हंसी के कई प्रकार होते हैं – अट्टहास, मुस्कुराना, खिलखिलाना, मंद मुस्कान आदि। सभी में मनोभाव अलग-अलग तरह के होते हैं। दांत निपोरकर हंसने वाली मुद्रा अलग होती है, वह एक प्रकार से शास्त्रीय हंसी की श्रेणी में आती है। हंसी कभी-कभी अराजक और आगे चलकर उच्छृंखल हो जाती है। वैसे एक प्रश्न हमेशा बच्चे पूछते रहते हैं – हंसना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक या हानिकारक है? ध्यान से देखने पर लगता है कि दोनों है। ईश्वर ने हर एक बात के दो पहलू बना दिए हैं। सभी का सम्यक उपयोग ठीक रहता है। ‘अत्यधिक’ होने से ही परेशानी होती है। वैसे एक कहावत तो सुनी ही होगी-
हंस के बोले दुर्जन,छिप के रहे सियार।
कहे पंथ इन दोनों से,रहियो तुम होशियार।
अर्थ बहुत ही सरल है – यदि कोई व्यक्ति बात-बात में हमेशा हंसता रहता है तो सावधान रहने की जरूरत है। ऐसा व्यक्ति मानसिक दिवालिया होता है। वह किसी भी हद तक जा सकता है। अपनी ख़ुशी के लिए वह किसी को भी मुसीबत में डाल सकता है।
हमेशा हँसते रहने वाला व्यक्ति की विश्लेषण क्षमता घट जाती है। कभी-कभी व्यक्ति को बेहोश होते देखा गया है। कई प्रकार की बीमारियों से वह व्यक्ति ग्रस्त हो सकता है। वह व्यक्ति ऊपर से खुश और ऊर्जा से भरा महसूस होता है मगर वास्तव में वह घबराहट से हँसता है. कुछ व्यक्ति के लिए एक सनकी और झूठे तरीके से चोट पहुंचाता है, हमें परेशान करता है या हमसे घृणा करता है। दरअसल, हम कई चीजों के लिए और बहुत अलग तरीके से हंस सकते हैं। और यद्यपि यह ऐसा कुछ है जिसे हम बहुत बार देखते हैं और अनुभव करते हैं, कोरोना के समय में यदि कोई व्यक्ति हंसने का प्रयास करता है तो वह ‘मुस्कानजीवी’ कहला सकता है। वैसे हंसना एक कला है। इसका अपना अलग आनंद है। इस संसार में कुछ लोगों को देखा है वे हमेशा कद्दू की तरह मुंह लटकाए रहते हैं। न हँसते हैं और न हंसने देते हैं। शायद परमात्मा ने हंसी उन्हें दी ही नहीं है। प्राचीन काल में दुर्वासा मुनि अथवा परशुराम जी नहीं हँसते होंगे। इन लोगों की उत्पत्ति ही रोने के लिए हुई होगी। यदि कोई नहीं रो रहा है तो शाप देकर रुला देना है। इन ऋषियों के अनुसार इस संसार में सभी रोते हुए ही आते हैं। तो फिर हंसने की कला कैसे विकसित कर ली? अतः उसे दंड दे देते थे। वैसे परशुरामजी तो क़त्ल ही कर देते थे। कहीं कोई मुकदमा भी नहीं होता था। उनके नाम से ही राजे-महाराजे कांपने लगते थे। पता नहीं, बिना हँसे वे कैसे रहते होंगे? महर्षि वेदव्यास भी शायद नहीं हँसते होगे? उन्हें अपने ज्ञान-विज्ञान को लिखने में ही समय लगाना पड़ता होगा। वैसे उन्होंने अपनी सहायता के लिए भगवान श्रीगणेशजी को ही सेवा के नाम पर अवैतनिक नियुक्त कर लिया था। वे तो शायद ईश्वर को कोस रहे होंगे कि संगणक की सुविधा मृत्युलोक में पहले से ही क्यों न प्रदान कर दी? हम कह सकते हैं कि जो पढ़े-लिखे समुदाय से आते हैं उनके हिस्से हंसी नहीं होती है। प्राचीन काल में तो हंसने के लिए अलग जाति ही होती थी। उसे विदूषक कहते थे। आजकल कुछ बहुराष्ट्रीय निगमों में ‘मुस्कान अधिकारी’ की नियुक्ति होने लगी है। उनका काम अपने कर्मियों को केवल हंसाते रहना है चाहे उनके यहाँ किसी की मौत ही क्यों न हो गयी हो? वैसे विदूषक को कुछ लोग ‘जोकर’ की संज्ञा भी देते हैं। आज के समाज में यदि कोई सुंदर युवती हंस तो फिर परेशानी ही है। महाभारत काल में भी द्रौपदी की हंसी विनाश का कारण बनकर हस्तिनापुर पर आयी थी। द्रौपदी को भी पता नहीं होगा। यह तो हमलोग बाद में शल्यक्रिया द्वारा पता लगा सके कि महाभारत का असली कारण द्रौपदी की हंसी थी। उसकी हंसी से लम्पट दुर्योधन गलत अर्थ लगा बैठा। उसका साथ भी छिछोरों के साथ था।
अंत में कह सकते हैं कि हंसी से हंसने वाले को सुख मिलता है पर सुनने वाले या देखनेवाले के ऊपर क्या बीत रही है – नहीं पता। हंसनेवाले को तो परमानंद की अनुभूति होती है। मगर कभी – कभी सुननेवाले को घृणा का भाव होता है। अतः आज के समय में हंसना भी सोच-समझकर है।