o spring - 2 in Hindi Poems by महेश रौतेला books and stories PDF | ओ वसंत - 2

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ओ वसंत - 2




ओ वसंत भाग-२

३१.

जो तारे माँ ने दिखाये

जो तारे माँ ने दिखाये
वे अभी भी चमक रहे हैं,
जो ध्रुव तारा पिता ने दिखाया
अभी भी अटल है,
जो शब्द माता-पिता ने सिखाये
अभी भी जिह्वा पर हैं,
जो रास्ते माता-पिता ने बताये
वे अभी भी अडिग हैं,
जो प्यार परिवार ने दिया
अभी भी अविस्मरणीय है,
जो शक्ति देश ने दी
वह अभी भी अजेय है,
जो सच प्रकृति ने दिया
वह अभी भी अमिट है,
जो संस्कार आत्मा के थे
वे अभी भी अमर हैं।
********
३२.

जो बार-बार बसंत दिखाता है

मेरे अन्दर एक रूप है
जो विस्तार पाता है,
एक पहाड़ है
जो ऊँचा उठता है,
एक नदी है
जो हर रोज बहती है,
एक महासागर है
जो छलकता रहता है,
एक अनादि शब्द है
जो गुनगुनाता रहता है,
एक भू- भाग है
जो ब्रह्मांड सा नाचता है,
एक वृक्ष है
जो बार-बार बसंत दिखाता है,
एक देवता है
जो किसी का हाथ थामता है,
एक उजाला है
जो निरन्तर चलता रहता है,
एक स्नेह है
जो याद सा निकलता है।
********
३३.

क्या सोचूँ

क्या सोचूँ
कि शान्ति का साम्राज्य
मेरे पास रह जाय,
मौसम की सृष्टि
गदगद कर जाय,
क्या सोचूँ
कि दुनिया का तनाव मिट जाय,
आत्मा के लिये
बर्फ गिरे
और धरती पर वृक्ष उग आएं।
******
३४.

क्रम

एक दिन विराम लग जायेगा
साँसें थम जायेंगी,
आलोचना-सराहना का दौर ठप्प हो जायेगा।
खिड़की पर बैठना
पहाड़ों पर जाना,
रास्तों को झाँकना
गीतों पर थिरकना,
उड़ती चिड़िया को देखना,
बन्द हो जायेगा।
प्यार भरे वार्तालाप
आकाश सी खुली मुस्कान,
शौर्य का सौन्दर्य
धरती पर पड़े कदम,
परोपकार के कथानक
स्मृति बन जायेंगे।
उतरते-चढ़ते संदर्भ
सुख-दुख का व्यापार,
त्यौहारों की मस्ती
लोगों का मिलना,मेलों में जाना,
गपशप का होना
जीवन से उतर जायेंगे।
*******
३५.

कितने पथ

कभी-कभी मेरे अन्दर
कितने पथ बन जाते हैं,
समय-समय पर उबड़-खाबड़
कितने पथ रह जाते हैं,
हिमगिरि तक भी जाना है
सागर तक भी आना है,
गंगा का मन ले-ले कर
तीर्थों को भी जीना है।
कितने-कितने पथ अपने हैं
पथ पर ही तो ममता है,
जहाँ-तहाँ भटक-भटक कर
अपना ही घर तीर्थ बना है।
कभी-कभी मन के अन्दर
जन की जिह्वा बस जाती है,
धीरे-धीरे मेरे अन्दर
कितने ईश्वर आ जाते हैं।
********
३६.

कुछ

मन में कितने बोझ पड़े हैं
कुछ हम ले लें
कुछ तुम ले लो,
मन में कितना प्यार पड़ा है
कुछ हम ले लें
कुछ तुम ले लो।
मन में कितने भगवान पड़े हैं
कुछ हम पूजें
कुछ तुम पूजो,
मन में कितने शब्द पड़े हैं
कुछ हम कह लें
कुछ तुम कह लो।
मन में कितने सद्भाव पड़े हैं
कुछ हम खोजें
कुछ तुम खोजो,
मन में कितनी शान्ति पड़ी है
कुछ हम रखें
कुछ तुम रखो।
मन में कितनी धूप खिली है
कुछ हम सेकें
कुछ तुम सेको,
मन में कितना सत्य लिखा है
कुछ हम ढूंढें
कुछ तुम ढूंढो।
*****
३७.

कुछ देर अमर हो जाऊँ

कुछ देर अमर हो जाऊँ
क्षणभर सत्य को पी
ताजा हो जाऊँ,
अँधेरे से उजाले की
चलता रहूँ।
रास्ता बीते नहीं
साथ छूटे नहीं,
अमिट स्नेह में घुल
कुछ देर अमर हो जाऊँ,
समय की परंपरा से
तृप्त हो जाऊँ।
*******
३८.

मन में कितने सच सोये हैं

मन में कितने सुख बिखरे हैं
मन में कितने सच सोये हैं,
दूर खड़ा है बचपन सीधा
दूर रूका है यौवन पूरा।
कहीं बढ़ा है हाथ स्नेह का
कहीं चला है कदम त्याग का,
हर ऋतु की पहिचान सुनहरी
हर क्षण का लय अनोखा।
मन में कितने सच सोये हैं
तन में कितने पथ खोये हैं,
सत्य कहीं तो बर्फ बना है
कहीं पूजा से मन उठा है।
हम जल को गंगा कहते हैं
उसे श्रद्धा से सदा लेते हैं,
मन से मन का व्यास बढ़ा है
जीवन का जीवन इनाम बना है।
********
३९.

मुझे हिमालय की हवा में देखो

मुझे हिमालय की
हवा में देखो
जहाँ मैं जन्मा हूँ।
मुझे सागर की
उर्जा में देखो
जहाँ मैं आ गया हूँ।
मुझे आसमान की
ऊँचाई में पढ़ो
जहाँ तक मैं उठ चुका हूँ।
मुझे ना दो प्रान्त का नाम
राज्य की पहिचान,
मेरे डीएनए
सर्वत्र व्याप्त हैं।
कुछ सोचो
लम्बी साँस लो
मुझे स्वयं में पागे।
उन्मुक्त खुशी में
एक विराट रूप देखोगे,
बिल्कुल वैसा ही
जैसा अर्जुन ने
श्रीकृष्ण में देखा था।
*********
४०.

मेरा मन तो यायावर है

मेरा मन तो यायावर है
आज यहाँ है
कल वहाँ है।
पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण
कहीं चला है
कहीं ठहरा है।
घूम-घूम कर स्नेह खोजता
वसंत-बर्फ में स्वर ढूंढता,
किसी पहाड़ पर
किसी नदी पर
अपना डेरा रख देता है।
किसी वृक्ष को,
किसी डाल को,
अपनी हरियाली दे देता है।
धरती हो या गगन अनोखा
मेरा मन तो यायावर है।
**********
४१.

मैं कथा वाचता हूँ

मैं कथा वाचता हूँ
ईश्वर से
स्वयं से बाँधता हूँ,
वे वरदान दें या न दें
मैं वरदान माँगता हूँ।
जहाँ मेरा घर है
वहीं कर्म को थाम
व्यक्तित्व बन जाता हूँ।
समय मेरा अपना हो
या न हो,
मैं पहरे पर रहता हूँ।
मेरे देवी-देवता,
तुम्हारे सदकर्मों का
अनुयायी हो,अधिष्ठाता हो,
मैं सदगति चाहता हूँ।
******
४२.

पहाड़

पहाड़ तो पहाड़ हैं
फिर भी संदशों से भरे हैं,
कभी बादलों से लिपटे
कहीं बर्फ से लदे,
कहीं कोहरे में डूबे
हमारी यादों को बड़ा बनाते हैं।
पहाड़ आदमी नहीं हैं
कि आतंक फैला दें,
युद्ध में भिड़ जाएं
आरोप-प्रत्यारोप करें।
यदि पहाड़ आदमी जैसे हैं
तो ऊर्जावान हैं,
स्नेह से भरे हैं
उदारता से आसमान तक पहुँचते हैं,
तीर्थ बना
आदमी को ऊँचा उठाते हैं।
पहाड़ ईश्वर द्वारा लिखे
धरती पर पड़े संदेश हैं।
*******
४३.

सुबह अधूरी चले जाती है

सुबह अधूरी चले जाती है
शाम अधूरी रह जाती है,
समय सुरीला बन जाता है
फूल कहीं से उड़ आता है।
रूका हुआ सब चल देता है
जीवन सारा मुड़ जाता है,
जहाँ कहीं पर हम होते हैं
वहाँ परिवर्तन आ जाता है।
शाश्वत समय शुभ होता है
मन अधूरा चल देता है,
सुबह अधूरी सुख देती है
छूटी सन्ध्या महक रखती है।
*******
४४.

सुबह-सुबह उठ

सुबह-सुबह उठ
मैं दौड़ने लगूँगा,
कभी तुम्हारी
कभी तुमसे दूर।
पूरब से पश्चिम
उत्तर से दक्षिण,
पहाड़ों की तलाश में
समुद्र की खोज में,
नदी के पास
तीर्थों के नजदीक,
एक छोटी सी माँग लिये
लोगों के बीच
सुबह-सुबह उठ,
मैं दौड़ने लगूँगा।
******
४५.

सुख ही मेरी दुविधा है

सुख ही मेरी दुविधा है
इस पार रहूँ ,
या उस पार रहूँ
सुख ही मेरी दुविधा है।
सुबह उठा हूँ
दिन चला हूँ,
सन्ध्या पर हूँ
रात अँधेरी जगी हुई है।
जहाँ गया हूँ
जिधर रहा हूँ,
सुख ही मेरी दुविधा है।
विजय इधर है
जय उधर है,
स्नेह स्वयं है
सौन्दर्य अपूर्व है।
क्षण आता है
क्षण जाता है,
परिवर्तन में सम-विषम है।
यहाँ तीर्थ हैं
वहाँ देव हैं,
इधर चलूँ
या उधर चलूँ
सुख ही मेरी दुविधा है।
*******
४६.

शब्द जो

शब्द जो
ईश्वर के पास हैं
उन्हें कहने लगा हूँ,
लय जो
हवा के पास हैं
उन्हें सुनने लगा हूँ।
स्वर जो
नदी के पास हैं
उन्हें चाहने लगा हूँ,
प्यार जो
हमारे बीच है
उसे तैराने लगा हूँ।
क्षण जो
चेतना लिए हैं
उन्हें गाने लगा हूँ।
हँसी जो
दूर से दिखती है
उसे समझने लगा हूँ।
*******
४७.

शुद्ध सुबह है,पवित्र मंत्र है

शुद्ध सुबह है,पवित्र मंत्र है
जीवन के अन्दर शुद्ध व्रत है,
अन्दर बाहर जब जाता हूँ
तुम तक मेरी कथा दिखी है।
जितना आकाश यहाँ बना है
उतना चारों र रहा है,
जो हवायें यहाँ बही हैं
वे-वे सारी वहाँ रही हैं।
जल भी सारा एक रहा है
थल भी सारा एक बना है,
जैसी चिड़िया इस घर पर है
वैसी मुझको वहाँ मिली है।
जैसा उजाला यहाँ आया है
वैसा सारा वहाँ रहा है,
जैसे आँसू इधर गिरे हैं
वैसे सारे वहाँ रहे हैं।
जैसी भाषा यहाँ रही है
वैसी वहाँ पर कही गयी है,
जैसी हँसी यहाँ हँसते हैं
वैसी बिल्कुल वहाँ पाते हैं।
जैसी शान्ति यहाँ खोजते
उसी शान्ति में वे मिलते हैं।
*******
४८.

तुम्हें सुना

तुम्हें सुना
बहुत अच्छा लगा
रात को,
गहरी नींद आयी।
जैसे वर्षों पहले
माँ की कथां से
दादा-दादी की कहानियों से,
बचपन के बिस्तर पर
थपथपियों के साथ,
गहरी नींद बन जाती थी।
सुबह मन
तरोताजा हो
चरैवेति-चरैवेति कहता,
साफ नदी सा बह
फिर तुम्हें सुनने की आकांक्षा करता रहा।
********
४९.

उस दिन, उस पहर

उस दिन, उस पहर
उस झील के ऊपर,
पहाड़ की ऊँचाई पर
पगडण्डियों को पकड़,
उड़ते कोहरे के नजदीक
फूलों के सहारे,
धूप को देख
हवा को छू,
घंटियों में उतर
अनगिनत किरणों को ले,
श्रीकृष्ण की तरह
राधा के समान,
मीरा के रूप में
शिव-सती को मान,
गाता हुआ
खाता,खेलता
मैं प्यार कर सकता हूँ।
******

५०.

उस धूप को

उस धूप को
क्या कहूँ
जो बासंती हो चुकी है,
उस आसमान को
क्या कहूँ
जो सदा ऊँचा रहता है।
उस नदी को
क्या कहूँ
जो तीर्थ बनाते जाती है,
उस गीत को
क्या कहूँ
जो बार-बार मन में आता है।
उस सुबह को
क्या कहूँ
जो बार-बार उठाती है,
उस उम्र को
क्या कहूँ
जो बचपन तक जाती है।
उस प्यार को
क्या कहूँ
जो जन्मभर गुदगुदाता है,
उस हाथ को
क्या कहूँ
जो सदा आशीषता है।
*********
५१.

वर्षों से

वर्षों से
इसी आसमान को देखता हूँ,
वर्षों से
इसी धरती पर रहता हूँ,
वर्षों से
इसी हवा-पानी पर जीवित हूँ।
वर्षों से
इसी मन पर नाचता हूँ,
वर्षों से इन्हीं पक्षियों की
ऊँची उड़ान देखता हूँ।
वर्षों से युद्ध की
खबरें सुनता हूँ,
वर्षों से गरीबी-अमीरी को
पढ़ता हूँ।
ऐसे ही
बचपन, यौवन,बुढ़ापा ले
कितनी दूरियां नाप जाता हूँ,
वर्षों से समय की पंखुड़ियों को
दिन-रात झाड़ता हूँ।
******
५२.
यह भारत है

यह बिहू है
जो मुझे भाता है,
सुबह सी अनुभूति दे
ब्रह्मपुत्र का आभास कराता है।
ये झोड़े हैं
जो मुझे नचाते हैं,
स्नेह सा स्पर्श दे
गंगा का ज्ञान दे जाते हैं।
यह गरबा है
जो मुझमें सनसनाता है,
अद्भुत लय दे
साबरमती तक ले आता है।
यह भारत है
जो मुझे उज्जवल बनाता है,
गंगा,यमुना, ब्रह्मपुत्र
नर्मदा, गोदावरी, कावेरी
सिन्धु, व्यास, रावी
सबका संगम मुझमें ढूंढता है।
******
५३.

यह ईश्वर की सुगंध है

यह ईश्वर की सुगंध है
जो धीर- धीरे बहती हैं,
यह ईश्वर का रूप है
जो धीरे-धीरे दिखता है।
यह ईश्वर का संगीत है
जो शनैः-शनैः बनता है,
यह ईश्वर का गीत है
जो धीरे-धीरे बजता है।
यह ईश्वर की सृष्टि है
जो धीरे-धीरे बदलती है,
यह ईश्वर की लीला है
जो धीरे-धीरे चलती है।
******
५४.

यही ईश्वर से मिलने का वक्त है

यही ईश्वर से मिलने का वक्त है
यही ईश्वर से कहने का समय है,
जब सुबह चलकर आती हो
माँ घर से निकलती हो।
मन्दिर में घंटियां बजती हों
विदाई असहज हो,
परीक्षा का गणित उलझता हो
जन्मदिन की मधुर बात हो।
नदी में बहाव हो
आसमान में रहस्य हो,
रिश्तों में कोख हो
तीर्थों में शक्ति हो।
*******
५५.

यदि मैं अमर हूँ

यदि मैं अमर हूँ
तो तुम अमरनाथ हो,
मैं दरिद्र हूँ तो
तुम दरिद्रनारायण हो।
मैं क्षण हूँ
तो तुम समय हो,
तुम धूप हो तो
मैं धूप के संग-संग हूँ।
मैं स्वार्थ हूँ
तो तुम त्याग हो,
तुम बसंत हो तो
मैं पतझड़ हूँ।
मैं यौवन हूँ
तो तुम बचपन हो,
मैं ज्योति पुंज तो
तुम प्रकाश हो।
मैं अथक हूँ
तो तुम अक्षुण्ण हो,
मैं नर हूँ तो
तुम नारायण हो।
मैं अर्थ हूँ
तो तुम अनंत हो,
मैं व्यास हूँ तो
तुम निर्व्यास हो।
तुम संगीत हो
तो मैं गीत हूँ,
मैं नृत्य हूँ
तो तुम नटराज हो।
*******
५६.

ये पहाड़ सदियों से हमारे हैं

ये पहाड़ सदियों से हमारे हैं
इतने ऊँचे
इतने अडिग
इतने सुन्दर
कि उठा लाते हैं
मीलों दूर से हवा को,
अथाह दूर से आदमी को,
और बाँट देते हैं अपना
ठंडा,मधुर,शीतल स्वभाव।
स्पर्श देते हैं अपना
दादा-दादी तरह,
पगडण्डियां इतनी चपल
कि पाँव पड़ते हैं इन पर
श्रुति लेख की तरह।
प्यार ऐसा कि
स्वेद से निकला
श्रम से परिपक्व,
वचन इतने उज्ज्वल कि
बनते हैं जो
नाना-नानी की तरह।
*****
५७.

कितनी शान्ति से

कितनी शान्ति से
बैठा है पानी
बादल के रूप में,
गुफा सा घर बनाये
सर्प सा फन उठाये।
जहाज से दिखता है
रुई सा बिखरा,
कभी चलता
कभी टहलता,
कभी गठरी सा
साफ,स्वच्छ, शान्त,
मन का साथ पकड़े।
कभी बैठ जाता है
बर्फ बन कर,
ऊँचे पहाड़ों के ऊपर
साफ,स्वच्छ, शान्त
मोहक तन लिये।
यह बेहद जीवनदायी है
और इतना पवित्र कि
आचमन कर,
मंत्रों का जाप हो जाता है।
आज आदमी
नहीं रख पाता
पानी को शुद्ध,
हवा को सुन्दर।
बरसता है पानी
जीवन में जीवन खोजने,
पवित्र होने के लिए,
बर्फ बन जाता
शक्ति के साथ
उज्जवल होने के लये।
पर इस पानी की नदी को
गंदा नाला बना
आदमी छोड़ देता,
विकलांग,असहाय
रोते हुये
श्मशान की तरह।
हम पानी को पूजते हैं
हवा में
ऊँ बोलते हैं।
गूँजते हैं
उच्चारित शब्द यहाँ-वहाँ
पवित्रता का आभास लिए।
हवा-पानी साफ हो
तो सभ्यता भी साफ होगी,
आदमी की प्रकृति
तरोताजा रहेगी।
पानी में दृष्टि होती है
वह सभ्यता बनाता है,
संस्कृति सम्भालता है,
प्राणों में बस
सुनहरी प्रकृति देता है।
******
५८.

हे कृष्ण कितने जनम लूँ

हे कृष्ण
कहाँ तक चलूँ
कि तुम दिख जा,
कितने जनम लूँ
कि सात्विकता आ जाय।
कितना स्नेह दूँ
कि स्नेहशील बन जाऊँ,
कितना कर्म करूँ
कि कर्मवीर कहलाऊँ।
कितना सत्य बनूँ
कि अर्थवान बना रहूँ,
कितना अहिंसक रहूँ
कि तुम्हारी प्रकृति में समा जाऊँ।
कितनी शान्ति रखूँ
कि तुम तक पहुँच सकूँ,
कितनी पूजा करूँ
कि पवित्र रह जाऊँ।
कितना ममत्व पालूँ
कि परिक्रमा कर सकूँ,
हे कृष्ण, कहाँ तक चलूँ
कि तुम दिख जा,
कितने जनम लूँ
कि सात्विकता आ जाय।
******