ANGDAIYAN - 2 in Hindi Fiction Stories by Ramnarayan Sungariya books and stories PDF | अँगड़ाईयॉं - 2

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अँगड़ाईयॉं - 2

उपन्‍यास भाग—२

अँगड़ाईयॉं– २

आर. एन. सुनगरया,

कामेश्‍वर हाट-बाजार का जायजा लेता, घूमता-घामता, ढूँढ़ता-ढॉंढ़ता, खोजता-खाजता, तलाश करता पहुँच ही गया रति के डेरे पर। वहॉं चार युवतियॉं सजी-संवरी, हंसी-ठिठोली, हंसती-खिल-खिलाती, ठहाके लगाती, एक-दूसरे के साथ लिपट-लिपट कर उधम-मस्ति करती, ति‍तलियों की भॉंती पंख फड़फड़ाती, चिडि़यों की तरह फुदकती, चहकती........कामेश्‍वर को निकट आते देख .....एक-एक करके खिसक गई, अपने-अपने मुकामों पर......। केवल रति वहीं खड़ी रही, मुस्‍कान के साथ, स्‍वागत सत्‍कार करती हुई, अन्‍दर लौटती हुई, कामेश्‍वर नजरें गड़ाये उसके पीछे-पीछे चलता रहा, रति को ठुमक-ठुमक कर रेंगते हुये देखना, उसे नैन सुख का आभास करा रहा है। कुछ ही क्षणों में दोनों रूम के अन्‍दर पहुँच गये। एक पल के लिये रति ठहरी, झट कामेश्‍वर उसके पीछे चिपक गया, दोनों बाहों के घेरे में कस लिया, रति कश्‍मशाने लगी जैसे उड़ते बाज ने, तैरती मछली को चोंच में दबा लिया हो। देह का स्‍पर्श, घर्षण-सुख भरपूर सम्‍प्रेसित होने लगा......नशीले स्‍वर व दिलकश हिलते-डुलते लहजे में रति बुदबुदाई, ‘’धैर्य-धैर्य.....फुल्‍ल टेम तुम्‍हारे कब्‍जे में हूँ.......।‘’

कामेश्‍वर, रति की गरदन के नीचे, झॉंकते नंग्‍गे-गदराये बदन पर ओंठ चिपकाये हुये था, हटाकर दृढ़ता पूर्वक बोला, पहले इच्‍छाभर लावण्‍य रस चूस लूँ......।‘’ पुन: ओंठ गड़ा दिया, कसाव बढ़ा दिया। बाहों में जकड़े-जकड़े ही, लटकाए-लटकाए पलंग तक ले गया, कामेश्‍वर ने इतनी सावधानी व धीरे से, रति को पलंग पर लिटाया, जैसे वह शीशे की बनी हो, जरा झटका लगा, तो चटक जायेगी। आस्‍ताह से आगोश में सरका कर, अपना चेहरा उसकी महकती-चमकती सूरत के एकदम निकट सटा लिया।

आदिकाल से ही हाट, बाजार मेला, मंड़ई, इत्‍यादि की परिपाठी, परम्‍परा प्रचलित रही हैं, जो आज तक निरन्‍तर चली आ रही हैं, सम्‍भवत: भविष्‍य में भी कायम रहेंगी। साप्‍ताहिक, मासिक, छै: मासी, वार्षिक इत्‍यादि समयान्‍तर से निर्धारित दिवस में ही आयोजित होती हैं। इस तरह के आयोजनों में लगभग समाज के प्रत्‍येक वर्ग के लिये अपने उपयोग की सामग्री, घरेलू कुटीर उद्यौग, खेती, किसानी से लेकर रोजमर्रा के छोटे-बड़े सभी प्रकार के रोजगार में उपयोगी औजार इत्‍यादि विभिन्‍न प्रकार के जीवनोपयोगी उत्‍पादन भी आवश्‍यकता अनुसार उपलब्‍ध रहते हैं। दाम, मात्रा, गुणवत्ता की विश्‍वसनीयता तथा ग्‍यारन्‍टी रहती है। ये सारे कार्यकलाप एक ही परिसर में सुविधा अनुसार प्राप्‍त हो जाते हैं।

कामेश्‍वर ऐसे ही धन्‍धे, रोजगार, क्रय, विक्रय आदि-आदि अन्‍य कई लेन-देन के प्रकरणों में बिचौलिये के कामों में माहिर है, प्रचलित है। इसी तारतम्‍ब में अपनी निजि आवश्‍यकताऍं भी पूर्ण करने की लत का समाधान, संतुष्‍टी, संतृप्‍त, संतोष आदि अपनी इच्‍छा अनुसार भरपूर सुविधा, सहज, सुलभ प्राप्‍त हो जाती है। थोड़ी देर का छिछोरापन, चरित्रहीनता, अमर्यादित भोगविलास से तबियत छक्‍क, आनन्‍ददायक, रिलेक्‍स, वगैर तनाव के औरत देह का सुख पूर्ण रूपेण आपस में रजामन्‍दी के मुताबिक, बिना हथकंडे के, जितना मन चाहे, इच्‍छाभर चूस कर प्‍यास बुझा लो, बेखटके, तत्‍काल शारीरिक आनन्‍द का मजा, दिल-दिमाग की संतुष्टि पा लेना कितना आसान व सस्‍ता है। ऐसी ही खोज-खबर की तलाश में कामेश्‍वर हाट-बाजार का चक्‍कर लगा रहा था कि दल्‍ली मिल गया, उसने बताया रति ने भी डेरा डाला है; अपने कुछ खास ग्राहक, चाहने वालों की सुविधा के लिये।

...........बस फिर क्‍या था, आ गया सूँघते-सूँघते रति के डेरे पर.......लगता है, रति का चस्‍का लग गया है, कामेश्‍वर को.......क्‍यों ना लगे स्‍वाद है ही निराली कद-काठी, देह में मस्‍त मांसलता नमकीन, चिकनी-चिकनी, रेश्‍मी त्‍वचा नरम-नरम ! जालिम इतनी करारी है कि एक बार संतोष नहीं होता, मन नहीं भरता बारम्‍बार तीव्रता उबलती, उफान आता रहता है वासनाओं की ऐसी तलब उठती है कि काबू करना कठिन हो जाता है, अशॉंत मन उताबला होने लगता है। असहनीय स्थिति में मजबूर हो जाता है तबियत, इच्‍छा पूरी करने हेतु.......।

दरासल, रति बहुत ही समझदार एवं पहले से ट्रेन्‍ड की हुई है, उसका काम है, ग्राहकों को खुश करना एवं ऐसी कुछ छाप छोड़ना है, उनके दिल-दिमाग पर कि वक्‍त आने पर सबसे पूर्व रति की बात-व्‍योवहार एवं तन-बदन-मन, ग्राहक को सदैव याद रहे......वाह-वाह मजा आ गया, संतृप्‍त हो गया, खुश मिजाजी, प्रसन्‍नता महसूस हो रही है।

रति समझती है अच्‍छी तरह मर्द का मर्मस्‍थल शरीर में कहॉं है। उसे ही जानकर मुलायम मर्म पर कब्‍जा करके, मर्द को अपने सौन्‍दर्य के शीशे में उतारती है। बगैर ना-नुकर के, तनाव मुक्‍त करके, क्‍लाइमेक्‍स उत्‍पन्‍न होने पर ही रति अपनी सर्वोच्‍य सेवाऍं अर्पित करती हैं। तभी वह समग्र संतृप्‍त करने में पूर्ण सफल होती है।

पुरूष अपना पुरूषत्‍व प्रयोग का अनुभव करता है लिहाजा उसका शारीरिक स्खिलन होते ही परम आनन्‍द की अनुभूति होती है। यही आत्‍मानुभूति उसके दिल-दिमाग में अंकित हो जाती है। जो बारम्‍बार रति की ओर आकर्षित होते रहने हेतु प्रेरित करती है जब उत्‍प्रेरण प्रक्रिया बढ़ने लगती है, तब रति की याद सताने लगती है। उसकी आवश्‍यकता महसूस होने लगती है। इसीलिये समय आने पर रति को ही ढूँढ़ निकालना चाहता है, मन.......।

कामेश्‍वर-रति बेसुध अस्‍त-व्‍यस्‍त एक-दूसरे के हाथ-पैरों में उलझे-पुलझे पलंग पर नींद में लुभावने सपनों में खोये हुये थे, कि कर्कश आवाज से चौंक कर जाग उठे। हड़बड़ाहट में एक-दूसरे से अलग-अलग हुये। अपने-अपने वस्‍त्र इधर-उधर बिखरे पड़े थे, चुन-चुन कर पहनने लगे, आवाज का पता लगाया, देखा स्‍टूल पर रखा दूध का भरा ग्‍लास, नीचे गिरा, दूध बिल्‍ली चाट रही है। दोनों ने चैन की सॉंस ली, भयग्रस्‍त हो गये थे, चोर की दाड़ी में तिनका......तिनका......दोनों लम्‍बी-लम्‍बी सांसे अन्‍दर बाहर करते हुये, हॉंप रहे थे, मगर इत्मिनान पूर्वक बेड पर ही बैठे रह गये, ‘’कब ऑंख लग गई।‘’ कामेश्‍वर बोला, ‘’पता ही नहीं चला।‘’

‘’कितने दिन की भड़ास निकाल रहे थे, भूखे, भुक्खड़........।‘’ रति ने रात बीती बताई, ‘’इश्‍क का नशा सवार था। रबड़ की पतुरिया, समझकर, मुद्रा बदल-बदलकर पिले रहे दे सटा-सट दे दमा-दम, रग-रग ने पसीना छोड़ दिया, मगर तुम्‍हारी नीयत नहीं भरी, जब तक तन-बदन थक्‍ककर, टूटकर, चूर-चूर नहीं हो गया। सम्‍पूर्ण शक्ति, ऊर्जा, जोश सम्‍प्रेषण के उपरान्‍त जिस पोस्‍चर में उसी हालत में पड़े रहे निडाल होकर, निन्‍द्रामग्‍न हो गये........।‘’

‘’हॉं मगर मजा आ गया, अपूर्व।‘’

‘’वासना का बुखार छूमन्‍तर हो गया। ढीला-ढाला, लुन्‍ज-पुन्‍ज होकर।‘’ कामेश्‍वर की नजर, रति पर पड़ी अस्‍त–व्‍यस्‍त जुल्‍फों से झॉंकता उसका चेहरा, और अधिक आकर्षित कर रहा है, जैसे बादलों के झुरमुटों में चॉंद चमक रहा हो, तत्‍काल रति को अपनी गोद में खींच लिया।‘’

‘’अब तो मुक्‍त करो.....।‘’ रति मुस्कुराई। ‘’जरूर जरूर, एक फाइनल टच और.....।‘’ जकड़ लिया बॉंहपाश में। रति हल्‍के–हल्‍के चीखती हुई कश्‍मशाने लगी......., ‘’मन नहीं भरा........।‘’

‘’ना जाने कब जी भरेगा, तुम्‍हारा लहराकर लिपटना, फिसलना, चिपक-चिपक कर स्‍पन्‍दन, स्‍पर्श करना, कोमल-कोमल ओंठों का चुम्‍बन, चूसना, चबाना आहिस्‍ता-आहिस्‍ता उन्‍नत उरोजों का तन-बदन पर रगड़ना, उनमें चेहरा छुपाना, हथेलियों से गुदगुदाना, मसलना, किस-किस काम क्रिड़ा से मन भरेगा, शरीर की संप्‍दा ही इतनी असीमित सम्‍भावनाओं कोआमन्त्रित करती है, उफ्फ ! कितना विशाल भंडार है हुस्‍न की दौलत का कोई कितनी लूटेगा.......जन्‍म-दर-जन्‍म लेना होगा....।‘’

‘’अगला दिन मेरे पास खाली है।‘’ कामेश्‍वर ने याचना की।

‘’क्‍या मंशा है।‘’ रति ने तपाक से पूछा।

‘’और एक दिन तुम्‍हारा संग, साथ, शौहबत मिल जायेगी.....।‘’

‘’हॉं, क्‍यों नहीं !’’ रति ने सकारात्‍मक संकेत दिया।

कामेश्‍वर खुश हो गया, चहक उठा, ‘’कल तक....मगर दल्‍ला।‘’ शंका जाहिर की।

‘’नो प्राबलम !’’ रति बोली।

‘’यानि !’’ कामेश्‍वर ने पूछा।

‘’दल्‍ला मेरा गुलाम है।‘’ रति ने बताया, ‘’वह मेरे आर्डर पर काम करता है, मैं उसकी मालकिन हूँ। वह मेरा नौकर है, मेरी उँगलियों के इशारे पर नाचता है।‘’

रति द्वारा दल्‍ला की जानकारी विस्‍तार से सुनकर कामेश्‍वर दंग्‍ग रह गया। वह समझता था, दल्‍ला रति का पति है। किसी खास कारण अथवा कोई ज्‍वलंत मजबूरी के तहत ऐसे तरीके को अपनाना पड़ा होगा। ज्‍यादा गहराई में जाने की जरूरत ही नहीं समझी, अभी तक, परन्‍तु अब रति की चाहत बढ़ती जा रही है, उसे छोड़कर दूसरे मुकाम पर जाना गवारा नहीं है।

‘’तुम्‍हारी असलियत जानने की जिज्ञासा और बढ़ गई।‘’ कामेश्‍वर ने पूछ ही लिया।

‘’हॉं कुछ ऐसे हालातों ने आ घेरा कि मजबूरी में ये रास्‍ता अपनाना पड़ा।‘’ रति की इच्‍छा सब कुछ दिल-दिमाग की गॉंठें खोलने की मंशा प्रतीत हुई, ऐसा आभास हुआ।

‘’तुम्‍हारी बातों से लगता है कि तुम पढ़ी-लिखी, सुशील अच्‍छे परिवार, खानदान की हो....।‘’ कामेश्‍वर ने सब कुछ जानने का इरादा व्‍यक्‍त किया।

‘’हॉं, शिक्षित हूँ।‘’ रति ने अपने अतीत के काले पृष्‍ठों को कुरेदा, पलटा। ‘’तुम्‍हें अपनी गोपनीय कथा बताने, सुनाने में कोई गुरेज, हर्ज तो नहीं.....।‘’

‘’नहीं बिलकुल नहीं।‘’ रति ने कोई परहेज नहीं किया, ‘’वैसे भी अनेक लोगों को तो मेरी कहानी मुँह जवानी याद है।‘’

‘’हॉं तो बताओ।‘’

‘’मेरे साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ।‘’ भूमिका बनाई।

‘’कैसा धोखा !’’ कामेश्‍वर की जिज्ञासा बढ़ने लगी।

‘’एक बिगड़ेल रईसज़ादा अपनी चिकनी-चुपड़ी प्‍यार, मोहब्‍बत की बातों में भरमा कर, बहकाकर, अपनी हवस की शिकार बनाकर, चम्‍पत, गायब हो गया। बहुत तलाश किया, ढूँढ़ा, खोजा, जगह-जगह खाक छानी, मगर मायूसी ही हाथ लगी ! गली-गली, बस्‍ती-बस्‍ती, मोहल्‍ले-मोहल्‍ले बदनामी के चर्चों ने मेरा जीना दूभर कर दिया। सामाजिक, पारीवारिक लोकलाज के दबाव में घर-परिवार, कुटुम्‍ब विरादरी वालों ने निकाल बाहर किया।‘’

‘’फिर आगे...।‘’ कामेश्‍वर ने गम्‍भीरता से पूछा।

‘’ऐसी हालत में, दल्‍ला की सहानुभूति मुझे मिली। उसने भी आसमान के तारे दिखाये....दर-बदर की ठोकरें झेलते-झेलते थकहार कर ये धन्‍धा लिखा था नियति ने भटकाव में दल्‍ला मेरे साथ रहा धैर्यपूर्वक..........मेरे सहारे ही दल्‍ला का दाना-पानी निर्भर है.........।‘’

न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍

--क्रमश:----३

संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय- समय

पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल

सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं स्‍वतंत्र

लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)

मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍