ashok shukl smagr ke bahane in Hindi Love Stories by Yashvant Kothari books and stories PDF | प्रोफेसर अशोक शुक्ल समग्र के बहाने

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प्रोफेसर अशोक शुक्ल समग्र के बहाने

प्रोफेसर अशोक शुक्ल समग्र के बहाने -

अशोक शुक्ल समग्र को छपते देख कर मुझे अपरिमित ख़ुशी हो रही है ,वे पुरानी पीढ़ी के सशक्तम हस्ताक्षरों में है ,८१ वर्ष की उम्र में उनका यह संकलन आना दोहरी ख़ुशी देता है .वास्तव में उनको भुलाने वाले खुद भुला दिए जायेंगे ,क्योकि हाँ ,तुम मुझे यों भुला न पाओगे.

अशोक शुक्ल समग्र में चार लघु व्यंग्य उपन्यास -प्रोफेसर -पुराण,हड़ताल ,हरिकथा ,सेवामीटर व हो गया साला भंडारा ,दो व्यंग्य संकलन ,शताधिक व्यंग्य लेख,कवितायेँ ,व् अन्य सामग्री संकलित है.हिंदी के युवा व् प्रतिभाशाली प्राध्यापक डा.राहुल शुक्ल ने बड़ी मेहनत व लगन से यह सब सामग्री संकलित की है अशोक जी के सुपुत्र आशीष शुक्ल ने भी बहुत मेहनत की है लगभग ६५० पन्नों की यह सामग्री हिंदी व्यंग्य के इतिहास व शोध कर्ताओं के लिए बहुत उपयोगी होगी.किसी भी लेखक के मूल्यांकन के लिए समग्र से ज्यादा बेहतर क्या हो सकता है?

अशोक शुक्ल से एक लेखक के रूप में मेरा परिचय धर्मयुग में प्रकाशित उनकी रचनाओं से हुआ कालेज सूत्र ,मेरा पैतीसवा जन्मदिन उन्हीं दिनों छपे . अन्य समकालीन रचनाकारों की तुलना में वे थोडा और चुनिन्दा लिख रहे थे .व्यंग्य के आकाश में अन्यों की तुलना में चुपचाप अपना काम कर रहे थे.फिर उनके व्यंग्य उपन्यास आये -प्रोफेसर पुराण व हड़ताल हरी कथा ,उन दिनों व्यंग्य में उपन्यास लिखना एक नई खोज थी ,फलक पर परसाई शरद जोशी थे लेकिन उपन्यास दूर की कोडी थे,अशोक शुक्ल ने एक नयी जमीन तोड़ी थी जो उनको अन्य से अलग करती थी .सारिका में सेवा मीटर के छपते ही तहलका मच गया .

उनकी अन्य रचनाये रंग चकल्लस ,आदि में नियमित पढने को मिलती रही .इन रचनाओं का कलेवर विशाल नहीं है लेकिन एकाग्रता के साथ लिखी गयी हैं ,इन रचनाओं में अनुभव है, ये कई बार के ड्राफ्ट के बाद बनी हैं.यह लेखन एक सिटिंग का लेखन नहीं है. इन में लोक कथाओं का मर्म है ,पोरानिकता है,सम कालीन राजनीति का व्यवहार है .अशोक शुक्ल एक मंजे हुए लेखक की तरह काम करते हैं.उन दिनों हवा में व्यंग्य का व्याकरण ,सौन्दर्य शास्त्र ,सपाट बयानी ,जैसे भारी भरकम शब्द नहीं थे ,लेखक लिफाफे में रचना भेजता और इंतजार करता था ,अच्छी व स्तरीय रचना ही जगह पाती थी ,अशोक शुक्ल को कन्हेया लाल नंदन ,रामावतार चेतन शरद जोशी ,देवी शंकर अवस्थी ने मांजा .धर्म वीर भारती ने बहुत सम्मान से छापा .,चमकाया , प्रतिभा को पहचाना और आगे बढाया .शुक्ल द्वारा प्रयुक्त बिम्ब,प्रतीक अनोखे हैं ,वे रचना के सौन्दर्य में चार चाँद लगा देते हैं.पढने का असली आनंद यहाँ लिया जा सकता है.रसिक पाठकों को मज़ा भी आता है और समझ आने के बाद कोफ़्त भी होती है यही तो रचना का असली मज़ा है .

कुछ वर्षों का अन्तराल हो गया . कन्हैया लाल नंदन ने सन्डे मेल निकाला तो अशोक शुक्ल फिर नमूदार हुए इस बार उनका साप्ताहिक कालम –बामुलाहिजा आया जो खूब पढ़ा गया .उन्होंने राजनीति पर भी लिखा और खूब लिखा मंच पर भी व्यंग्य पढ़े और सराहे गए .अशोक शुक्ल का व्यंग्य आम आदमी की आवाज़ बन कर उभरा है.कदम कदम पर उनकी रचनाये सोचने को विवश करती है. सर्वत्र मूल्यों में ह्रास हो रहा है और ह्रास को व्यंग्य ने वाणी दी है। स्वतंत्रता के बाद सत्तर वर्षों में व्यंग्य के माध्यम से इस समाज को समझा जा सकता है। समाज में मूल्यों में गिरावट, विसंगतियाँ, विद्रूपताएँ, ओछापन, नंगापन, गर्हित कार्यवाइयाँ बहुत ज्यादा बढ़ी हैं और इन सब पर कलमकारों ने व्यंग्य कर समाज को सचेत किया है। अशोक शुक्ल भी इसी पथ के एक मज़बूत माईल स्टोन है.

बाद के वर्षों में वे घर परिवार में रम गए ,हिंदी जगत भी उनको भूल गया लेकिन जब भी व्यंग्य के इतिहास व व्यंग्य - उपन्यासों की चर्चा होगी अशोक शुक्ल को भुलाना मुश्किल होगा ,

अशोक शुक्ल को हिंदी व्यंग्य में हाशिये पर नहीं केंद्र में जगह मिलेगी इन्ही शुभकामनाओं के साथ .

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अशोक शुक्ल से मैं कभी नहीं मिला एक बार अलवर अपने दोस्त की बेटी कि शादी में गया था तो पता चला की अशोक शुक्ल जी पास ही में रहते हैं लेकिन मुलाकात नहीं लिखी थी , सो नहीं हुईं. एक लेखक के रूप में उनकी रचनाओं से परिचय हुआ धर्मयुग में प्रकाशित कालेज –सूत्र से. फिर एक और रचना पढ़ी- मेरा पैंतीसवा जन्म दिन . एक व्यंग्यकार के रूप में वे थोडा और चुनिन्दा लिख रहे थे. इन रचनाओं में विट है ह्यूमर है, आइरनी कटाक्ष,,पंच आदि सब है. रचनाओं का कलेवर विशाल नहीं है, लेकिन एकाग्रता के साथ लिखे गए हैं. यह लेखन एक सिटिंग का लेखन नहीं है. कई बार का ड्राफ्ट है. इन रचनाओं में अनुभव भी झलकता है. ये वे दिन थे जब रचना लिफाफे में आती जाती थी, फेस बुक, ट्विटर , मोबाइल का जन्म नहीं हुआ था . हवा में व्यंग्य का व्याकरण, काव्यशास्त्र , सौन्दर्य शास्त्र , सपाट बयानी जैसे भारी भरकम शब्द तारी नहीं हुए थे . ये नहीं है की टीवी के सामने बैठ जाओ और घटना के घटते ही तीन सो शब्द लिखो, सम्पादक को फोन कर भेज दो. एक सम्पादक न छापे तो दूसरे को फोन करो. वो जमाना ऐसा था भी नहीं. कुछ ही दिनों के बाद उनका एक उपन्यास छप कर आया - प्रोफेसर पुराण, फिर हड़ताल हरी कथा और बाद में सारिका में सेवा मीटर . मेरे पैतींसवें जन्मदिन पर उन्हें राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हेया लाल सहल पुरस्कार मिला.

कुछ वर्षों का अन्तराल हो गया . कन्हैया लाल नंदन ने सन्डे मेल निकाला तो अशोक शुक्ल फिर नमूदार हुए इस बार उनका साप्ताहिक कालम –बामुलाहिजा होशियार आया . खूब पढ़ा गया . शायद ये कालम पुस्तकाकार नहीं आ सका. उनकी रचनाएँ रंग चकल्ल्स में भी छपीं. तब धर्मयुग में सुरेश कान्त का ब से बैंक छपा था तो लोग नया पढ़ना चाहते थे. इन दिनों तो व्यंग्य उपन्यासों की बहार आई हुयी है जिसे एक समीक्षक ने तथाकथित व्यंग्य उपन्यास कह दिया . बात उपन्यासों के कथ्य शिल्प और भाषा की भी होनी चाहिए. कथ्य की स्थिति ये है कि आप यदि सरकार के किसी विभाग में हैं तो उस विभाग की विसंगतियों पर उपन्यास लिख सकते हैं. ऐसे काफी प्रयोग हुए हैं. शिल्प के नाम पर प्रतीक, बिम्ब , आदि का सहारा लिया जा सकता है. भाषा का चयन सावधानी से किये जाने की जरूरत है, यहीं मेरे जैसा लेखक गलती करता है.

बड़े लेखकों को जाने दीजिये वे तो जो करेंगे अच्छा ही कहलायेगा, कालिदास व्याकरण की चिंता नहीं करता , उनके लिखे के अनुसार साहित्य की भाषा व् व्याकरण बनते बिगड़ते हैं. शुक्ल जी ने गलतियां नहीं कीं, काफी सोच समझ के लिखा , मगर समीक्षकों व् मठाधीशों को ये नागवार लगा. उन्होंने उपेक्षा का छाता तान दिया , शंकर पुणताम्बेकर , बालेन्दु शेखर तिवारी के साथ भी यहीं हुआ ..कालेज शिक्षा के पानू खोलिया के साथ भी यहीं हुआ , वैसे भी राजस्थान के लेखकों को बाहर कौन पूछता है? देथा , मणि मधुकर, रांगेय राघव व् यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र के बाद तो सब कुछ बिला गया . यही सब शुक्ल व् अन्य लोगों के साथ हुआ ,नहीं तो अगर शुक्ल उत्तर प्रदेश का झंडा ही थाम लेते तो सफल हो जाते.

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यशवंत कोठारी ,८६,लक्ष्मी नगर ब्रह्मपुरी बाहर ,जयपुर-३०२००२ मो-९४१४४६१२०७