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अब हरिहर रोज़ कुछ न कुछ नया बनाकर अपने बच्चों के डिब्बे में देने लगा। केशव और मनोहर खुद भी खाते और अपने दोस्तों को भी खिलाते थे । हरिहर के हाथों में स्वाद हैं। बच्चे खुश होकर खाते थे । जब एक दिन केशव अपने डिब्बे का कौर अपने दोस्त शम्भू को खिला रहा था। तभी उसकी पालक की रोटी का टुकड़ा किसी ने उसके हाथ से लेकर अपने मुँह में डाल लिया। उसने सिर उठाकर देखा सामने रघु खड़ा था। वह ख़ुशी से हैरान हों गया। रघु तू भी यही पढ़ता हैं, पर कभी दिखा क्यों नहीं? केशव ने उसे गले लगाते हुए पूछा। बस अभी दाखिला हुआ है मेरा। माँ गुज़र गयी थीं। बापू ने नानी के पास भेज दिया था। वो खुद बीमार रहती थीं और मामी उन्हें ठीक से नहीं रखती थीं तो वह मुझे कैसे रख पाती। बस वापिस आ गया और बापू ने इस स्कूल में डलवा दिया।
हाय ! तेरी माँ भी गुज़र गई, मेरी माँ भी गुज़र गई भाई। अब हम दोनों एक जैसे हों गए। केशव ने रघु का हाथ पकड़कर कहा। नहीं, हम दोनों एक जैसे नहीं हों सकते। तू कहना क्या चाहता हैं? यही कि मैं तुझसे एक कक्षा आगे हूँ। रघु ने हँसते हुए कहा। केशव भी हँसते हुए बोला, पर हमारी उम्र तो बराबर है, हाँ अगर तू फेल हों जाएगा फिर हम बराबर हों जाएंगे। केशव ने भी फ़टाक से ज़वाब दिया। तू नहीं सुधरेंगा याद है न, कितनी मस्ती करते थे , हम दोनों। तू स्कूल से खाना क्यों नहीं खाता? रघु ने सवाल किया। ये लोग हमें देते नहीं हैं। उसने अपने दोस्तों की तरफ़ देखकर कहा। चल छोड़ ! मेरे साथ खाना खा ! कहकर केशव ने रघु को बिठा लिया। भाई ! तेरा खाना स्कूल के खाने से भी अच्छा हैं। मेरे घर में भी इतना अच्छा खाना नहीं बनता। रघु ने केशव का खाना स्वाद लेकर खाते हुए कहा।
अब रोज़ यही होता। रघु मिड डे मील छोड़कर उसके पास आ जाता। जब तक घंटी नहीं बजती, दोनों दोस्त साथ में बैठकर खाना खाते। गेंद से खेलते, कंचो से खेलते और खूब हँसते। मनोहर ने कई बार केशव को टोका कि रघु से दोस्ती ठीक नहीं हैं। कही वो फ़िर किसी मुसीबत में न पड़ जाए। मगर उल्टा केशव ने उसको कसम देकर रोक दिया कि वो बापू को कुछ न बताए। स्कूल की घण्टी लगते ही जब रघु स्कूल से बाहर जाता, तब दोनों दोस्त एक दूसरे को देखते भी नहीं थे । मनोहर को भी लगा कि चलो! बात स्कूल की स्कूल में रह जाएँगी। एक दिन जब दोनों आधी छुट्टी में साथ बैठकर कंचे खेल रहे थे, तब प्रधानाचार्य के कमरे के बाहर भीड़ लगी देखकर केशव ने पूछा, तुझे पता हैं, क्यों बड़े सर के ऑफिस के बाहर इतनी भीड़ रहती हैं। रघु ने कंचा फेंकते पूछा। ज़्यादा नहीं पता, पर जो मूँछों वाला आदमी वहाँ खड़ा है, उसका नाम मूलचंद है, वह कल बापू के पास आया था। कह रहा था, मदद करो तो टेंडर हमें मिल जाए। बापू ने उसे कुछ समझाया। रघु ने कंचे का ज़वाब कंचे से दिया। 'टेंडर'? वो क्या होता है ? मैंने भी यह 'टेंडर' जैसा कुछ सुना है, केशव दिमाग पर ज़ोर देते हुए बोला। मुझे लगता है, जो खाना यहाँ बाँटा जाता है न, उसके लिए कुछ होगा यह टेंडर। रघु ने कहा। हाँ! तू सही कह रहा है। अच्छा केशव, तू अपने बापू से क्यों नहीं कहता कि वो भी टेंडर भर स्कूल में खाना बाँट दें।
क्या ! तेरा मतलब मिड डे मील? केशव का कंचा अब हाथ से छूट बड़े सर के कमरे के बाहर पहुँच गया। देख, केशव तूने लाइन पार कर दी। रघु ने कंचे की तरफ देखते हुए कहा। हाँ ! भाई कर तो दीं !!!!!!!''
रात को केशव, मनोहर और हरिहर अपना स्कूल का गृहकार्य कर रहे थे और हरिहर अपनी रोज़ की कमाई का हिसाब कर रहा था। देखो ! बच्चों अब मैं सोच रहा हूँ कि समोसे के अलावा कुछ और भी खाने की चीजें जैसे मटर पुलाओ, पूरी भाजी, जो सुबह तुम्हारे लिए भी बनता हूँ, थोड़ी ज्यादा बना लूँगा। थोड़ी आमदनी बढ़ जाएँगी और आगे जाकर तुम्हारी पढ़ाई के ख़र्चे भी बढ़ेंगे। मेरे पास कुछ ज्यादा पैसा होगा तो तुम्हारा बापू तुम पर ज़्यादा खर्च कर सकेंगे। क्यों क्या कहते हों? सच में बापू बहुत अच्छा सोचा आपने, हमारे दोस्तों को वैसे भी तेरे हाथ का बना भोजन बहुत पसंद आता हैं। अपने यहाँ के लोग उँगलियाँ ही चाट जायेंगे। क्यों केशव? कहता तू सही है भाई। मगर मैं कुछ और सोच रहा था, अगर बापू गुस्सा न करे तो बताओ ? केशव ने थोड़ा बचते हुए पूछा। हाँ, बता कि क्या बात हैं? तेरे खुराफ़ती दिमाग में क्या चल रहा हैं? हरिहर ने रुपए समेटते हुए कहा। मनोहर भी केशव का मुँह देखने लगा। बापू, रोज़ हमारे स्कूल में लोग मिड डे मील के लिए फॉर्म भरने आ रहे हैं। मतलब कोई टेंडर भरा जा रहा हैं। जिसका टेंडर पास हों गया। वो मिड डे मील स्कूल में देंगा। केशव बिना किसी डर के अपनी किताबें एक तरफ रखकर बोल गया। तू कहने क्या चाहता है? ज़रा खुल के बता।
इसे पहले केशव कुछ कहता मनोहर ने ही कहा, बापू यह कहना चाह रहा है कि आप मिडडे मील का टेंडर भर दों। जैसे हमारे दाखिले के समय स्कूल में फॉर्म भरा था न ऐसे ही स्कूल में खाने के लिए भी कुछ फॉर्म भरना पड़ता हैं। एक बार आपका नाम आ जाएगा तो आप हमारे स्कूल में खाना बाँटेंगे। मनोहर ने भी बड़ी मासूमियत से कहा। तुम दोनों का न दिमाग ख़राब हों गया हैं। पता नहीं, क्या सोचते रहते हों ? सबसे ज़्यादा यह केशव पगला गया हैं, इसे आदत हों गयी हैं। खुद को और हमको मुसीबत में डालने की। अब सो जाओ ! कहकर हरिहर ने दिये सी जलती बत्ती बंद कर दीं। और चादर तानकर लेट गया। मगर केशव की आँखों में नींद नहीं थीं। उससे रहा नहीं गया। उसने धीरे से कहा,बापू इसमें बुराई क्या हैं। आप भी खाना बनाते हों, वो लोग भी यही काम करते हैं, अगर आप हमारे स्कूल में खाना बाँटेंगे तो क्या फर्क पड़ जायेंगा।" फर्क कुछ नहीं पड़ेगा केशू, अब हरिहर उठकर बैठ गया और केशव को समझाता हुआ बोला, हम गरीब लोग है, उस पर हमारी जात भी छोटी हैं, एक हमारे पास पैसा नहीं कि हम इन सबमें पड़े और दूसरा हमारा खाना खाएगा कौन? तुम लोगों को ही स्कूल वाले खाने नहीं देते। ये दुनिया ऐसी ही हैं, तुझे अभी यह सब नहीं समझ आयेंगा। इसलिए तू सिर्फ पढ़ाई कर। और अपने बापू और अपनी मरी माँ का नाम रोशन कर।"बापू , माँ कहती थीं, कान्हाजी के सखा सब अलग-अलग जाति के थे । तब भी उन्हें वे अपने साथ ले जाकर माखन खिलाते थे । ताकि सब समझ सके कि जो यह दूध दोहने का काम करता हैं, उसे खाने और खिलाने का पूरा हक़ हैं। केशव की बात की सच्चाई को सुनकर हरिहर कुछ बोल न सका। बस यहीं कहा, केशव सपने में शायद माँ आकर समझा दें, जो मैं नहीं समझा पा रहा।
अगले दिन केशव और मनोहर एक दूसरे का हाथ पकड़ स्कूल जा रहे थे । क्योंकि रमिया काकी बहुत बीमार है। और बापू उनको लेकर अस्पताल गए हैं। "बेचारी! रमिया काकी दो साल पहले काका चले गए और अब काकी चली जाएँगी। केशव ने मुँह बनाते हुए कहा। क्यों बेकार सोच रहा है, काकी को थोड़ा बुखार हैं। ठीक हो जाएँगी। अभी दोनों बातचीत कर ही रहे थे । तभी किसी के चिल्लाने की आवाज़ आई, दोनों उसी तरफ़ दौड़े , जहाँ से आवाज़ आ रही थीं। एक बड़ा टीले जैसा पत्थर। वहाँ उसके पीछे बिरजू रमा के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश कर रहा था, और वो लगातार खुद को छुड़ाने का प्रयास कर रही थीं। वह बोल रहा था, आज आई तू हाथ में, सारी जवानी क्या कपड़े धोकर बर्बाद कर देंगी या फ़िर कुछ हमारे काम भी आयेंगी। छोड़, कमीने ! छोड़,मुझे, कोई बचाओ ! तभी मनोहर बोल पड़ा। छोड़! दीदी को, वरना शोर मचाएँगे। दोनों बच्चों को देख बिरजू हैरान हो गया और रमा को राहत महसूस हुई। पहले बिरजू डर गया। फिर अपनी ज़ेब से चाक़ू निकालकर डराते हुए बोला, भागो यहाँ से, सूअर के बच्चों। वरना तुम्हारे साथ तुम्हारी दीदी को भी मार डालूँगा। मनोहर केशव का हाथ पकड़ पीछे हटा। रमा को लगा, आज यह वहशी उसे नोच-नोचकर यहीं गाड़ देगा। अब कुछ नहीं हो सकता। ये बच्चे तो खुद डर गए हैं, वह फिर ज़ोर से चिल्लाई। तभी बिरजू ने उसका मुँह बंद करने की कोशिश की। केशव ने मौका देख बैग से अपना टिफ़िन, गत्ता और फुट्टा निकाला और बिरजू के सिर पर मारने लगा। मार से बिरजू बौखला गया और उसकी पकड़ ढीली हों गई। मनोहर ने उसे धक्का मारा और चिल्लाया भागो! दीदी। रमा जैसे-तैसे अपना पल्लू समेट गिरती पड़ती भागने लगी तभी केशव ने गिरे बिरजू के सिर पर वार किया। इस बार वो बेहोशी की हालत में पहुँच गया। फिर मनोहर और केशव भी वहाँ से ऐसे सरपट भागे कि सीधा स्कूल के पास रुके। कुत्तों के बच्चों तुम्हें छोड़ूँगा नहीं। कहकर बिरजू वहीं बेहोश हों गया।