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अब तक तीन बज चुके थे, समिधा को भी पेट में घुड़दौड़ महसूस होने लगी थी | वह बँगले की तरफ चल दी | रैम फ़र्श पर लेटा हुआ था |
“हो---मैडम !कितना देर कर दिया ?”
समिधा ने महसूस किया, भूख से उसकी आँतें कुलबुला रही थीं जो उसके चेहरे पर पसरकर चुगली खाने लगीं थीं |
“तुम्हें खाना खा लेना चाहिए था अब तक, कहकर नहीं गई थी –खा लेना !”
समिधा ने रैम से शिकायती अंदाज़ में कहा |
“आप भी तो नहीं खातीं मैडम, मेरे बिना –“
रैम ने समिधा पर अपना सारा बोझ लाद दिया और लगभग भागते हुए किचन में से दो लगी हुई थालियाँ उठा लाया जिनमें उसने पहले ही भोजन सजाकर रखा था | स्टील के जग में पानी और दो ग्लास मेज़ पर रखे थे | कैसे कैसे अनजाने रिश्ते बन जाते हैं न कभी-कभी ! समिधा का संवेदनशील मन इस बच्चे रैम के बारे में सोचने लगा था | क्यों?कैसे? चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने बिना किसी डोरी के ही रिश्ते बंधने लगते हैं और कभी-कभी पुराने रिश्ते कपड़े सुखाने के लिए बाँधी गई डोरी से झूलते रह जाते हैं जिन पर सूखे हुए कपड़ों की गरमाहट व ताज़गी कभी नहीं आ पाती |
समिधा जल्दी से हाथ धोकर मेज़ पर आ बैठी और रैम ने खाना कुछ इस तरह खाना शुरू किया जैसे न जाने कितने दिनों का भूखा हो | रैम को देखकर समिधा के मुख पर मुस्कान तैर गई | रैम अपने खाने में इतना मशगूल था कि उसे समिधा की ओर देखने की फुर्सत भी नहीं थी | समिधा के खुद के पेट में भी तो उपद्रव मचा हुआ था | क्या चीज़ है ये खाना भी ! सच ये पेट न होता तो आदमी अपने हाथ-पाँव भी न चलाता | अपना खाना फटाफट खाकर ही रैम ने अपना सिर ऊँचा किया और बोला ;
“मैडम ! आपसे एक बात कहनी है---“
“वो—कुछ देर के लिए घर जाना होगा –मॉम को कुछ काम है | ”
“हाँ, हाँ –तो जाओ न, मैं भी कुछ देर आराम करना चाहती हूँ | ”समिधा ने निश्चिंतता से खाते हुए कहा |
“आप अकेले ---मेरा मतलब है, मैं चाय के टाइम तक आ जाएगा ----“
शायद वह कुछ और भी कहना चाहता था |
“ठीक है –और अकेले रहने में क्या हुआ ?मैं छोटी बच्ची हूँ क्या?” समिधा की दृष्टि क्षण भर के लिए अचानक दीवाल पर चिपकी फिर तुरंत ही उसने अपनी आँखें वहाँ से हटाकर रैम के चेहरे पर चिपका दीं —हाँ, उसका हाथा अनायास ही अपनी गर्दन पर चला गया था |
उसने रैम की ओर देखा, वह मुस्कुरा रहा था | उसे याद आया अभी तीन दिन पहले ही तो वह यहाँ के वातावरण से भयभीत हो रही थी, अब अचानक शेरनी बन रही है !---सोचकर वह मुस्कुरा दी |
“जाओ और मेरी चिंता मत करो –“
रैम के जाने के बाद दरवाज़ा बंद करके कुछ देर आराम करने के लिए वह अपने कमरे में जा ही रही थी कि दरवाज़े की घण्टी बोल उठी| अचानक कौन आ सकता है ?सोचते हुए उसने पूछा –
“कौन --?”
“दीदी ! मैं ---कामना ---“
बाहर से नारी-कंठ की आवाज़ सुनाई दी |
हाँ, आवाज़ तो कामना की ही थी, क्यों आई होगी?अभी तो मिलकर आ रही है उससे !सोचते हुए समिधा ने दरवाज़ा खोल दिया |
“कोई नहीं है ?”कमरे की दहलीज़ को लाँघते हुए उसने पूछा |
“अभी रैम कुछ देर के लिए बाहर गया है ---आओ | ”
अपनी बात उसे स्वयं ही व्यर्थ सी लगी, कामना तो पहले ही भीतर आकर सोफ़े पर बैठ चुकी थी |
“कुछ ख़ास बात है क्या ?”समिधा ने पूछा तो वह फफक पड़ी |
“अरे रे ---क्या हुआ कामना ।तुम ठीक तो हो?”उसने कामना के पास बैठते हुए पूछा और उसका सिर सहलाने लगी |
कामना उससे ऐसे चिपक गई जैसे कोई बच्चा घबराकर किसी सहारे के लिए अपनी माँ से चिपक जाता है | समिधा को लगा कहीं वह उसके प्रति कोई अपराध तो नहीं कर बैठी | अभी कुछ देर पहले तो वह उसे अच्छा –ख़ासा छोड़कर आई थी, इतनी देर में भला क्या हो सकता है ?उसने कामना को सांत्वना देने के लिए कामना को अपनी बाहों में समेत लिया और उससे रोने का कारण जानने की चेष्टा करने लगी |
और ---जब कामना उसके पास से गई तब उसके मस्तिष्क मैं कई ऐसे प्रश्न छोड़कर गई जिनका उत्तर उसके पास भी नहीं था |
कामना ने रोते-रोते उसे बताया था कि झुनिया घर की नौकरानी नहीं, महारानी थी| वह तो वकील-- साहब से ब्याहकर आई थी सो अपने माता-पिता व समाज के भय से और –---सबसे अधिक बेटे के कारण दोनों एक-दूसरे को बर्दाश्त कर रहे थे | बेटे को उसने इसीलिए यहाँ से भेज दिया था क्योंकि वकील साहब उसके सामने भी झुनिया से अशोभनीय व्यवहार करते थे |
कामना एक शिक्षित स्त्री थी, वह साहित्य में एम. ए थी और कहीं भी काम करके अपना व अपने बच्चे का पेट पाल सकती थी | पर भले सास-श्वसुर की सौगंध ने उसके पैरों में बेड़ियाँ डाल दीं थीं और वह भीतर से रोते हुए भी अपने पति के साथ उस गंदगी में रहने के लिए विवश थी | कामना को अपने पति के घर में रहना, खाना-पीना, सोना एक गाली सा लगता था | इस सारे वार्तालाप के बीच कामना ने समिधा से कई बार पूछा था कि क्या वह उसे कोई मार्ग-दर्शन दे सकती है ? आत्मनिर्भर होकर वह क्या नहीं कर सकती थी किन्तु समिधा के पास उसके प्रश्नों के उत्तर इसलिए नहीं थे क्योंकि वह वकील को छोड़कर जाने के लिए तैयार नहीं थी चाहे इसका कारण समाज, माता-पिता, सास-श्वसुर, बेटा या फिर स्वयं उसके अकेले रह जाने का भय, कुछ भी क्यों न हो |
कितनी तुच्छ मानसिक व शारीरिक यातनापूर्ण दोमुंही ज़िंदगी जी रही थी वह !समिधा का मन क्षुब्ध हो गया | कहाँ तक दुखी होकर जीवन व्यतीत किया जा सकता है ?उसके समक्ष इस समय केवल यह एक स्त्री थी जिसके बारे में समिधा का मन उद्वेलित हो रहा था | न जाने इस दुनिया में कितनी-कितनी अजीब यातनाओं से भरकर, कितनी अजीबोगरीब यातनाओं को ओढ़कर जीता है मनुष्य !जीवन को सरलता से जीना भी चाहे तब भी उसके समक्ष परिस्थितियाँ मुँह बाए उसे निगलने के लिए हर मोड़ पर तत्पर रहती हैं | कामना जैसे अपनी किसी फ़िल्म की रील समिधा के हाथ में थमा गई थी, जिससे उसकी दृष्टि हटने के लिए तैयार ही नहीं थी |
उस दिन के पश्चात वह कामना से मिली तो नहीं परंतु उसके मानस-पटल पर कामना, वकील और झुनिया की ऐसी तस्वीर अंकित हो गई थी जिसे वह चाहकर भी अपने मस्तिष्क के पर्दे पर से उठाकर फेंक पाने में स्वयं को असमर्थ महसूस करती रही थी | मन में कितने प्रश्नों की वज़नदार पोटली ढोए समिधा वापिस लौटी थी |