयी थी | मैं इस शादी के बिलकुल खिलाफ थी, पर उन दिनों लड़कियों की आवाज दबा देने का प्रचलन था| मैं हमेशा से अपनी उम्र से ज्यादा गंभीर रही थी | लड़कों से तो मेरा जैसे छठी का आकड़ा था | कक्षा में हमेशा सबसे आगे रहती | सादा जीवन उच्च विचार को मैंने कम उम्र में ही जीवन में उतार लिया था | यही कारण था कि कॉलेज के बदमाश लड़के भी ‘पढ़ाकू शरीफ लड़की’ कहकर मेरा सम्मान करते | मेरा लक्ष्य था खूब पढ़-लिख कर बड़ी लेखिका बनना| पैसा कमाना मेरा उद्देश्य न था और न ही भोग-विलास की जिंदगी मुझे चाहिए थी | मैं सम्मान और प्रतिष्ठा के साथ जीना चाहती थी और इसके लिए शिक्षा ही मुझे एकमात्र राह दिखती थी पर मेरे घर की परिस्थितियाँ शिक्षा के अनुकूल नहीं थी | नौ भाई-बहनों का बड़ा-सा परिवार और छोटी-सी मिठाई की दुकान आमदनी का एकमात्र श्रोत था | पिता शुगर के मरीज, जिनकी बीमारी लाइलाज हो चुकी थी | कुल-खानदान और जाति-बिरादरी में लड़की की पढ़ाई का मतलब चिट्ठी-पत्री तक सीमित होना था | आठवीं पास करते ही लड़की का विवाह न करने पर गाँव-मोहल्ले, नात- रिश्तेदारों से हड़कंप मच जाता था | इसे लड़की के चरित्र और अयोग्यता से जोड़ा जाने लगता था | मेरी दीदी का विवाह आठवीं कक्षा पास करते ही हो गया था | हाईस्कूल की परीक्षा तो उन्होंने नौ महीने के गर्भ के साथ दी थी और फिर पढ़ाई से तौबा कर ली थी |
अब मेरी बारी थी हाईस्कूल की परीक्षा देते ही विवाह कर देने की बात थी | मेरी बात कोई नहीं सुन रहा था | माँ ने तो साफ कह दिया –शादी बाद पढ़ती रहना आखिर वह भी तो पढ़ेगा | तुम यहाँ रहकर पढ़ना वह अपने घर रहकर पढ़ेगा |
‘तो फिर शादी की जरूरत क्या है ?जब यहीं रहकर पढ़ना है | शादी बाद पता नहीं पढ़ने में मन लगेगा या नहीं | दीदी को देखो | -मैंने तर्क दिया |
-अरे दीदी का खुद का मन नहीं था | तुम्हारे जीजा जी तो चाहते ही थे कि वह उनके घर रहकर पढ़े |
बात सही भी थी | दीदी की पढ़ाई में कभी रूचि नहीं रही पर मैं तो बिना पढ़े जी ही नहीं सकती थी | जब मैं नहीं मानी तो माँ ने अपनी विवशता सामने रखी कि तुम्हारे बाद भी चार बहनें हैं, पिताजी का कोई ठिकाना नहीं | दहेज देने की हैसियत नहीं | ऐसे में देखने-सुनने में अच्छा और अपनी जाति-बिरादारी का लड़का बिना दहेज लिए खुद शादी का प्रस्ताव रख रहा है ।उसने अपने घर वालों को राजी करने का जिम्मा भी लिया है तो विवाह कर लेने में बुराई क्या है ?
दीदी भी तुम्हें देखकर ‘हाँ’ कर चुकी थी | उन्हें तुम्हारा उठना-बैठना, हँसना-बोलना सब फिल्मी हीरो की तरह लगता था | जीजा जी सीधे और साधारण थे और दीदी फिल्मों और फैशन की दीवानी | उन्होंने मुझसे साफ कह दिया -अपना भाग्य मानो कि हीरो जैसा लड़का मिल रहा है | वह भी तुम्हारे जैसी साँवली व साधारण लड़की को | पता नहीं क्या देखकर रीझ गया ?
दीदी ने मुझे कभी पसंद नहीं किया | उन्हें अपने अतिरिक्त गौर वर्ण के आगे मेरा खिला हुआ गेंहुआ रंग काला लगता था | मेरा पढ़ना-लिखना, कविता-कहानी लिखना भी उन्हें पसंद नहीं था | जेवर-कपड़े, गहने और शानो-शौकत से जीने में उनका विश्वास था | वे न मोटा खा सकती थीं, न पहन सकती थीं | ईश्वर ने उन्हें राजरानी –सा रूप दिया था तो ससुराल में भी राजसुख दे दिया | अपने ससुराल में वह महारानी -सा जीवन जी रही थीं पर हीरो जैसे वर की उनकी आकांक्षा पूरी नहीं हुई थी |
जबकि मुझे हीरो जैसे लड़के अच्छे नहीं लगते थे | मेरा आदर्श राम जैसा धीर-गंभीर पुरूष था | मैंने जब भी अपने राजकुमार के बारे में सोचा था तो राम जैसा पुरूष ही सामने आया पर तुम्हारा हरदम दाँत दिखाना मुझे अच्छा नहीं लगता था | बात पक्की होते ही तुम अपने घर बिहार चले गए और मुझे लगभग हर रोज ही चिट्ठी लिखने लगे | कुछ दिनों बाद मुझे दिखाने अपनी माँ को लेकर आए फिर पिता और भाई को | पता चला कि अपने घर वालों को राजी करने के लिए तुमने जान देने की धमकी दी थी | दो भाई –बहनों के बीच तुम सबसे छोटे और माँ-बाप के लाड़ले थे साथ ही जिद्दी भी इसलिए घरवालों को राजी होना ही पड़ा |
अपने घर की स्थिति को देखते हुए मुझे अपने मन को मनाना पड़ा | मैंने अपने सपनों के राजकुमार को तुममें देखने की कोशिश शुरू कर दी | वैसे भी बचपन से ही माँ ने सतियों को कहानी सुनाकर मुझमें उसी तरह के संस्कार भर दिए थे | मैं भी मानती थी कि पति ही परमेश्वर होता है ...उसकी 'हाँ' में 'हाँ' मिलाना ही पत्नी का धर्म होता है |
मेरे घर वाले तुम्हारा घर-परिवार भी देखने नहीं गए, न तुम्हारे बारे में कुछ पता करने की जरूरत ही समझी | तुम्हारे भरोसे ही सब छोड़ दिया | शादी के बाद पता चला कि तुम्हारे माता-पिता में अलगाव था | तुम अपनी एक बहन के साथ पिता के घर रहते थे और तुम्हारा बड़ा भाई दूसरी बहन के साथ माँ और नाना के घर | तुम्हारे नाना बिहार के एक कस्बे के जाने-माने पहलवान थे और उन्हें सरकार की ओर से दो ज़मीनें इनाम में मिली हुई थी | जिसमें एक पर घर बनवाकर तुम्हारी माँ रहती थी | तुम्हारे नाना की मृत्यु के बाद तुम्हारी माँ ने छोटा-मोटा बिजनेस करके बच्चों को पाला | उनके साथ रहने के कारण तुम्हारे बड़े भाई पढ़-लिखकर इंजीनियर बन गए और बहन पत्र-लेखन भर की शिक्षा पाकर ससुराल चली गयी | बिहार में उन दिनों लड़कियों के पढ़ने-लिखने का आम चलन नहीं था इसलिए तुम्हारे भाई साहब की शादी एक अनपढ़ लड़की से हो गयी |
तुम पिता के लाडले थे इसलिए उदण्ड और स्वेच्छाचारी हो गए थे | पढ़ाई में मन न लगाने के कारण तुम दसवीं में फेल हो गए तो घर से भागकर यू पी में स्थित मेरे कस्बे में आ गए | मेरे घर के सामने तुम्हारी एक रिश्तेदारी थी | यहीं पर तुमने मुझे पहली बार देखा और दीवाने हो गए | मैं छत पर जाती तो तुम अपनी छत पर चढ़ जाते | गली में निकलती तो उधर आ जाते | मेरा अपने बरांडे में खड़ा होना भी मुश्किल कर दिया था तुमने | मुझे देखते ही दाँत निपोर देते और मैं झल्लाकर रह जाती | मैं उस वर्ष दसवीं में गयी थी और पढ़ाई में खूब मन लगाती थी |
तुम देखने में अच्छे और मेरी ही जाति के थे इसलिए मेरी माँ की नजर भी तुम पर पड़ी | तुम माँ और दीदी दोनों को भा गए | तुमने माँ के विवाह-प्रस्ताव को खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया और उन्हें आश्वस्त किया कि तुम अपने घर वालों को इस विवाह के लिए मना लोगे | तुम मुझसे एक तरफा प्रेम करने लगे थे और हर हाल में मुझे पाना चाहते थे | मैं इन अयाचित परिस्थितियों से घबरा रही थी | मैं तुमसे प्रेम नहीं करती थी वैसे भी माँ के दिए संस्कार के अनुसार लड़की को विवाह से पूर्व किसी से प्रेम नहीं करना चाहिए | विवाह के बाद भी सिर्फ और सिर्फ पति से प्यार करना चाहिए, चाहे वह जैसा भी हो | जब तुमसे मेरा विवाह तय हुआ तो मैंने विरोध करना चाहा कि मैं तुम्हें पसंद नहीं करती | तुम मुझे जरूरत से ज्यादा चंचल और अस्थिर चित्त लग रहे थे |
पर उन दिनों मेरे घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी | पिताजी बीमार रहने लगे थे जिसके कारण भाई ने उनकी मिठाई की दुकान संभाल ली थी | आय कम थी और नौ भाई-बहनों का बड़ा परिवार | मैं दूसरे नंबर पर थी |
इसलिए घर की परिस्थितियों और माँ की मजबूरियों ने मुझे ‘हाँ’ कहने के लिए विवश कर दिया और मैंने अपनी सोच की दिशा तुम्हारी तरफ मोड़ दी | तुम मुझे रोज पत्र लिखते ...कहीं अकेले में मिलने का आग्रह करते और मैं हर बार यही जवाब देती कि विवाह से पहले लड़की को लड़के से नहीं मिलना चाहिए | तुम मेरी बात पर रीझ जाते थे | शादी के बाद तुमने बताया कि तुम मुझे 'चेक' करने के लिए यह आग्रह करते थे | तुम्हारे हिसाब से लड़की चरित्र से मजबूत होगी तो मंगेतर के बुलावे पर उससे मिलने नहीं जाएगी | कैसी सोच थी यह तुम्हारी ?तुम्हारे हिसाब से तो अमर प्रेम- कहानियों की सारी पात्राएँ चरित्र-हीन साबित हो जातीं | मैं तो तुमसे इसलिए नहीं मिलने जाती थी कि मैं कस्बे की कूपमंडूक लड़की थी और माँ के दिए सती-संस्कारों में पली-बढ़ी थी | तुम मुझे अपने पत्रों का जवाब देने को कहते पर मैं नहीं देती थी | जब तुमने जिद की तो एक-दो पत्रों का जवाब दिया पर पूरे संयम के साथ ताकि कभी बात बिगड़े भी तो तुम पत्रों के हवाले मुझे बदनाम न कर सको | मैं आजकल की लड़कियों की तरह न तो बेसब्र थी न आजादी- पसंद |
ज्यों-ज्यों मेरी शादी के दिन नजदीक आ रहे थे मेरी उलझनें बढ़ती जा रही थीं | दहेज की सामग्री इकट्ठी की जा रही थी | तुम्हारे घर वालों की तरफ से कुछ नगद दहेज की मांग भी की गयी थी, ताकि वे मेरे लिए जेवर ला सकें | दीदी की शादी में एक पैसा भी दहेज नहीं लगा था क्योंकि अपने घर के मालिक जीजा खुद थे | जीजा जी अपने पिता की मृत्यु के बाद अपने छोटे दो भाइयों, बड़ी विधवा बहन और माँ की जिम्मेदारियों से लद गए थे, इसलिए उन्होंने खुद विवाह न करने का निर्णय लिया था | उन्होंने भाइयों को पढ़ाया और उनका अपना बिजनेस सेट करने में मदद की | उनके लिए अलग-अलग घर भी बनवा दिया और अब उनकी शादी करवा रहे थे | मँझले भाई की शादी फिक्स हो गयी तो छोटे भाई के लिए दीदी को देखने आए थे पर भाग्य को कुछ और ही मंजूर था |
दीदी मांगलिक थीं इसलिए छोटे भाई से उनकी कुंडली नहीं मिली| यह देखकर लजाते हुए जीजा जी ने अपनी कुंडली सामने रख दी | वे भी मंगली थे | उनके साथ दीदी की कुंडली मिल गयी | वैसे यह विवाह अनमेल था | जीजा जी उमर में दीदी से ज्यादा बड़े थे पर अमीर भी थे | उन्होंने इतनी धूमधाम से शादी की कि सब देखते रह गए | वे इतने जेवर व कीमती कपड़े लाए कि पूरे कस्बे में इसकी चर्चा होने लगी | कुछ जलने वालों ने तो यह अफवाह उड़ा दी कि लड़की को बेचा गया है | माँ यह सुनकर बहुत दुखी हुई थी | वह गरीब थी पर बेटी बेचने की बात तो वह सपने में भी नहीं सोच सकती थी | जीजा उम्र में दीदी से बड़े जरूर थे पर बूढ़े नहीं थे | दीदी भी खूब लंबी-चौड़ी थी इसलिए दोनों साथ ठीक लगते थे |
वैसे भी दीदी जीजा को पाकर बहुत खुश और संतुष्ट थी | विवाह के बाद वह मायके आना ही नहीं चाहती थी | उसका राजरानी की तरह रहने का सपना पूरा हो गया था | वह अब अपने सारे शौक पूरा कर रही थी| वह जब मायके आती तो मेरे लिए खूब अच्छे-अच्छे कपड़े लाती | मेरे विवाह की तैयारी में भी दीदी और जीजा जी का बड़ा सहयोग रहा |
मेरी बारात आई | रश्में होने लगीं | तब पता चला कि तुम लोग कोई जेवर नहीं लाए हो | सबके अनुसार दहेज लेकर भी जेवर न ले आना गलत था | मेरी तरफ की औरतें तुम्हारे घर वालों को बुरा-भला कह रही थीं | उन्हें दरिद्र ...भिखमंगा तक कहा जा रहा था ...दीदी भी उन औरतों में शामिल थी| मुझे यह सब अच्छा नहीं लग रहा था | तुम्हारी शर्मिंदगी मुझे आहत कर रही थी | मुझे जेवर -कपड़े कोई ऐसी अनिवार्यता नहीं लग रहे थे, जिसके लिए किसी की इतनी लानत-मलामत की जाए | दहेज भी तो ऐसा कोई खास नहीं दिया गया था कि जेवर की मांग की जाए | इसलिए मैंने संकोच छोड़कर औरतों से कह दिया कि कृपया उन लोगों को कुछ मत कहिए | मुझे गहने नहीं चाहिए | जेवर का मुझे कोई विशेष शौक नहीं है | तब सभी औरतें मुझे कोसने लगीं कि बेशर्मी से ससुराल के पक्ष में बोल रही हूँ | किसी तरह शादी सम्पन्न हुई | शादी बाद ही मुझे सवा महीने के लिए ससुराल भेज दिया गया ताकि गौने का खर्च बच जाए | मेरी गर्मी की छुट्टियाँ थीं, इसलिए कोई रूकावट भी नहीं थी |
मैं शादी की रश्म-रिवाजों से थक गयी थी | मेरा स्वास्थ्य भी ठीक नहीं था | एक नयी दुनिया में प्रवेश की चिंता, जिम्मेदारियों का एहसास भी मुझे परेशान कर रहा था | मैं तुम्हें अच्छी तरह जानती नहीं थी और तुम्हारे साथ ही मुझे नए जीवन में प्रवेश करना था | तुम्हारा स्वभाव भी मुझसे अलग था | पता नहीं तुम्हारे घरवाले कैसे होंगे ?इन्हीं चिंताओं में मैं सूखकर कांटा हो गयी थी | विवाह का रोमांच...रोमांस मुझसे कोसों दूर था | आखिर पंद्रह वर्ष की पढ़ाकू लड़की को दुनियादारी का कितना पता होता !
ट्रेन ....बस ... नाव फिर बस की यात्रा करके मैं ससुराल पहुंची | मैं बेतरहा थकी और उदास थी | तुम साथ बैठे मुझे छूने का प्रयास करते और मैं खुद में और सिमट जाती | मुझे बहुत बुरा लग रहा था कि सबके बीच भी तुम अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे थे | सात हाथ के घूँघट में न होती तो तुम मेरे मनोभाव ताड़ जाते |
ससुराल जैसे एक नयी दुनिया थी | भयंकर गर्मी ...न बिजली न पंखा ...खपरैल की छत ...मिट्टी के गिलावे से जुड़ी ईंट की दीवारें और कच्चा फर्श | तीन कमरे थे | एक बड़े कमरे में जेठानी रहती थी बाहर के छोटे कमरे में तुम पढ़ते थे | एक कमरा जो पहले सास का था, उसी में मुझे ठहराया गया | मैं सब कुछ देखते हुए भी जैसे कुछ नहीं देख पा रही थी | सुनते हुए भी कुछ सुन नहीं पा रही थी | मेरा दिल-दिमाग सुन्न हो गया था | कमजोरी की वजह से चलने-बोलने की शक्ति भी नहीं थी | दोनों बड़ी ननदों ने मुझे नयी साड़ी पहनाई....मेरे बाल बनाए और चेहरे पर क्रीम पाउडर लगाकर एक जगह बैठा दिया | रिश्तेदार औरतें...पड़ोसिनें आतीं ...घूँघट उठाकर मेरा चेहरा देखतीं और प्रशंसा करती हुई चली जातीं |
रात को मुझे फिर से सजाया गया ….मेरी सुहागरात थी | मैं उसी तरह खामोश और अपने में खोई हुई थी | तुम कमरे में कब आए और कब वापस चले गए, मुझे पता ही नहीं चला | नयी जगह होने से मुझे नींद भी नहीं आ रही थी | अजनबी लोगों में तुम ही थोड़े पहचान वाले थे | मैं सोच रही थी कि तुम आओगे तो मैं तुमसे अपने मन की बात शेयर करूंगी पर तुम नहीं आए | सिर्फ उसी रात नहीं .अगली दो रात और भी | घर में इस बात से हलचल हो रही थी कि दूल्हा दुल्हन का मिलन नहीं हुआ | | ननद जिठानी की बातचीत से पता चला कि तुम मुझसे नाराज हो – ‘पढ़ी-लिखी लड़की है तो क्या हुआ? पति कमरे में गया तो बोली नहीं | जेवर नहीं चढ़ा था, इसलिए रूठी हुई है | बड़ी घमंडी है, इसीलिए वह भी दूसरे के घर जाकर सो रहा है | वह उन लड़कों में थोड़े है जो नयी दुल्हन के आगे-पीछे घूमते हैं | ’ इन बातों को सुनकर मुझे बहुत दुख हुआ | मैं सोचने लगी कि वह लड़का जो मुझसे प्रेम का दम भरता था, अपनी मर्जी से शादी किया था, जो शादी से पहले रोज खत लिखता था ...वह मुझे बस इतना ही समझ पाया है | मेरी उदासी को घमंड समझ रहा है | मैं जेवर-कपड़ों के लिए दुखी होने वाली समझी जा रही हूँ जबकि इसके लिए मैंने अपने घर वालों को भी डांट दिया था | जब शुरूवात ऐसी है तो इसके साथ कैसे निभेगा ?इसीलिए तो मैं चाहती थी कि पहले हम बालिग हो लें ...एक –दूसरे को समझ लें फिर शादी हो, पर मेरी किसी ने नहीं सुनी |
तुमने 'बॉबी' फिल्म देखकर बॉबी जैसी दिखती मुझसे प्रेम करने लगे | पर क्या वह प्रेम था ?प्रेम की बुनियाद तो विश्वास होता है ....आपसी समझ होती है ...संवेदना होती है |
मैं दुख से भरकर रोने लगी ।आखिर मैं भी तो पंद्रह वर्ष की किशोरी ही थी| मुझे रोता देख घर में हड़कंप मच गया | उस रात तुम मेरे कमरे में आए | कमरे में अंधेरा था पर मैं जगी हुई थी | तुम आकर मेरे पलंग पर एक तरफ लेट गए | पर अपनी तरफ से न तो कुछ बोले न मुझे छूने का प्रयास ही किया | मैं समझ गयी कि इस समय तुम मनुहार करने वाले प्रेमी नहीं हो बल्कि पति-परमेश्वर के अहंकार में डूबे हुए हो | मैंने नींद में होने का नाटक करते हुए करवट बदली और अपना एक हाथ तुम्हारे सीने पर रख दिया | मेरी तरफ से पहल देखकर तुम थोड़ा पिघले और मेरे हाथ को अपने होंठों पर रख लिया | तुम मुझे छू रहे थे पर शायद स्त्री के साथ तुम्हारा भी यह पहला संयोग ही था, इसलिए तुम अनाड़ी की तरह व्यवहार कर रहे थे | उस रात हम पूरी तरह शारीरिक रूप से नहीं मिल पाए | बाद में शायद तुमने अपने दोस्तों से कुछ जानकारी हासिल की फिर हमारा मिलन हुआ |
उस रात थोड़ी देर बाद तुमने मुझे आँगन में आने को कहा | पूरे घर में सन्नाटा था वैसे भी उसी दिन दोपहर को सारे मेहमान चले गए थे | अब घर में सिर्फ जिठानी और ननदें ही थीं | तुम मुझसे बातें करने लगे ...मेरी पढ़ाई ...मेरे घर के बारे में पूछा और मेरे दुबले हो जाने पर नाराजगी जताई | तुम्हें लगा था कि मेरे घरवालों ने इस शादी को लेकर मुझे टार्चर किया है | मैं बस हाँ ...हूँ में तुम्हें जवाब देती रही, पर मुझे महसूस हो रहा था कि तुममें मेरे सपनों के राजकुमार के एक भी लक्षण नहीं है |
पर मैं खुद को समझा रही थी कि अब तो शादी हो चुकी है अब मुझे तुमसे ही प्रेम करना होगा, अपने पूरे तन-मन और भावना -संस्कार सबसे | और मैंने आखिर मन को समझा ही लिया फिर मुझे सब कुछ अच्छा लगने लगा |
झूठ नहीं कहूँगी शादी के बाद के वे सवा महीने मेरी ज़िंदगी के सबसे खुशगवार पल थे | घर के अभावों में भी मैं तुम्हारे साथ खुश थी | घर में बिजली नहीं थी | शाम होते ही हम खाना खाकर सोने चले जाते फिर बिजली की परवाह किसे थी ?सुबह ब्रश करते ही जिठानी मुझे अपने साथ जो नाश्ता कराती, वह अद्भुत था | बासी भात में नमक, सरसों का तेल और भरवा अचार का मिरचा मसल कर आम के अचार और प्याज से खाना....अहा! | हालांकि दो-चार दिन मेरे लिए बाहर से पूड़ी-जलेबी का नाश्ता आया पर जिठानी ने कहा कि अगर सेहत बनानी है तो असिया-बसिया सब खाओ और मैं खाने लगी और सच्ची उसमें मुझे अद्भुत स्वाद मिला | दुपहर में जिठानी जब भात पकाती तो उसका माँड़ थोड़े से चावल के साथ मुझे खाने को देती फिर दाल-चावल सब्जी | दुपहर का खाना खाकर हम सोने के लिए अपने कमरे में आ जाते | कमरे में एक बड़ा-सा शीशा लगा था, जिसमें हमारा पूरा बेड प्रतिबिम्बित होता | हम दोनों लेटे-लेटे उसमें घंटों खुद को देखते रहते | दोनों की जोड़ी बहुत सुन्दर दिखती | मेरी सेहत भी अच्छी हो रही थी | मैं दमकने लगी थी | अब तुम मुझे मुग्ध भाव से देखते और पड़ोसन भाभी से कहते –देखिए इसका चेहरा कितना लाल हो गया है | मैं शरमा जाती |
शाम को जिठानी भाड़ से अरवा चावल का भूजा भुनवाकर मँगवाती साथ ही भाड़ में ही भूने आलू होते ।साबुत भूनी हुई सूखी मिर्च मिलाकर आलू का सोंधा-सोंधा चोखा बनता और पूरी थाल भरकर भूजा-चोखा खाने को मिलता | रात को फिर चावल सब्जी | रोटी खाने का वहाँ रिवाज न था और चाय तो कोई पीता ही नहीं था | वे लोग कहते कि यू .पी. वाले चाय पी-पीकर भूख मार लेते हैं | पैसा बचाते हैं और शानो-शौकत से रहते हैं | मुझे उनकी ये बातें बिलकुल बुरी नहीं लगती थीं |
जून का महीना था। मानसून शुरू हो गया था | रात को हम सो रहे होते कि बारिश होने लगती | खपरैल की छत से पानी चूकर हमारे बिस्तर भिंगोने लगता तो हम दूसरे कमरे में आ जाते | वहाँ भी यही हाल होता | तुम थोड़े शर्मिंदा दिखते पर मैं खिलखिलाती रहती | मुझे बहुत मजा आता था रात को जागना और शैतानी करना | कमरे की फर्श मिट्टी की थी, जिसे रात को चूहे कोड़ डालते सुबह मैं उसे पीली मिट्टी से लीप देती। रात को वे फिर कोड़ देते | पाखाना भी कच्चा था, जिसे मेहतरानी साफ करने आती | उसके आने का रास्ता पाखाने का पिछला दरवाजा था | वह आती और राख़ डालकर मैला उठा ले जाती और डब्बे को साफ करके रख देती | ये सारी चीजें मुझे पहली बार देखने को मिल रही थी | मेरी माँ का घर शहर में और सभी सुविधाओं से युक्त था | पर इन सवा महीनों में मैंने एक बार भी अपने घर को याद नहीं किया | तुम्हारा प्यार मुझे मिल रहा था जो मेरे लिए स्वर्ग का सुख था |
तुम्हारा प्यार करना मुझे अच्छा लगता पर सहवास मेरे लिए पीड़ादायक होता था | यही कारण था कि शाम होते ही मुझे बुखार -सा होने लगता | तुम अपनी भाभी से यह बात बताते तो वह इसे बचने का नाटक कहती | यौन का समुचित ज्ञान तुम्हें भी नहीं था .....मैं तो खैर बिलकुल ही नादान थी | जब पहली बार तुमने मेरा चुंबन लिया तो मैं जैसे चमत्कृत हो गयी | मुझे पता ही नहीं था कि हर पति ये करता है | मुझे लगा यह सिर्फ मेरे साथ ही हो रहा है | किताबी कीड़ा थी मैं और घर में मामी –भाभी जैसे मजाक के रिश्ते भी नहीं थे ...जिनसे कुछ जानकारी मिली होती | साथ पढ़ने वाली मेरी तीनों सखियाँ भी मेरी ही तरह थीं | मुझे याद है जब विदाई से पहले मैं अपने अंडरगारमेंट्स सहेज कर अपनी अटैची में रख रही थी तो छोटी मौसी ने मज़ाक किया –'वहाँ इसकी जरूरत नहीं पड़ेगी' तो मैंने मौसी को ‘गंदी’ कह दिया था | मुझे नहीं पता था कि शादी के बाद यौन- संबंध भी बनाया जाता है | मैं तो समझती थी कि बस एक –दूसरे के पास लेटते हैं ...बातें करते हैं .प्यार करते हैं ..फिल्में वगैरह भी कम देखी थी और उस समय की फिल्मों में बड़ी परदेदारी भी होती थी | नायक -नायिका के बदले फूल मिलते थे |
मुझे यह पता ही नहीं चला था कि जब हम पहली बार मिले तो मुझे इतना दर्द क्यों हुआ ?दूसरे दिन सुबह होने से पहले ज्यों -ही मैं नहाकर लौटी | मेरे बिस्तर पर दूसरी नयी चादर बिछी थी | रात वाली चादर गायब थी | मैं कुछ समझ नहीं पाई पर उस दिन जिठानी और ननदें तुमसे जाने क्या खुसफुस करती रही और सभी मुझसे प्रसन्न दिखे | मुझे बिहार का फेमस चन्द्रकला नामक मिठाई खिलाई गयी | वह तो बहुत बाद में पता चला कि उस दिन चादर पर उन्हें मेरे वर्जिन होने के चिह्न मिले थे |
छुट्टियाँ बीत गयी थीं और हमारे हनीमून का समय भी | तुम मुझे छोड़ने मेरे घर आए | दो दिन रूके और फिर वापस जाने लगे तब मुझे एहसास हुआ कि अब रात-दिन का तुम्हारा साथ छूट जाने वाला है | मैं रोने लगी | तुम्हें जाने से रोकने लगी | मेरे घरवाले इसे मेरी बेशर्मी कह रहे थे कि एक महीने के साथ के लिए घरवालों को भूल गयी है | मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था | मैं कल्पना भी नहीं कर पा रही थी कि तुम्हारे बिना कैसे जीऊंगी ?तुमने और माँ ने पढ़ाई का वास्ता दिया, जो शादी की एक शर्त भी थी | पर मैं पढ़ना-लिखना नहीं चाहती थी ...बस तुम्हारे साथ रहना चाहती थी | मैं रोती रही पर तुम चले गए | मैं कमरे में जाकर तुम्हारी तस्वीर को सीने से लगाकर चीख-चीखकर रोने लगी तो सभी मुझे कोसने लगे| भाई-बहन मज़ाक उड़ाने लगे | माँ ने मुझे बहलाने के लिए झूठ-मूठ में छोटी बहन को कहा कि वह दौड़कर बस स्टेशन जाए और जीजा को वापस लाए | यह सुनकर मुझे थोड़ी राहत हुई | पर तुम नहीं लौटे बाद में भाई ने बताया कि वापस जाते समय तुम्हारे चेहरे पर भी हवाइयाँ उड़ रही थीं |
मेरी नयी-नयी शादी हुई थी, पर मैं उदास थी | सजती-सँवरती भी नहीं थी | माँ मुझे देख-देखकर झल्लाती | कॉलेज खुला तो थोड़ी राहत मिली। अब मैं साड़ी पहने, सिंदूर से पूरी मांग भरे इंटर में पढ़ रही थी | मेरी उदासी को देखकर मेरी सखियों ने मुझे मीराबाई कहना शुरू कर दिया था | बहुत समय लगा मुझे फिर से अपने पहले वाले रूप में आने में...पर पहले जैसी बात रही कहाँ थी ?भाई-बहन मज़ाक उड़ाते कि क्या बासी भात की याद आ रही है?मैं पंखे के नीचे सोती तो छोटी बहन ढ़केल देती कि तुम्हारे ससुराल में कौन –सा बिजली-पंखा है ?तुम कभी-कभी आते और फिर चले जाते | माँ कहती उससे खर्च क्यों नहीं मांगती ?इंटर में पढ़ने वाले पति से मैं किस मुंह से कुछ मांगती ?अब मैं दो पाटों के बीच पीस रही थी | दोनों परिवार मेरी ज़िम्मेदारी नहीं उठाना चाहते थे | एक-दूसरे का मज़ाक बनाते और मुझे किसी की भी बुराई अच्छी नहीं लगती थी, विशेषकर तुम्हारी | मैं तुम्हारी मजबूरियों को समझ रही थी | शादी के कुछ दिन बाद ही तुम्हारे पिता बीमार होकर बिस्तर पर आ गए| उनके भरोसे ही तो तुमने शादी की थी | पिता बीमार होकर पत्नी पर आश्रित हो गए | तुम्हारा भी खर्चा माँ को उठाना पड़ रहा था | बड़े भाई कोई मदद नहीं कर रहे थे ...ऐसे में तुम मेरा भी बोझ अपनी माँ पर नहीं डालना चाहते थे | मैं समझ गयी थी कि अभी मुझे लंबे समय तक गृहस्थी का सुख नहीं मिलेगा, इसलिए मैंने पढ़ाई में मन लगा लिया | इंटर के बाद मैंने बी. ए .में एडमिशन ले लिया तो तुम बौखला गए | मुझसे कहने लगे- ‘तुम बी.ए. मत करो | अच्छा नहीं लगता कि पति -पत्नी दोनों बराबर पढ़े हों | ’ मुझे तुम्हारी अपरिपक्व बुद्धि पर हंसी आई | मैंने तुम्हें समझाया कि मायके में रहकर मैं क्या करूंगी ? पढ़ाई में समय कट जाता है | तब तुम कहने लगे कि मैं जब नौकरी कर लूँगा तब तुम्हें बी. ए. करा दूँगा |
मैंने कहा -पढ़ाई का क्रम टूट जाएगा तो फिर पढ़ने में मन नहीं लगेगा| फिर खाली बैठकर मैं क्या करूं ?भाई-बहनों से विचार नहीं मिलते फिर सभी स्कूल –कॉलेज चले जाते हैं | नहीं पढ़ने देना है तो साथ रखो | तुम रिक्शा चलाओगे तब भी मैं तुमसे कोई शिकायत नहीं करूंगी |
पर तुम दोनों ही बात के लिए राजी नहीं थे | तुमने एक बार भी मेरे पक्ष से नहीं सोचा | तुम्हारे हिसाब से स्त्री का न तो कोई मन होता न मकसद | मैंने भी पहली बार तुम्हारी बात नहीं मानी और पढ़ाई जारी रखी | यही बात तुम्हें चुभ गयी | तुम्हारा मेल इगो आहत हो गया | तुम्हें यह अपना ऐसा अपमान लगा, जिसे तुम जीवन भर नहीं भूल पाए और उसका बदला मुझे मानसिक यातनाएं देकर लिया | बी. ए. के बाद मैंने बी- एड करना चाहा तो तुमने भरा हुआ फार्म फाड़ दिया और रोने-बिलखने लगे | तुम्हें दौरा जैसा पड़ गया | मेरी माँ डर गयी फिर निर्णय हुआ कि तुम मुझे अपने घर ले जाओगे | पता नहीं क्यों मैं जाने के नाम पर खुश नहीं थी | मुझे लग रहा था कि कुछ गलत होने वाला है | इन वर्षो में तुम्हारे कई निगेटिव शेड्स देखे थे, जो मुझे डरा रहे थे | इधर तुम मेरी माँ के पास ज्यादा बैठने लगे थे| माँ भी तुम्हें बेटा मानती थी और घर के सारे राज बता देती थी | मुझे यह अच्छा नहीं लगता था पर माँ और तुम दोनों मेरा ही मज़ाक बनाते रहते थे | धीरे-धीरे तुमने मेरे घर की सारी कमजोरियाँ जान ली।पहली कमजोरी कि मेरी माँ की दो शादी हुई थी | वैसे माँ और पिताजी दोनों की ही यह दूसरी शादी थी | माँ तो बाल -विधवा थी ।पिता की भी शादी उनके बचपन में गाँव में हो गयी थी, पर उनकी पत्नी ने बालक पति को छोड़कर दूसरा घर कर लिया था | दूसरी कमजोरी कि हम लोग ननिहाल में ही रहते थे | जबकि हमारा घर अलग और अपना था | वैसे भी हम इसलिए यहाँ रहते थे कि पिताजी का गाँव बहुत पिछड़ा हुआ था, वहाँ स्कूल नहीं था | तीसरी कमजोरी अमीर घर में दीदी की शादी को लेकर था ।
मैं ससुराल पहुंची कि तुमने अपना असली रूप दिखाया | पहले मुझे मारा-पीटा कि किसकी इजाजत से पढ़ाई की? फिर उन तीनों कमजोरियों का मज़ाक बनाना शुरू किया | मेरी माँ अच्छी औरत नहीं ...एक पानी पर नहीं रही ...दो शादी की | पिता मौगा है ससुराल में रहता है और दीदी को बेच दिया गया है | अपने परिवार व मोहल्ले वालों के सामने इन बातों को कह-कहकर तुमने मुझे जलील किया | तुमने पहले मायके से मेरी चिट्ठी-पत्री बंद करवा दी, फिर किसी का आना-जाना भी | तुमने मेरा इतना अधिक उत्पीड़न किया कि मुझे खून की उल्टियाँ होने लगीं | तब तुमने टी. बी. का मरीज कहकर मुझे जबरन मायके भेज दिया | पर भेजने से पहले तुमने मेरे मुंह पर तौलिया रखकर शारीरिक संबंध बनाया | तुमने ये भी नहीं सोचा कि मेरा कमजोर शरीर अभी इस लायक नहीं है |
तुम्हीं बताओ मेरा अपराध क्या था?मैंने पढ़ाई ही तो करनी चाही थी, वह भी तुमसे अलग रहने की तकलीफ़ को भूलने के लिए | तुम्हें उसमें मेरा प्यार क्यों नहीं नजर आया ?तुम मेरे पति थे, इसलिए मैंने तुम्हें प्यार किया | पहला वास्तविक प्यार | पर बदले में तुमने क्या किया ?शादी के पूरे सात वर्ष बाद हम अलग हुए थे | इन सात वर्षों में तुमने मुझमें कोई विचलन देखी | मैं एक-एक पैसे के लिए तरसती रही, घोर अभावों में जीवन गुजारा | अकेले ही खर-खानदान, पास-पड़ोस, नात-रिश्तेदार, भाई –बहन, माता-पिता के तानें सुने पर तुमसे कुछ नहीं कहा | दीदी की उतरन पहनी पर तुमसे कुछ नहीं मांगा कि कहाँ से लाओगे तुम ? वह भी तो मेरा प्यार ही था पर तुमने मेरी कदर न की | जिस दिन तुमने मुझ पर हाथ उठाया, उसी दिन मैं टूट गयी | तुमने मेरे भीतर की पतिव्रत स्त्री को मार दिया | मैंने मन से उसी दिन इस रिश्ते को धो दिया और पति वाली विधवा बन गयी | मन का साथ तो अभी बन ही नहीं पाया था कि तन का साथ भी छूट गया और फिर फटे दूध से कभी माखन नहीं बना | मैंने अपनी तरफ से हर ईमानदारी बरती ...सब कुछ सहा, त्याग-तपस्या, धर्म-कर्म, तीज-व्रत क्या नहीं किया और तुमने मुझे संस्कार-हीन कह दिया | मेरे उस माँ-बाप को गालियां दी, जो तुम्हारी पत्नी को शादी के बाद भी पालते रहे ....तुम्हें बेटा समझकर सब कुछ बताते रहे | तुमने मेरी उस दीदी को गाली दी, जिसके कारण मैं तुमसे शादी करने को राजी हुई | तुम्हारी हीन -भावनाओं ने तुम्हारे सामने एक काल्पनिक संसार खड़ा कर दिया, जिसमें मेरे घर वाले तुम्हारा मज़ाक उड़ाते थे | तुम अपनी कमजोरियों से अवगत थे, इसलिए उन्हें छुपाने के लिए छद्म करते रहे | मैंने कभी तुम्हारा बुरा नहीं चाहा ...हर हाल में खुश रही | बस अपनी मर्जी से पढ़ाई की, यह भी तुम्हें अपमान लगा | तुमने अपने –आप सोच लिया कि मेरी पढ़ाई तुम्हारे खिलाफ साजिश है | तुमने सबसे कहा कि मेरी माँ पढ़ा-लिखाकर मेरी दूसरी शादी कर देना चाहती है क्योंकि खुद उसकी दूसरी शादी हुई थी | यह कैसी सोच थी तुम्हारी ?माँ और मैं शिक्षा, स्थिति, परिस्थिति, भावना, विचार सबमें अलग थे | इन सारी बातों की जगह तुमने मुझे समझने की कोशिश की होती तो आज हम साथ होते | पर तुम जिद और बदले की भावना से भरकर हिंसा का सहारा ले बैठे | दुनिया की जाहिल औरतों के बीच जाकर प्रपंच करते रहे, काश तुमने मुझसे बात की होती |
जहां तक मेरी बात है मैंने तुम्हें समझाने की हर संभव कोशिश की पर तुम मेरी बात सुनते ही नहीं थे | मुझे याद है एक सुबह मैं तुम्हें अपने माता-पिता के बारे में बता रही थी कि किस तरह एक छोटी -सी मिठाई की दुकान से घर का खर्च चलता है तुमने झट कह दिया –पता नहीं खर्चा उस दुकान से चलता है या किसी और ...| मेरे पूरे शरीर में जैसे आग लग गयी | तुमने सीधे मेरी माँ के चरित्र पर अंगुली उठाई थी |
दीवाली के एक दिन पहले दलिदर भगाने की प्रथा है | इस बारे में मुझे कुछ पता नहीं था | मेरी इस अज्ञानता को तुम मेरा संस्कार कहने लगे | उफ, मैं याद नहीं करना चाहती कि तुमने मुझे किस-किस तरह से पीड़ा पहुंचाई | आज मुझे कोई अफसोस नहीं है कि मैं तुमसे अलग हूँ क्योंकि मैंने हर संभव कोशिश कर ली थी कि हमारा रिश्ता बच जाए पर मेरे अकेले प्रयास से क्या हो सकता था ?आज मुझे अफसोस है तो बस इस बात का कि मैंने व्यर्थ ही तुम्हारे पीछे अपने सुनहरे सात वर्ष गंवा दिए | ये तो अच्छा रहा कि मैंने अपनी पढ़ाई जारी रखी, जिसके बदौलत आज अपने पैरों पर खड़ी हूँ |
तुम आज चार बेटों वाले दशरथ हो | दूसरी पत्नी और सरकारी नौकरी, नेवासे में मिले दो-दो मकानों के साथ सुखमय जीवन बीता रहे हो | और मैं अकेली हूँ शिक्षक हूँ अपने छोटे से घर में रहती हूँ | तुम इसे ईश्वरीय दंड मानते हो | तो यह तुम्हारी अपनी सोच है जो कभी नहीं बदलेगी |
तुमने ओछे हथकंडों से मुझे जीतने की कोशिश की| मुझे तोड़कर अपने अनुरूप बनाना चाहा जबकि इसकी कोई जरूरत नहीं थी | स्त्री तो प्रेम के विश्वास में खुद को हार देती है।प्रेम -पात्र के अनुरूप ढल जाती है।जबरन उससे ऐसा नहीं कराया जा सकता।तुमने नात- रिश्तेदारों, पास- पड़ोसियों, अपने -परायों की नजरों में मुझे गिराकर खुद को ऊंचा दिखाना चाहा।लकीर को छोटा करने लिए उसके समामान्तर बड़ी रेखा खींचने के बदले तुमने लकीर को ही काट दिया।जिन संस्कारों की तुम दिन -रात दुहाई देते हो। क्या यही वो संस्कार हैं?एक स्त्री को सबकी नजरों से गिराकर खुद ऊंचा उठना!पर क्या इन ओछे हथकंडों से तुम ऊपर उठे ? नहीं न !लोगों ने भी तुम्हें नहीं सराहा और मेरी नजरों से भी सदा- सदा के लिए गिर गए | तुम अपने सहज -सरल रूप में रहते तो मैं ताउम्र तुम्हारा साथ निभाती पर तुम्हारे शातिर और चालाक दिमाग ने तुमसे मेरा ईमानदार प्रेम छीन लिया।मैंने बहुत कोशिश की कि तुम्हारी छवि मेरी नजरों में खंडित न हो पर कब तक!और खंडित मूर्ति की पूजा कम से कम मैं तो नहीं कर सकती।
आज भी एक के बाद एक वही का वही ओछापन !तुमने अपने पूर्वजों से जो सामंती संस्कार पाए हैं क्या उन्होंने मेरा मन बदल दिया ?तुम पति थे इसलिए मैंने तुम्हें प्यार किया पर जब तुम मेरे मालिक बनकर मुझ पर कहर बरपाने लगे तो मेरा प्रेम खत्म हो गया | तुम इसे भी मेरा गलत संस्कार कहते हो | तुम्हारे हिसाब से मार-पीट, गाली-गलौज, दबाव, पाबन्दियाँ, अपमान, उपेक्षा, उत्पीड़न तथा बदनामी झेलकर भी स्त्री को पति को परमेश्वर मानना चाहिए तो मैं उन औरतों में नहीं हूँ | इन सबसे कमजोर औरतें बस में रहती हैं | मैं तुमसे पहले मन से ही मुक्त हुई थी और जब मन से मुक्त हो गयी तो देह से कैसे बंधी रहती ?
तुम आज भी सबसे यही कहते और समझते हो कि मैंने आजादी की चाह में तुम्हें छोड़ा | तुम्हें क्यों नहीं लगता कि मैं स्वेच्छा से तुम्हारी गुलाम हुई थी पर जब तुमने सच ही गुलाम समझकर मुझे खूँटें से बांधना चाहा तो भाग खड़ी हुई | ऐसी ही होती है औरत!
यह सच है कि तुम मेरे पति थे पर मेरे पत[सम्मान ]की रक्षा नहीं कर सके | तुम्हारा ईगो तुम पर इतना भारी रहा कि स्त्री की कोमल भावनाओं को समझना भी तुम्हें गंवारा नहीं हुआ | तुमने धीरे-धीरे मेरे भीतर की सती- स्त्री को मार दिया | फिर भी माँ द्वारा दिए गए सती -संस्कार मुझ पर इतने हावी थे कि इस कार्य में पूरे सात वर्ष लग गए |
अपनी उन दिनों की तस्वीर देखती हूँ तो विश्वास ही नहीं होता कि ये मैं ही हूँ | पूरी की पूरी मांग चटख सिंदूर से भरी हुई .....माथे पर बड़ी -सी लाल बिंदी, पैरों में महावर, हाथों में मेंहदी, साड़ी से ढँकी हुई देह ।सुहाग के इन चिह्नों को एक पल के लिए भी मैं खुद से दूर नहीं होने देती थी | तुम्हारा पैर छूना, चरणोदक लेना मेरा सौभाग्य था | तुम्हारा कथन मेरे लिए देव-वाक्य था | मैं तन-मन, वचन, भाव सबसे बस तुम्हारी थी | तुम्हारी सलामती के लिए पूजा-पाठ, व्रत- उपवास क्या नहीं करती थी मैं ?कल्पना में भी पर- पुरूष का ध्यान मेरे लिए घोर पाप था | ऐसी पतिव्रत पत्नी के साथ तुमने क्या किया कि वह बागी हो गयी | सुहाग के सारे चिह्नों को उतार फेंका | पूजा-पाठ, व्रत-उपवास सब छोड़ दिया | कुछ तो किया होगा तुमने ...जरा सोचकर देखो |
तुम इस बारे में सोचना नहीं चाहते | तुम सारा आरोप मेरी माँ ...मेरे संस्कारों के ऊपर डाल कर बैठ जाते हो| आज भी तुम वही बात कहते हो कि मैं लोगों के बहकावे में आ गयी | किस तरह के बहकावे में!जरा स्पष्ट तो करो | यह सच है कि जब हमारे बीच अलगाव हुआ तुम आत्मनिर्भर नहीं थे इसलिए विवाह के सात वर्षों बाद तक मैं अपनी माँ के घर रही | मैं रहना नहीं चाहती थी पर तुम कहते -नौकरी करते ही ले चलूँगा | दो-तीन बार ही मैं तुम्हारे घर रही वह भी महज कुछ दिनों के लिए | फिर तुमने खुद ही मुझे माँ के घर पहुंचा दिया | ससुराल का वातावरण मेरे अनुकूल नहीं था तो तुम ही कहाँ मेरे अनुकूल थे !
आज भी तुम मुझे ही गलत मानते हो और गलत स्त्री कहते हो | तुम्हारा इगो आज भी उतनी ही ऊंचाई पर है | पर तुम्हें इस बात का मलाल भी तो है कि तुम मुझे कभी जीत नहीं पाए | मुझे कुचलकर मटियामेट नहीं कर पाए | मैं आज भी पूरे स्वाभिमान के साथ ईमानदार ज़िंदगी जी रही हूँ | और यही मेरी जीत है | इस पुरूष-प्रधान समाज में एक स्त्री की जीत है |
काश, तुम समझ सके होते कि पति पत्नी का साथी होता है परमेश्वर नहीं |