रिश्तों की दुनिया की अनेक विविधताएं है, रिश्तों के बिना न परिवार, न समाज, न देश की कल्पना की जा सकती है, कहने को तो यहां तक भी कहा जा सकता कि रिश्तों बिना जीवन कैसे जिया जा सकता है ? रिश्तों का अद्भुत संगम इंसान की इंसानियत पर पहरे का काम करता है। समय के अंतराल में रिश्तों की दुनिया मे अनेक परिवर्तन देखने को मिलते, उनमें परिवार भी अछूता नहीं रहा है।
आज सवाल यही है, क्या आज भी रिश्तों की गरिमा के प्रति इन्सान की जागरुकता सही और उचित है ?
क्या, हमारी रिश्तों के प्रति संवेदनशीलता काफी कमजोर हुई है ? इन वर्षो में, जब से हम आर्थिक चेतना का उपयोग दैनिक जीवन में ज्यादा करने लगे है। चलिए, अंतर्मन के किसी कोण से इस सवाल का उत्तर दीजिये, क्या आप वो ही आदर, सम्मान बुजर्गों और माँ बाप को देते है, जो वो आज से कुछ समय पहले हम से भरपूर पाते थे ? जानता हूं, आप सत्य से आँख नहीं चुरा सकते। अगर आप फिर भी सहमत नहीं है, तो बता दीजिये आज बुजर्गो तथा माँ, बाप के साथ जो घटित घटनाओं का वर्णन समाचार पत्रो, टी. वी. तथा अन्य साधनों से हम तक पंहुचता है, वो सभी असत्य है ? याद कीजिये, कुछ सालो पहले के वो दिन, अगर आप इस सदी से पहले पैदा हुए हैं, तो आप को याद होगा, हमारा एक संयुक्त परिवार होता था, जिसे अब खोजना पड़ता है, उस समय क्या परिवार जिस शासन और अनुशासन व्यवस्था के अंतर्गत चलता था, क्या आज हम ऐसी व्यवस्था के अंतर्गत अपना छोटा सा परिवार चला रहे है ? थोड़ी हिचकिचाहट का अनुभव, शायद हो रहा है, क्योंकि हम जानते है, कि आज परिवार शब्द एक उच्चारण मात्र रह गया है। हर सदस्य अपनी पूर्ण स्वतन्त्रता का भरपूर उपयोग खुद के लिए कर रहा है। उसकी भावनाओं में परिवार के प्रति अपनत्व की भावना कमजोर होती दिख रही है। परिवार की मजबूरी है, खुली स्वतन्त्रता से सुखी नहीं रह सकता,उसे संस्कारों की भी जरुरत होती है।
परिवार का बिखरने से हर एक प्रभावित हुआ है, हमें प्रेमयुक्त जो सुरक्षा मिलती उससे हम ही वंचित हुए है। इस में दोष हमारा ही है, परिवार की परम्परा को हम ने ही तोड़ा है। सवाल उठता है, परिवार क्यों बिखरते है, इसके दो प्रमुख कारण हो सकते है, आर्थिक समृद्धि और अति स्वतन्त्रता की चाह। पारिवारिक रिश्तों का सारा दरमदार आपसी सम्बन्धों की पारस्परिक व्यहारिकता से जुड़ा है। "रिश्ते या आपसी सम्बंधों में तनाव, शक और गलतफहमी के पेड़ की उपज होती है, और आदमी की समझ को जहरीला बनाने में इनका महत्वपूर्ण योगदान होता है। इस समझ के कारण परिवारों में राजनीति का प्रयोग होने लगा, परिवार टूट कर बिखरने शुरु हो गये है"। यह भी कई लोगों का विश्लेषण है, जो काफी हद तक सही है।
परिवार की भूमिका को आज हम भले ही हल्के से ले, पर इतिहास गवाह है, परिवार बिना संस्कार की खेती मुश्किल है। आज व्यवहार की दुनिया में बेहद तंगी का दौर चल रहा है, आदमी की गुणवता की कीमत, परख की मोहताज हो रही है। आपसी रिश्तों में मधुरता की तलाश करने पर ऊपरी सतह तक खोखली नजर आने लगी है। ऐसे में चिंता की बात यही है, कहीं हम नितांत अकेले होकर मानसिक अवसाद के शिकार न हो जाए। परिवार की खासकर संयुक्त परिवार की उपयोगिता आज भले ही कम समझ में आ रही है, परन्तु जिस दिन आदमी ऊपरी दिखावट का यथार्थ जान लेगा, तब उसे अपनी आर्थिक गुलामी का अफ़सोस जरुर होगा। मैं यहां कोई डर और भय का वातावरण नहीं तैयार कर रहा हूँ, क्योंकि भय की शुरुवात तो होने लगी है, आदमी घर से अशांत होकर निकलता है, और जानता है, वो चलती सड़क पर ही नहीं, वो अपने घर में भी सुरक्षित नहीं है। किसी तरह का घटनाक्रम घटने से शायद उसे सहारा देने वाला भी कोई नहीं मिले, यह जीवन की लाचारी नहीं तो क्या है ?
आज की विचारधारा ने अर्थ की मजबूती को ही हमने, जीवन की पूर्ण मजबूती समझ लिया है, इस समझ के अनुसार कोई भी ऐसा शारीरिक सुख नहीं है, जो अर्थ से खरीदा नहीं जा सकता। बेचारे मन को तो हमने सारे दिन साधनों की खरीद फरोख्त में लगा दिया, भला ऐसे में उसे आत्मिक आनन्द की तलाश का समय कहां मिलेगा ? मैने ही नहीं, शायद आपने कभी अनुभव किया होगा कि घर में तमाम कीमती साज समान से सजे होने के बावजूद श्मशान जैसी वीरानी लिए हम आजकल रहतें है। वैसे ख़ौफ़ भरे वातावरण में घर में कामकरने वाले भी चलते फिरते रोबोट की तरह लगते है। एक बन्धी बंधाई जिंदगी, बिना किसी आत्मिक ख़ुशी के कब तक स्वस्थ रह सकेगी, यह एक ज्वलन्त प्रश्न है, इसका समाधान नहीं होने से मानसिक और शारीरिक रोगों से हमारा बचाव भाग्य पर ही निर्भर करता है। डॉक्टरों और चिकित्सकों की राय में ब्लड प्रेशर व डाईबिटिज मानसिक तनाव के सहयोग से शरीर के भीतर अपना अस्तित्व ढूंढते है। आखिर अकेला भ्रमित जीवन कहाँ से सही जीवन शैली अपनाये, कई मनोचिकित्सक तो यहां तक स्वीकार करते है, बिना बड़े बुजर्गो के परिवार गलत दिशा ले लेते है, और किसी भी संगीन परिस्थिति के सामने ऐसे परिवार घुटने टेक देते है, अपने जीवन के कदम, आत्महत्या की ओर अग्रसर कर देते है। कहने में कोई सार नहीं कि पूरा परिवार अगर समाज से घुलमिल कर रहता, तो शायद ही ऐसी नौबत आये। हम कितना ही अपने आप को महत्व दे, पर परिवार के बिना जीवन की कल्पना करना सहज नहीं है। देखा गया कि बच्चे बड़े होने के बाद जब अपना परिवार तैयार करने लगते है, तो वो उस परिवार के प्रति गफलत और नासमझी करने लगते है, जिनसे उनका उद्गगम हुआं था। भूल जाते है, उस से बदतर स्थिति भविष्य में उनके निजी परिवार की भी होनी है, इस सत्य से वो दूर रहने की कोशिश आज कर रहे, परन्तु वक्त बीतते देरी कितनी लगती है।
आखिर संयुक्त परिवार की वकालत मैं, क्यों कर रहा हूं ? इसका एक ही कारण है, आज का अवसाद। सन्तान होते हुए भी नहीं जैसी स्थिति हो तो जीवन को फिर किस सही भूमिका की तलाश है ? हंसने के लिए वातावरण न बने, तो फिर किस ख़ुशी की बात हम कर रहे है ? विषम स्थिति में विश्वास योग्य माहौल नहीं तो फिर क्या जीवन समस्याओं का समाधान सरलता से कर पायेगा ? उम्र की बढ़ती सीढ़ियों को क्या सहारे की जरूरत नहीं होगी ? बीमारी के समय सिर्फ अर्थ से पाये इलाज से हम स्वस्थ हो जाएंगे ? ऐसे अनगिनत और कई सवालो के जबाब शायद ही हम दे पाये। समझने की बात है, अभी तक पुराने परिवारो के संस्कारों के कारण अभी तक जीवन कुछ सुरक्षित है, नहीं तो अर्थ का अनर्थ शायद और भी जटिलता हमें दे सकता है। अभी भी बहुत सी जगह है, जहां पड़ोसी भी काम आते है, नहीं तो आज आदमी परिचय का मोहताज हो रहा है। इसका साधारण सा कारण अंहकार और अभिमान है, जो किसी की सहायता भी नहीं करना चाहता, न ही किसी का सहयोग लेना चाहता, कुछ लोग इसे अहसान कहते है। दंभ, घमंड़ इन्सान में, अर्थतन्त्र का तोहफा है, उसे अस्वीकार चन्द समझदार लोग ही करते है। सूक्ष्मता से अगर अध्ययन करे, परिवार की गंभीरता भरी छवि में हम एक अच्छे व्यक्तित्व का निर्माण कर सकते है, कहते है ना, परिवार से ही गुणता का विकास होता है।
लेखक ✍️कमल भंसाली