नीलम कुलश्रेष्ठ
थाली में जमी बर्फ़ी पर जैसे ही उस ने चाकू चलाया, सारे घर में इलायची, भुने हुए खोए व पिसे हुए काजू की सुगंध ऐसे फैल गई जैसे उद्घोष कर रही हो कि दीवाली आ गई है ।
कितना ढेर सारा काम हो जाता है दीवाली से पहले, सारे घर के लिये रंगो का चुनाव करो। यदि किसी कमरे का रंग बदलवाना है तो मजदूरों के सिर पर खड़े रहो, पुराने रंग को खुरचवाने के लिये । यदि किसी कमरे का रंग बदलवा दिया तो उस के नये रंग के परदे तो खरीदे जायेंगे ही, साथ ही साथ उस की साज सज्जा भी बदलनी पड़ेगी । बच्चों के कपड़े, अपने कपड़े, बर्तन, कुछ सजावट का सामान यानि इस बहाने बहुत सी खरीदारी हो जाती है । दुकानदार भी कुछ इस तरह दुकानें सजा कर बैठ जाते हैं कि बिना कुछ लिये आगे बढ़ा ही नहीं जाता ।
सुहास दीवाली पर हमेशा मिठाई के सुंदर और बड़े डब्बे खरीदता है । वह कहता है, ये सुंदर आकर्षक डब्बे घर के लिये नहीं है, बस व्यावसायिक संपर्कों के लिये हैं । मुझे तो यह त्यौहार इसलिये अच्छा लगता है कि बिगड़ैल से बिगड़ैल वरिष्ठ अधिकारी की भी इन डब्बों को देखते ही चढ़ी नाक नीचे आ बैठती है । किसी मुख्यालय से अपनी फ़ाइल आगे बढ़वानी हो तो क्लर्क के घर एक टोकरा ले कर किसी के हाथ भेज दो और कहलवा दो, ‘सुहास साहब ने दीवाली का उपहार भेजा है ।’ वह बेचारा दूसरे दिन फ़ाइल आगे खिसका कर ही दम लेता है ।
“तुम्हें किसी काम के लिये इस तरह रिश्वत देते या लेते कुछ झिझक नहीं लगती ?” वह पति से अक्सर पूछती ।
“नहीं नहीं, यह रिश्वत नहीं है । यह आजकल के ज़माने की आपसी समझदारी है ।”
“मुझे तो तुम्हारी एक हाथ से लेने व दूसरे हाथ से देने की यह परिपाटी बिलकुल अच्छी नहीं लगती । क्या तुम्हें सच ही बुरा नहीं लगता कि दीवाली जैसे त्यौहार को तुम अपने व्यावसायिक संपर्कों के लिये इस्तेमाल करते हो ।”
“अगर मैं भी तुम्हारी तरह सोचता तो आज इस मज़िल पर हीं पहुंचता । घर में तुम्हारी तरह रोटिया सेंक रहा होता । ”
उसे पति की गर्व से तनी गरदन पर बेहद प्यार उमड़ आता है । वह यह सोच कर अपने मन को तसल्ली दे लेती है कि कम से कम वह बिगड़ा हुआ तो नहीं है । ऐसे समय में वह भी फ़ायदा उठाना चाहती है, “मैं तुम्हें घर में पड़ी फ़ालतू चीज नजर आती हूं? मुझ से तुम्हें व्यावसायिक संबंध बनाने की कोई चिंता नहीं है ? मैं भी इस बार मिठाई नहीं बनाऊंगी । मुझ से संबंध सुधारना चाहते हो तो ले आओ चार पांच मिठाई के डब्बे ।”
“नहीं,नही, व्यवसाय और घरेलू जीवन में बहुत फ़र्क होता है, जैसे कि बाज़ार और घर की मिठाई में । मैं सब सामान तुम्हें ला कर दूंगा । घर के लिये, घर की लक्ष्मी की पूजा के लिये घर पर ही मिठाई बनेगी, शुद्घ घी में ।”
बर्फ़ी काटते हुए उस के होंठों पर मुस्कराहट आ गई । घर में सुहास कितना सहज व कोमल रहता है, वर्ना अपने दफ्तर में बैठ कर तो पता नहीं, कितनों को चुटकियों में पटा लेता है । उसी को ख़ुश करने के लिये उस ने रसगुल्ले, रसमलाई, नारियल की बर्फ़ी भी घर पर बनाई है । आधा नमकीन बाज़ार से खरीदा है, आधा घर पर बनाया है । उसे पता है, दीवाली के दिन नाश्ता करते समय वह बाज़ार के नमकीन वाली प्लेट अपने आगे से खिसका देगा ।
“मां, अभी आप तैयार नहीं हुईं?” ऋतु फिर सामने आ कर खड़ी हो गई।
“किसलिये?” वह बड़े ध्यान से बर्फ़ी काटने में लगी रही क्योंकि गरम मावा ठंडा होने लगा था ।
“ फ़्रॉक लेने के लिये बाज़ार चलना है ।”
“लेकिन मैं ने तुम्हारे लिये बनजारा सूट ला तो दिया है ।”
“आप ने तो कहा था कि चिक्की के लिये भी एक फ़्रॉक लाएंगी ।”
“अरे, मैं तो भूल ही गई, लेकिन बेटी, मैं आज कैसे जा सकती हूं ? ढेर से काम पड़े हैं । रसोई कितनी गंदी पड़ी है।”
“तो कल सुबह ले कर आयेंगी?”
“अब तो उस का फ़्रॉक दीवाली के बाद ही आ पायेगी । कल तो दीवाली है, निकलना हो ही नहीं पायेगा ।”
“आप हर समय झूठ मूठ कह देती हो । अगर चिक्की नया फ़्रॉक नहीं पहनेगी तो दीवाली पर मैं भी बनजारा सूट नहीं पहनूंगी ।” ऋतु रोती, ठुनकती वहां से चली गई ।
“बाई जरा ऋतु को संभालना ?” वह रसोई में से चिल्लाई । बंतो बाहर आंगन में कपड़ों की तह लगा रही थी । वह वहीं से बोली, “अच्छा, बीबीजी!”
उसे सारी मिठाई कसे हुए ढक्कनदार डब्बों में भरनी थी । रसगुल्ले, गुलाबजामुन, रसमलाई फ्रिज में रखे थे । सारी रसोई साफ़ कर के उस ने पानी में साबुन डाल कर उसे गरम किया व फ़र्श पर डाल दिया । सोचा, अब इसे धो तो बंतो देगी ।
नहा धो कर उस ने कलफ़ लगी साड़ी निकाल कर पहनी । आज का सारा दिन रसोई की गर्मी में ही निकला था, इसलिये सूती मैक्सी बहुत आराम देह लग रही थी । बालों का रबर बैंड खोल कर जैसे ही उस ने कंघा बालों में लगाया तो ध्यान आया कि वह सच ही क्या बाज़ार से चिक्की की फ़्रॉक लाना भूल गई थी या कंजूसी कर गई थी ? उस के लिये फ़्रॉक जरूरी भी नहीं थी । बंतो को दीवाली की साड़ी दे ही दी थी ।
अपना बनजारा सूट देख कर ऋतु ने पूछा था, “मां ! मेरे पास ढेरों कपड़े हैं, फिर यह आप किसलिये लाई हैं ?”
“दीवाली पर सब नये कपड़े पहनते हैं इसलिये ।”
“आप बंतो के लिये साड़ी लाई हैं, लेकिन मेरी सहेली चिक्की के लिये कुछ नहीं लाईं ?”
“उस के लिये ?” हैरान हो कर उस ने पूछा था ।
“हां, क्या दीवाली उस की नहीं है?”
कहना तो वह चाह रही थी कि नौकरानी के पूरे ख़ानदान का क्या मैं ने ठेका ले लिया है जो दीवाली पर पूरे कुनबे को कपड़े पहनाऊंगी ? लेकिन प्रत्यक्ष मे वह इतना ही बोली, “अब जब बाज़ार जाऊं तो याद दिला देना ।”
उस दिन वह दीवाली की आखिरी ख़रीदारी करने वाली थी । ऋतु ने उसे याद ही नहीं दिलाया, एक चिट पर लिख कर भी दे दिया, “चिक्की का फ़्रॉक लाना है ।”
वह चिट उस ने पर्स में रख ली । बाज़ार में उस ने फ़्रॉक के दाम पूछे । सस्ते से सस्ता फ़्रॉक 100 रुपये से कम नहीं था । उस का दिल ही नहीं हुआ कि वह फ़्रॉक खरीदे । इतना रुपया भी उस मरियल लड़की के लिये बरबाद करे । वैसे भी उसे चार पांच साल की उस गंदी, दुबली लड़की से चिढ़ है । हाथ पैर बेहद दुबले, काले, शरीर एकदम ढीला ढाला । पहले तो वह घर आ कर ढेर सी कीचड़ आंखों में भरे बिटरबिटर उसे व ऋतु को घूरती थी । तब उस ने बंतो को डांट लगाई थी, “यदि ऋतु की देखभाल के समय इसे भी घर में लाना है तो ठीक से नहला धुला कर साफ कपड़े पहना कर लाये ।”
जितनी अधिक उसे चिक्की से चिढ़ थी, उतनी ही ऋतु के लिये दुनिया की बेहतरीन दोस्त चिक्की ही थी । स्कूल से आने के बाद ऋतु उस के साथ ही खेला करती थी । वह उस के लिये केक, बिस्कुट, नमकीन, फल निकाल कर रख जाती तो उस में से भी वह आधा चिक्की को खिला देती . वह मन ही मन कुढ़ती रहती कि उस की और सुहास की कमाई से पौष्टिक तत्व चिक्की के पेट में जा रहे हैं । कभी वह दफ्तर से लौटती तो देखती, चिक्की किसी खिलौने में चाबी भर रही है या ऋतु की बड़ी सी गुड़िया को गले लगाये घूम रही है, तब उस का खून खौल उठता । वह झपट कर खिलौने छीन कर अलमारी में रख देती । चिक्की पर उस का रौब इतना था कि वह डर के कारण रो भी न पाती, सहम कर पीछे हट जाती। तब उलटे ऋतु ही उसे घुड़क कर डांटती, “मेरी सहेली से गुड़िया क्यों छीनी ?”
“बेटी, यह तुम्हारी गुड़िया है...मैं तुम्हारे लिये लाई थी ।”
“तो क्या हुआ ? मेरी सहेली भी इस से खेल सकती है । आप तो दफ्तर जा कर बैठ जाती हैं । चिक्की न हो तो मैं किस से खेलूं, किस से बाते करूं ?”
“ओह, ऋतु! अब मैं उस से गुड़िया नहीं छीनूंगी ।” वह ऋतु की इसी बात से तो मात खा जाती थी । ऋतु को घर पर छोड़ कर दफ्तर में सारा दिन बैठने का अपराध बोध मन में कहीं न कहीं था ही । नहीं तो उस गाबदू सी लड़की चिक्की को कान पकड़ कर घर से बाहर कर आती ।
हर समय ऋतु का यही विषय होता कि चिक्की ने यह किया, चिक्की ने वह किया । एक दिन वह ख़ुशी ख़ुशी उस के पैरों में लिपट गई, “मां, चिक्की ने ‘ए’ बनाना सीख लिया है, यह देखिये ।” फिर जल्दी से भाग कर स्लेट उठा लाई। उस पर बने बड़े ‘ए’ को देख कर उसे भी आश्चर्य हुआ, विश्वास ही नहीं हुआ, कि यह चिक्की ने लिखा होगा । भला चिक्की जैसी बुद्दू लड़की इतना सुंदर ‘ए’ कैसे बना सकती है। उस ने चिक्की से पूछा, “यह तूने बनाया है ?”
उस ने लजीली मुसकराहट से सिर हिलाया था । बंतो भी हंसती हुई आ खड़ी हुई, “बीबी जी !आप चली जाती हैं तो दोनों बहुत अच्छा नाटक करती रहती हैं । ऋतु तो मास्टरनी बन कर इसे पढ़ाती रहती है । वह इसे किताबों में से कहानी किस्से पढ़ कर सुनाती है, कुछ लिखना और फल फूल बनाना सिखा रही है । अब चिक्की इसे ‘मास्टरनी’ कह कर बुलाती है ।”
दीवाली की आखिरी ख़रीदारी कर के जब वह बहुत से पैकेट ले कर लौटी थी तो ऋतु का पहला प्रश्न यही था, “चिक्की का फ़्रॉक लाईं या नहीं ?”
वह झुंझलाई कि यह लड़की तो कोई बात नहीं भूलती । चिक्की भी अपना सिर ऊंचा उठाकर अपनी दोनों आँखें फैलाये बड़ी आस से उस की ओर देख रही थी । उस ने बहाना बनाया, “अरे, मैं फ़्रॉक लेना तो भूल ही गई”
“क्यों भूल गई?”
“बस, भूल गई ।” वह यह तो नहीं कह पाई कि वह क्यों रुपये बिगाड़े, वैसे ही इतना ख़र्चा हो रहा है
“मैं ने आप को चिट पर लिख कर भी दिया थ । क्या वह चिट खो गई थी?” ऋतु गुस्से में उस के लाये पैकेट खोल कर उन का सामान तहस नहस करने लगी ।
वह ज़ोर से चिल्लाई, “ऋतु!” उस ने गुस्से में उसे चांटा मार दिया ।
ऋतु रोती हुई दूसरे कमरे में चली गई, “मैं भी अब दीवाली पर नये कपड़े नहीं पहनूंगी ।”
वह चाहती तो सुहास से कह कर एक फ़्रॉक मंगवा सकती थी, लेकिन ऐसे तो ऋतु चिक्की के लिये पता नहीं क्या क्या फ़रमाइशें करने लगेगी । वैसे भी उस ने उसे क्या कम सिर चढ़ा रखा है ।
दीवाली की सुबह ऋतु वैसे तो ख़ुश लग रही थी क्योंकि महीने में ऐसे बहुत कम दिन होते थे, जब माता पिता घर में हों, लेकिन उस की आंखों में छिपी एक उदासी की पर्त उस से भी छिपी नहीं थी । वह जानबूझ कर ऋतु को अपने साथ काम में लगाये हुए थी, जिस से वह अपना दर्द भूल जाये ।
बाद में उस ने ऋतु को हिदायत दी कि छत पर रखी पानी भरी बाल्टी में से दीये निकाल कर उन्हें वहीं उलटे सुखा दे । उसे हमेशा लगता है कि चाहे बिजली की लाख कतारों से घर सजा लें, लेकिन जब तक एक कतार में जलते दीये न हों, तब तक लगता ही नहीं है कि दीवाली आ गई है ।
खाने के बाद ऋतु उन दोनों के बीच चुपचाप आ कर लेट गई । सुहास ने अपनी बांहें उस के गले में डालते हुए पूछा, “क्या बात है, आज हमारी बिटिया फुलझड़ी सी नहीं चहक रही ?”
“कुछ नहीं ।” ऋतु मुंह फुला कर रोआंसी सी ऐसे हो आई जैसे उस की दुखती रग को किसी ने छेड़ दिया हो ।
“नहीं, कुछ बात तो है ।” कहते हुए सुहास ने उस के पेट में गुदगुदी कर दी । इस गुदगुदाहट से वह खिलखिला भी उठी, साथ ही उस की आंखों से आंसू बहने लगे, “मां ने इतना सामान खरीदा है, लेकिन मैं ने कहा कि चिक्की के लिये एक फ़्रॉक भी लाना, लेकिन उन्होंने फ़्रॉक नहीं ला कर दिया ।”
“क्यों भई, तुम ने चिक्की को क्यों फ़्रॉक ला कर नहीं दिया?” सुहास ने भी बनावटी गुस्से से उसे डांटा ।
“मैं क्यों फ़ालतू उस के लिये फ़्रॉक लाती? बंतो के लिये साड़ी तो ला दी है ।”
सुहास ने उसे चिढ़ाया, “अच्छा, तो आप फ़्रॉक इसलिये नहीं लाईं क्योंकि आप को उस से कोई फ़ायदा नहीं होने वाला था यानि कि आप का उस से कोई व्यावसायिक संपर्क नहीं है ?”
“आप तो मेरी बात का बदला ले रहे हैं ।”
“मां बहुत गंदी है ।” ऋतु पिता की सहानुभूति पा कर सिसक उठी.
“नहीं,नहीं, गंदी तो नहीं है । बस, मेरी आदत का उस पर कुछ असर पड़ गया है । दीवाली के बाद मैं फ़्रॉक ले कर आऊंगा ।”
“पक्का वादा?”
“पक्का।”
ऋतु निश्चिंत हो कर पिता के गले में बांहे डाल कर सो गई ।
शाम होते ही पटाखों के शोर से कान गूंजने लगे । उस ने तीनों के कपड़े निकाले । ऋतु का मुंह व हाथ पैर साबुन से धुला कर वह उस से बोली, “जाओ, तुम भी कपड़े बदल लो ।”
वह भी तैयार होने लग गई । वह भी तैयार होने लग गई । जब वह नई साड़ी पहन कर बालों में गुलाब का फूल लगा कर आई तो यह देख कर हैरान रह गई कि सुहास ने तो नये कपड़े पहन लिये हैं, बस, ऋतु वैसे ही बैठी थाली में रखे फूलों से खेल रही हैं ।
उसे यह देख कर गुस्सा आ गया, “तुम ने अभी तक कपड़े नहीं बदले?”
“मैं नये कपड़े नहीं पहनूंगी ।” ऋतु ने उसे गुस्से से घूरते हुए कहा ।
“क्यों?”
“चिक्की भी पुराना फ़्रॉक पहन कर आने वाली है, इसलिये ।”
“मैं तेरे लिये हज़ार रुपये का बनजारा सूट लाई हूं...तू पहनेगी नहीं? ``तेरे पीछे इतना रुपया खर्च किया है। ”
“बिलकुल नहीं ।” ऋतु वैसे ही तनी रही ।
“दीवाली पर भी नये कपड़े नहीं पहनेगी तो तुझे मारूंगी ।”
“मार लीजिये । मैं आप की बात नहीं मानती... आप ने भी तो मेरी बात नहीं मानी ।”
“अभी बताती हूं ।” वह गुस्से में उस की तरफ बढ़ी, लेकिन सुहास ने उसे बीच में ही रोक दिया, “क्यों बात बढ़ाती हो? तुम्हारी तरह तुम्हारी बेटी भी ज़िद्दी है । मैं उसे समझाता हूं ।”
सुहास बहुत प्यार से ऋतु को उठा कर दूसरे कमरे में ले गये । उसे समझाने लगे, “अब तो पूजा का समय हो गया है, इसलिये फ़्रॉक तो आ नहीं सकती । ऐसा करते हैं, अलमारी से तुम्हारा कोई पुराना फ़्रॉक ढूंढ़ लेते हैं, जो छोटा हो गया हो ।”
ऋतु चिढ़ गई, “चिक्की पुराना फ़्रॉक नहीं पहनेंगी ।”
“पुराने फ़्रॉक से एक फायदा होगा ।”
“क्या?” उस ने बहुत अविश्वास से उन्हें देखा ।
“एक तो यह पुराना फ़्रॉक चिक्की को मिल जायेगा । बाद में मैं एक नया फ़्रॉक उस के लिये ला दूंगा । इस तरह से चिक्की के पास दोदो फ़्रॉक हो जायेंगे ।”
“आप सच्ची ला देंगे?”
“हां ।”
“ओहो, चिक्की के पास दो दो फ़्रॉक हो जायेंगे ।”
“चलो, अब फ़्रॉक ढूंढ़ते हैं ।” दोनों ने अलमारी से एक लाल रंग का सफेद लेस वाला फ़्रॉक निकाल लिया। ऋतु ख़ुशी ख़ुशी उछलती अपनी बनजारा सूट पहन कर पूजा वाले कमरे में आ गई । थोड़ी देर में ही बंतो व चिक्की भी पूजा देखने आ गईं ।
ऋतु को नये कपड़े व माला पहने देख चिक्की चिल्लाई, “मास्टरनी जी! बहुत सुंदर लग रही हो ।”
“चल, तू भी फ़्रॉक पहन ले ।” ऋतु बहुत कोमलता से उस का हाथ पकड़ कर दूसरे कमरे में ले गई ।
जैसे ही उस ने चिक्की को सफ़ेद लेस वाला लाल रंग का फ़्रॉक पहने देखा, उस की भृकुटि तन गई। इस से पहले कि वह कुछ कहे, सुहास ने आंखों ही आंखों में उसे मना कर दिया । वह बुदबुदाई, “यह तो मैं ने शालिनी की बिटिया के लिये रखा हुआ था । विदेशी कपड़ा है, बरसों तक चलेगा ।”
“क्या तुम एक छोटे से फ़्रॉक के पीछे साल भर की दीवाली का मज़ा ख़राब करना चाह रही हो? देख नहीं रही, ऋतु कितनी ख़ुश है ।”
जलते हुए दीये, रंगबिरंगी रोशनियों, मोमबत्ती, मिठाई, फलों के बीच भी उस का मन बुझ गया । क्या जरूरत थी उसे इतना सुंदर फ़्रॉक दे देने की ? शालिनी को तो यह फ़्रॉक बहुत पसंद था । जब जब ऋतु यह फ़्रॉक पहनती, वह हमेशा कहती, दीदी यह फ़्रॉक तो मेरी नेहा को बाद में दे देना । अब वह उसे क्या जवाब देगी कि तेरे जीजाजी ने वह फ़्रॉक नौकरानी की लड़की को दान में दे दिया है ।
पूजा का प्रसाद लेने के बाद सब छत पर आ गये । वे एक कोने बम, राकेट जलाने लगे । बंतो एक तरफ ज़मीन पर बैठी बुझते अंगारों को देख रही थी । दूसरे कोने से चिक्की व ऋतु फुलझड़ियां जलाने में लगी हुई थीं, बहुत से लोग छत पर या अपने घर के बाहर भी खुली जगह में पटाखे चला रहे थे ।
अचानक उस के मुंह से चीख निकल गई, “ऋतु...” उस ने देखा पड़ोस की छत से छोड़ा हुआ एक जलता राकेट किसी खराबी के कारण सीधे ऊपर न जा कर ऋतु की ओर बढ़ता आ रहा है । वह और सुहास ऋतु की ओर दौड़े, लेकिन दोनों को पता था कि उस तक पहुंचना नामुमकिन है ।
देखते ही देखते चिक्की ने फुलझड़ी फेंकी और वह ऋतु के सामने आ कर खड़ी हो गई, “मास्टरनी जी ! बचो ।”
तेज आता जलता हुआ राकेट ऋतु को न लग कर चिक्की के पेट पर लगा । वे दोनों जब तक उस के पास पहुंचते, लाल फ़्रॉक में आग लग चुकी थी । सुहास को कुछ समझ में नहीं आ रहा था । वह बेबस सा छत पर इधर उधर देखने लगा । छत पर एक बाल्टी पड़ी थी, जिस के पानी में दीये धोये थे । उस ने उस बाल्टी को उठा कर जल्दी से चिक्की पर डाला । आग तो बुझ गई । चिक्की इतनी जली भी नहीं थी, लेकिन दहशत से बेहोश हो गई थी । बेहोश चिक्की को सब से पहले उसी ने गोदी में उठाया ।
ऋतु जड़ थी, बिलकुल सहमी हुई । शायद उसे डर बैठ गया था कि चिक्की की जगह मम्मी की बांहों में वह भी हो सकती थी । चिक्की को देख कर उसे बुरा भी लग रहा था कि उस के कारण वह जल गई । बंतो लगातार रोये जा रही थी, “बीबीजी! मेरी चिक्की को बचा लो . हाय, कहीं वह मर न जाये ।”
हस्पताल के आपात कक्ष में चिक्की बेहोश पड़ी थी । डाक्टर ने कह भी दिया था, “घाव अधिक नहीं है, बस डर के कारण वह बेहोश है ।”
सुहास को उस ने घर सोने भेज दिया था, लेकिन ऋतु किसी तरह घर जाने को तैयार नहीं हुई । उस के व बंतो के साथ जागती ही रही . उस का दिल अभी भी कांप रहा था कि कहीं चिक्की को कुछ न हो जाये । वह सोच रही थी कि दोष तो वह सुहास को देती है, लेकिन क्या वह स्वयं व्यावसायिक संपर्कों का गुणगान करने वाली दुनिया जैसी नहीं हो गई ? इन बातों से ऊपर उठ कर चिक्की के लिये एक सूती फ़्रॉक तक न खरीद पाई । यदि आग और तेज लग जाती तो ? वह आगे सोच नहीं पाई ।
सुबह तीन बजे चिक्की की जब आंख खुली तो बंतो को देख कर उस के मुंह से निकला, “माई ।” फिर उस ने ऋतु की ओर देखा, “मास्टरनीजी! आप ठीक तो हैं ?”
“तू ठीक तो है न?” ऋतु ने उस के गाल पर हाथ फेरा । अब चिक्की ने उस की तरफ देखा तो उस की आंखों में कोई शिकायत नहीं थी । बस, उसी की कुसूर वार आंखें भर आईं । आंसुओं के पार उसे दिखाई दे रही थीं, चिक्की की दोनों आँखे । उसे लगा, जैसे दीवाली के असली दीये तो अब जले हैं ।
नीलम कुलश्रेष्ठ
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