टेढी पगडंडियाँ
अध्याय - 9
बीबीजी ओ बीबीजी , लीजिए छल्लियाँ ले आया हूँ – बसंत घेर के बीचोबीच खङा उसे पुकार रहा था । एक ये बसंत ही तो है जो लाख मना करने पर भी उसे बीबीजी कहकर संबोधित करता है । बाकी सब बङे उसे किरणा कहते हैं जिसकी नौबत कभीकभार ही आती है और बराबर के तथा छोटे सब कहते हैं चाची । चाची के नाम से ही वह इस गाँव में जानी जाती है ।
आजा भाई , ले आ – किरण ने बसंत को जवाब दिया । साथ ही उसने रिङकने से मक्खन का पेङा निकालकर कटोरे में रखा । दोनों हाथ लगाकर मधानी साफ की । लस्सी का चटूरा चप्पन से ढककर वह चौंके से बाहर आई । थाली बसंत के आगे कर दी । बसंत ने परना ही किरण को पकङा दिया – लो बीबीजी आप अंदर रख लो ।
इतनी सारी , ये तो बहुत ज्यादा हैं ।
कोई न जी । बच्चा खा लेगा । थोङी सी तो हैं । नीचे तोरियाँ है , खेत में लगी थी तो आते हुए ये भी तोङ लाया ।
किरण ने रसोई में ले जाकर तोरियाँ फ्रिज में रखी और भुट्टे टोकरी में । फिर थाली में चार रोटियाँ , आम का अचार और लस्सी का गिलास भर लाई – ले भाई खा ले ।
बसंत बिहारी लङका है ।बिहार के भागलपुर जिले में कोई गाँव है , वहाँ का । घर में माई ,पापा के अलावा सात भाई बहन और है । आज से दस साल पहले मौसा उसे गाँव से अपने साथ ले आया था । घर में तो इतने लोगों की रोटी भी दूभर थी । कभी चावल का मांड पीकर पूरा दिन कटता तो कभी चना खाकर । उसकी माई ने अपनी जीजा के हाथ पैर जोङे थे कि इसे भी परदेस ले जाओ । चार पैसे का डोल बैठ जाए तो ठीक , नहीं तो ये छोरा तो पेट भर के रोटी पा जाएगा । बारह साल का रहा होगा तब बसंत जब वह रेल पर सवार होकर यहाँ पंजाब आया था । दो रात और एक दिन का सफर खत्म होने में नहीं आ रहा था । मौसा ने उसे लाकर इस आँगन में खङा कर दिया था । बदले में पाँच हजार रुपये खीसे में डालकर ले गया तब से ये लङका इसी घर में है । दो भैंसों और एक गाय का चारा सानी , उन्हें नहलाना , धार निकालना , फिर दूध बङी हवेली ले जाना सब इसी के जिम्मे है । दस ग्यारह बजे सुबह के काम से खाली होकर वह खेत में चला जाता है । पशुओं के लिए चारा काटकर लाने के लिए । वहाँ अक्सर निराई गुढाई करने लगता है । मेहनती लङका है । पूरा दिन मेहनत करता है बदले में रोटी के सिवा कुछ नहीं चाहिए उसे । कभी किरण उसे खिला देती है , कभी बङी हवेली से खा आता है । जो मिल जाए , उसी में खुश रहता है । एक बार आ गया तो फिर कभी दोबारा गाँव गया ही नहीं । किरण को वह बीरे का प्रतिरूप दिखाई देता है । बहुत मोह आता है उसे इस लङके का । इसलिए खास जिद करके उसे कुछ न कुछ खिला देती है । इसी कोठी के पिछले हिस्से में गाय भैंसों का घेर है जहाँ चार पाँच कमरे बने हैं । दो कमरों में चौपाये और उनके कटरु , बछङू रहते है । एक कमरे में भूसा भरा रहता है और एक कमरे में बसंत रहता है । उस कमरे में एक चारपाई पङी रहती है जिसपर एक रंगउङी , घिसी हुई , बदरंग सी चादर बिछी रहती है । पैताने ऊपर ओढने को एक चादर ओर एक कंबल । एक तार पर उसके कपङे टंगे रहते हैं । साल में दीवाली पर उसे दो जोङी कपङे मिल जाते हैं , उन्हीं से उसका काम चल जाता है ।
किरण ने एक बार फिर से उसका गिलास लस्सी से भर दिया है । लस्सी पीकर बसंत ने नल पर जाकर थाली और गिलास मांजा और बरतन लाकर किरण को थमाए तो बेसाख्ता किरण के मुँह से निकला – बीरे रहने देता न , तूने क्यों मांजे ये बरतन ।
बसंत को बात समझ में नहीं आई । उसने पलटकर पूछा – क्या कहा बीबीजी । किरण झेंप गयी - नहीं कुछ नहीं । बसंत चला गया तो वह गुरजप को उठाने भीतर चली गयी । सोया हुआ गुरजप कितना मासूम दीखता है । घुटने पेट में घुसाये आराम से सो रहा है । उसका मन नहीं हुआ बच्चे की नींद खराब करने का । चादर ठीक से ओढाकर वह बाहर आ गयी । कल बृहस्पतिवार था इसलिए कल के कपङे भी धोने को रखे थे । आज के उतारे कपङे लेकर वह हैंडपम्प पर धोने बैठ गयी । साथ साथ नलका खींचना पङ रहा था । अभी अपने घर होती तो कपङे माँ धो रही होती । जब सीरीं की शादी नहीं हुई थी तो कपङे वह धोती और किरण सूखने के तार पर फैलाती जाती । ढेर सारे कपङे कब धुलकर सूखने लग जाते , पता ही नहीं चलता था । यहाँ गिनती के कपङों में ही हाथ और कमर दोनों दुखने लगते हैं । बस लगते माँ और सीरीं ने उसे कोई काम करने कहाँ दिया । हर पल यही कहती – तू पढ ले । काम तो हो जाएगा ।
पर पढाई भी किरण से दो कदम आगे जाकर बैठ गयी । कितने चाव से उसने अपना बारहवीं का रिजल्ट देखा था । बापू ने उसके पास होने की खुशी में माई मदारन की चौकी रखवाई थी । सारे गोतियों को बुलवा भेजा था । देर रात तक कीर्तन चला था । भगत पर माई के उतरने के बाद शराब और मीट का भोग चढाया गया था । सब गली मौहल्ले के लोग अघाकर खाना खाकर गये थे । साथ ही सलाह दे गये थे – भई देख मंगर , बहुत होली पढाई । अब लङकी के हाथ पीले करके छुट्टी पा । पर मंगर और बीरे ने उसकी पढने की इच्छा देखते हुए उसे कालेज जाने दिया था ।
किरण का ऊँची शिक्षा लेने का सपना पूरा होने का समय आ गया था । वह अपनेआप में सिमटी सी कक्षा में गयी । वहाँ ढेर सारे लङके लङकियाँ बैंचों पर बैठे प्रोफेसर साहब का इंतजार कर रहे थे । जैसे ही वह दरवाजे पर पहुँची , एक शरारती लङके ने उठकर जोर से कहा – गुड मार्निंग मैम और साथ बैठे लङके को आँख मारी । पूरी कक्षा ठहाकों से गूँज उठी । सब लङके लङकियाँ उसे ही देख रहे थे । वह असहज हो गयी ।
नाम क्या है तेरा – क्लास के दूसरे कोने से आवाज आई ।
जी किरण , किरणदेवी
इस दुबली पतली काया पर दो दो नामों का बोझ किसने लाद दिया ।
च च च बहुत नाइंसाफी है यह तो । कोई और बोला ।
तभी प्रोफेसर आ गये तो खिंचाई का यह सिलसिला वहीं रुक गया पर पूरा दिन उसका पढाई में मन न लगा । एक के बाद एक लैक्चर होता रहा पर वह अपनी ही सोच में डूबी रही । उसे सारा समय हर आँख अपने चेहरे पर चिपकी लग रही थी ।
बाकी कहानी अगली कङी में ...