पृथ्वी सूर्य के चारो तरफ चक्कर लगाती है तो जिन्दगी उम्मीदों की परिधि के चारों ओर चक्कर लगाती है। जो बीता वह जिन्दगी और जो बची हुई है – वही उम्मीद है। इसका ही दूसरा नाम आशा, आस, इच्छा, ख्वाहिश, उत्कंठा, भरोसा, सहारा, आसरा आदि है। उम्मीद मन का विश्वास है। लगातार लक्ष्य से दूर रह जाना और उसे हासिल न कर पाने के बावजूद लक्ष्य हासिल करने की जिजीविषा, संकल्प-शक्ति और सकारात्मक दृष्टिकोण उम्मीदों को सिंचित करता है। पूरी दुनिया आशा के ऊपर टिकी है। इसका कोई रूप-रंग नहीं है, लेकिन हर आदमी इसी के सहारे ज़िंदा है।
माँ-पिताजी को उम्मीद रहती है कि पुत्र बुढापे में सेवा करेगा। मगर उम्मीद खत्म हो जाती है जब संतान माँ-बाप को छोड़कर सांसारिक सुखों में तल्लीन हो जाता है। आज के सन्दर्भ में कोई भी बेटा हो – वह अपने माँ-पिताजी के करीब नहीं रह सकता। दिखाने के लिए फेसबुक, ट्विटर पर माँ-पिताजी की तस्वीर लगा लेते हैं। लम्बी-लम्बी सूक्तियों को लिखते हैं। माँ-पिताजी के ऊपर सारा प्रेम फेसबुक पर ही दिखाई देता है। असली जीवन में दूसरा ही रूप नजर आता है। वैसे बात कडवी जरुर है लेकिन सच्चाई यही है। किसी को अपने जीवन से फुर्सत नहीं है। माँ-पिताजी तो बहुत दूर की बात है। इसके पीछे उपभोक्तावाद का चलन है। पहले इतनी शिक्षा दी जाती थी कि माँ-पिताजी से अलग होने की सोच स्वप्न में भी नहीं आती थी।
उसी प्रकार एक अध्यापक को उम्मीद है कि विद्यालय पुनः खुलेंगे। बच्चे विद्यालय में दिखाई देंगे। कोरोना का तांडव समाप्त होगा। विद्यालय की रौनक पहले-सी हो जायेगी। छात्र और शिक्षक के चेहरे सुकून देनेवाले होंगे। एक शिक्षक सीखने – सिखाने की तैयारी कैसे करते हैं या बच्चों के साथ कार्य करने हेतु किस प्रकार योजना बनाते हैं – इसकी उम्मीद भी रहती है। भोजनावकाश के वक्त आपस में रोटियां मिल-बांटकर खायेंगे। पुस्तकालय की किताबों को भी धूल हटने की उम्मीद होगी। इसी प्रकार कोचिंग सेंटर, महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय में भी उम्मीद होगी।
हमारे देश के राजनेताओं को भी उम्मीद होगी कि देश में सब कुछ ठीक हो जाएगा। किसी को मंत्रीमंडल में शामिल होने की उम्मीद होगी। किसी को दल बचाने की उम्मीद होगी। प्रधानमंत्री को कुर्सी बची रहेगी – इसकी उम्मीद होगी।
क्रिकेट खिलाड़ियों को आईपीएल के बचे हुए मैच के पूरा होने की उम्मीद होगी। आयोजकों का पूरा जीवन ही दांव पर लगा होगा। कितने का नुकसान हो रहा है – इसका हिसाब लगा रहे होंगे। चार वर्षों से ओलिम्पिक की तैयारी कर रहे खिलाड़ियों को भी समय पर खेल के इस महाकुम्भ के होने की उम्मीद होगी।
व्यापारी वर्ग को व्यापार के सुचारू रूप से चलने की उम्मीद होगी। जो हानि उन्हें पिछले 16 महीने से उठाने पड़ रहे हैं, उसकी समाप्ति होगी। सब चकाचक होने की उम्मीद अवश्य होगी।
महामारी के कारण हम सब ने बहुत कुछ खोया है। इसकी भरपाई होनी मुश्किल है। जिसने नहीं खोया, वही आज के समय का सिकंदर है। उसका मुकद्दर बड़ा है। नहीं तो अधिकाँश आबादी तो कोरोना के खौफ से बच नहीं सकी है। अतः मिलने-जुलने की उम्मीद तो अभी अवश्य बाकी है।
उम्मीद के कायम रहने के लिए उत्साह तथा धैर्य का होना आवश्यक है। रामायण काल में ये दोनों गुण श्रीराम तथा लक्ष्मण में देखने को मिलता है। हमलोग उनकी तरह बन नहीं सकते मगर कुछ-कुछ प्रयास अवश्य कर सकते हैं। सुख-दुःख एक चक्र है। चलते रहता है। शाश्वत तो कुछ भी नहीं है।
अतः दुनिया की रफ़्तार बढ़ेगी – इसकी उम्मीद अभी भी कायम है।