Will the good days of hockey return? in Hindi Sports by विवेक वर्मा books and stories PDF | क्या लौटेंगे हॉकी के अच्छे दिन ?

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क्या लौटेंगे हॉकी के अच्छे दिन ?

सचिन नें कितने रन बनाए,सहवाग ने कितनी बढ़िया पारी खेली ,विराट बहुत बढ़िया खेल रहा है .....और न जाने ऐसी ही कितनी बातें क्रिकेट के इस दीवाने देश में हर वह शख्श करता रहता है जिसको क्रिकेट की तनिक भी समझ होती है।हर कोई क्रिकेट के सम्बंध में टिप्पणी के मामले में अपने आपको विशेषज्ञ ही समझता है और ऐसा है भी ।भारत में क्रिकेट किसी धर्म से कम नही है।यह वह खेल है जिसके नाम पर ट्रैफिक तक थम जाया करती हैं।जिसमें पैसा भी खूब लगाया जाता है और खिलाड़ियों को सम्मान भी खूब दिया जाता है।इसका नतीजा ये हुआ की हम उस खेल को जो दशकों पहले हमारे लिए ओलंपिक की शान हुआ करता था और जिसमें हमारा दबदबा हुआ करता यानी की हमारा राष्ट्रीय खेल हॉकी है पीछे छूटता चला गया।
यहाँ मेरे यह कहने का बिल्कुल मतलब नहीहै की क्रिकेट को उपेक्षित कर दिया जाए मैं। सिर्फ इतना चाहता हूँ की क्रिकेट के साथ-साथ कम से कम हॉकी को भी प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।आखिर ये हमारा राष्ट्रीय खेल है।क्या यह सिर्फ किताबों में ही लिखने के लिए राष्ट्रीय है।हॉकी की उपेक्षा इस कदर हुई है की आज अधिकांश भारतीयों को अपने हॉकी टीम के कप्तान का नाम तक नही पता होगा।क्या यह सोचनीय नहीं ?क्या यह उस खेल के साथ हमारी शर्मिंदगी को नहीं बयां करता जो हमारा राष्ट्रीय खेल है ?आज जब ओलंपिक में हॉकी टीम नें बढ़िया प्रदर्शन किया तो सोशल मीडिया पर हर कोई बधाइयों का तांता लगावे पड़ा था।अगर यही बधाइयां ,यही जोश,यही सम्मान इस हॉकी को और दिनों में दिया गया होता तो क्या 125 करोड़ से अधिक आबादी वाले देश में हम 10 से 15 विश्व स्तरीय खिलाड़ी न ढूढं पाते ! बिल्कुल ढूढं पाते।लेकिन अफसोस ये हॉकी हमे तब याद आती जब हम ओलंपिक में एक अदद पदक के लिए जूझ रहे होते है ।


खैर छोड़िये इस बार हॉकी नें जैसे-तैसे करके हमें कुछ खुशनुमा पल जरूर मुहैया कराए।शायद ये पहली दफा रहा होगा जब युवा पीढ़ी के लोगों ने इतने बड़े स्तर पर अपनी मोबाइलों में हॉकी स्कोर चेक किया होगा।ये ऐसा दुर्लभ अवसर था जब स्कोर लाइन को देखते हुए हमारी धड़कनें ऊपर नीचे हो रही थी।नहीं तो क्रिकेट के दीवाने इस देश में कब ऐसा होता था ।पुरुष टीम की बेल्जियम और महिला हॉकी टीम की अर्जेंटीना से हार 2003 के क्रिकेट विश्वकप के फाइनल में आस्ट्रेलिया से मिली हार सरीखी चुभ रही है। लेकिन क्रिकेट के लिए सोते -जागते जान न्योछावर करने वाले इस देश की इस नई वाली पीढ़ी नें शायद पहली बार राष्ट्रीय खेल हॉकी को किताबो में रटने के बजाय मैदान पर बेसब्री से खेलते देखा होगा।

लेकिन इस क्षण को लोगों के सामने लाने में जिस एक शख्स नें बड़ी भूमिका निभाई उस शख्स के बारे में इससे पहले किसी को पता भी नहीं था।अधिकांश लोग यह जानते ही नहीं थे इस प्रदर्शन के पीछे एक जीवंट व्यक्ति खड़ा था जिसने मुश्किल समय में हॉकी के ऊपर अपना हाथ रखा ।वे शख्स है नवीन पटनायक जी ।जब सहारा नें हॉकी की स्पॉन्सरशिप करने से इनकार कर दिया तब कोई भी भारतीय राष्ट्रीय खेल पर दांव लगाने के लिए तैयार न था।तब ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक जी ने हॉकी को सहारा दिया।आज एक भारत और श्रेष्ठ भारत के नारों वाले देश में हॉकी खिलाड़ियों की जर्सी पर india के साथ odisha भी खिल रहा था जो एक देश के साथ एक राज्य को भी प्रचारित कर रहा था।जो इस बात को दिखा रहा था की आई पी एल जैसे टूर्नामेंट में पानी की तरह पैसा बहाने वाले देश में अपने राष्ट्रीय खेल के प्रायोजक के लिए देश के बजाय राज्य पर निर्भर होना पड़ता है।

ऐसा नहीं है की इस प्रदर्शन से अब हमारी हॉकी एकाएक परचम लहराने लग जायेगी।लेकिन इतना जरूर है अब ये चर्चाओं में आएगी और सरकार को भी अब राष्ट्रीय खेल को ऊपर उठाने के लिए आगे आना चाहिए।हो सकता है ये प्रदर्शन 1983 के विश्वकप क्रिकेट सरीखा ही साबित हो जाये और हॉकी को बड़े-बड़े स्पॉन्सर मिल जाये ।अगर ऐसा हुआ तो इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है की 125 करोड़ से अधिक की आबादी वाले देश में हॉकी के सचिन,द्रविड़,सहवाग, विराट न पैदा हो....क्वार्टर फाइनल में महिला और पुरुष टीमों की हारें कचोट तो रही है लेकिन जब ऐसा हो तब हमे कुंवर नारायण की ये पंक्तियां याद आ जाती हैं-

कोई फर्क नहीं सब कुछ जीत लेने में और अंत तक हिम्मत न हारने में।