आधुनिक युग जिसमें, हम अपनी जिंदगी का सफर कर रहे वो समय, कभी, हमें इस अहसास की अनुभूति कहीं न कहीं करा ही देता है कि कहीं हमारा, इस युग का जीवन सफर, हमें आनन्दमय और सुखी होने से वंचित तो नहीं कर रहा है ? सवाल ऊपर से जितना सरल दिखता उतना ही अंदर से, सही उत्तर खोजने में सरल नहीं लगता। फिर भी हमारी कोशिश होनी चाहिए है, कम से कम इस सन्दर्भ में स्वयं को अवलोकन करने की चेष्टा करे।
माना जा सकता है, संसार वक्त के अनुसार बदलता है । बदलाव से कोई भी अछूता नहीं रहता, चाहे हो वो प्रकृति ही क्यों न हो ? यह तय है, आधुनिक साधनों की भरमार के बावजूद, हम आज भी अंदर से खुश नहीं है, क्षीण सी प्रसन्नता भी हमारे चेहरे से दूर हो रही है। तनाव पूर्ण होकर मानते है कि आज के जीवन में मधुरता और मीठापन का अभाव हो रहा हैें। बात अगर सुख की करे तो लगता है, हमारा सुख जाने अंजाने कई मानसिक बीमारीयों से आहत है, जिनका निकट समय में कोई संशोधन भी नजर नहीं आ रहा। उन्हीं में से एक विलासिता के साधनों की मुख्य उपज है, वो है "खुदगर्जी", यानी "Selfishness" की। ये रोग आपसी रिश्तों के अलावा भी जीवन के हर क्षेत्र को तहस नहस कर रहा है। आज के व्यस्त वातावरण में दूसरों के भलार्थ सोचने का समय ही कहां है, यह कहकर लोग अपने आप को सांतवित करना सही समझते है। नीति शास्त्र के अनुसार, दूसरों की भलाई से ही खुद का भला होने वाले तत्व जीवन से दूर हो रहे है। नजदीक के रिश्ते जो कभी जीवन सहायक होते वो आज अर्थ तन्त्र के प्रभाव से संकुचित होकर नगण्य होनें का सफर शुरु कर चुके है, नतीजा इंसान सबके रहते, सबकुछ पास रहते अकेला हो रहा है।
अंग्रेजी शिक्षा- संसार का भारतीय परिवेश में प्रवेश करने के बाद हमारी सोच, संस्कारिता से धीरे धीरे विमुख होने लगी, इस सत्य को नकारना कहीं भी सही नहीं है। पर वक्त के साथ चलना भी जीवन की शायद अलिखित मजबूरी है, अतः इस लेख को जीवन प्रेरणा के तहत समझा जाय, तो शायद हम कुछ खुशियों की प्राप्ति में सफल हो जाये। सर्वप्रथम हमें एक स्वयं से प्रश्न करना सही होगा क्या हम आधुनिक साधनों की प्राप्ति से शारीरिक सुख के अलावा किसी आत्मिक सुख से आनन्दित हो रहे है ? संभावना तो नहीं उत्तर की है, बाकी जो अति साधनों के प्रयोगों से सुखी समझते है, निश्चिन्त ही वो बधाई के पात्र है।
हकीकत यही कहती है, जो जीवन आधुनिक युग का सफर कर रहा है, वो अंदर से बिखरा है। ज्यादा बाहरी सहायक साधनों का ज्यादा प्रयोग करने वाले अपनी क्षमताओं पर उतना विश्वास नहीं रख पाते, जितना उन्हें मानसिक रुप से रखना जरुरी होता है। आज अगर हम ईमानदारी से अपनी जीवन शैली पर अनुसन्धान करे तो एक बात समझ में जरूर आ जायेगी कि हम हर दिन खुदगर्ज होकर ही बिताते है, वो भी खुदगर्जी के बढ़ते अंशों के साथ। विश्व को ही लीजिये, हर देश अपनी खुदगर्जी के अनुसार दूसरे देश के साथ अपने सम्बंधों को महत्व देते नजर आता है। इसी अनुसार संसार में नई नई गुटबाजी तैयार हो रही है। हर देश मानव कल्याणकारी आंकड़े की बात नहीं करता बल्कि अपने देश के शक्ति सम्पन्नता के आंकड़ों को प्रमुखता देता है।
बात जब हम देश, समाज, परिवार और जीवन धर्म की करते है, तो हमारी प्रवृत्ति काफी हद तक आलोचनामय हो जाती है। हम कमजोरियों को सामने रखकर असफलता के कारण ढूंढते है और दोषापरण से आपसी सम्बंधों में तनाव होने वाली सारी साम्रगी परोस देते है। अगर इसी तथ्य का समाधान की दृष्टि से चिंतन करे तो हमें जांचना होगा, हमारी सारी मजबूतियों में किस बात का योगदान नहीं रहा जिससे समुचित सफलता नहीं मिली। इस तरह के चिंतन युक्त दृष्टिकोण से आपसी रंजिश को बढ़ावा नहीं मिलता और प्रयासों को मजबूती भी मिलती है।
हम यहां दो शब्द "खुदगर्ज" और "खुद्दार" पर विशेष चर्चा करेंगे, क्योंकि हमारे दैनिक जीवन में दोनों स्थितियों का हर दिन प्रयोग होता है। देखने में दोनों शब्दों में अंह का अस्तित्व नजर आता है, पर ऐसा है नहीं क्योंकि एक कमजोरी का दुसरा मजबूती का प्राणदाता है। विवेचना को आगे प्रस्तर करे उससे पहले इन शब्दों से परिचय करना जरूरी है।
खुदगर्ज एक हिंदी शब्द है, जिसका तार इंसान के स्वार्थी स्वभाव से बंधा है। शब्द को दो भागों में विभक्त करने से खुद का अर्थ स्वयं और गर्ज का मतलबी या स्वार्थी निकलता है। अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करने वाले ज्यादातर "selfish" का प्रयोग करते है। ऐसे स्वभाव और प्रवृत्ती वाले लोग खुद भी कमजोर होते है और परिवार, समाज और देश को चिंताग्रस्त और कमजोर बनाने में भी उनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। उनका भय, उनकी इस क्षमता को हर रोज बढ़ाता रहता है। कायरता, खुदगर्जी की आंतरिक थैली होती जो सिर्फ द्वेष का जहर इकट्ठा करती है। सवाल किया जाना उचित है क्या खुदगर्ज होना पूर्ण गलत है, उत्तर में इतना ही सहजता से कहा जा सकता है, अति किसी भी तरह की हो और कैसी भी हो, दुष्परिणामों का कारण होती है। इस सन्दर्भ में हम हम एडवर्ड अल्बर्ट के इस कथन पर भी गौर करना पड़ेगा " Sometimes you have to be selfish to be selfless" ।
कभी हमारा देश अपनी सेवाभावी संस्कृति और आपसी स्नेह के लिए आत्मिक आनन्द स्थल था। संसार के विशिष्ठ व्यक्तित्व वाले महापुरुषों ने इस को स्वीकारा और भारत को आध्यात्मिक गुरु कहलाने का सोभाग्य भी प्राप्त हुआ। स्वामी विवेकानन्द जैसे कई दार्शनिक गुरुओं का जन्म स्थल हमारा देश है। इतिहास, साहित्य, धर्म की पुस्तको को टटोलने से इससे आप इंकार भी नहीं कर सकते कि हमारी सांस्कारिक विरासत साधनों के अभाव में जितनी भव्यवता की ऊंचाइयों को छुआ आज अर्थ व आधुनिक साधनों के बढ़ते प्रभाव से संदेहात्मकता की तरफ अग्रसर हो रही है।
बड़ी विडम्बना है जो मार्गदर्शक होनें का दावा करते वो खुदगर्जी की बदतर मिसाल बन रहे है। सेवा तो बिक रही है, जो कभी सुखों की गिनती में शामिल होती आज वो अपना अस्तित्व नहीं संभाल पा रही, अर्थ उसे हर रोज बदनाम कर रहा है।
चर्चा जब हम यहां खुदगर्जी पर कर रहे तो यह कहना सही होगा कि भले ही खुदगर्ज हो इंसान, अपनी जरूरतों की पूर्ति करे पर उसे समझना होगा यही स्वभाव की वो क्रिया है, जिससे वो अपने निम्नतम व्यक्तित्व का प्रदर्शन करता है। अतः जिंदगी की इससे एक उचित दुरी आवश्यक है, सिर्फ इसे समझने की बात ही नहीं अपने आंतरिक चिंतन में उचित जगह देनी भी जरूरी है। "खुदगर्जी" का अगर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से तत्व अनुसन्धान करे सहज ही समझ में आ सकता है की यह अंह यानी अंहकार का निम्नतम स्वरुप वाला अवगुण है, जिसका प्रयोग हम अपने स्वार्थ के लिये बिना प्रभाव की जानकारी उपयोग कर रहे है, स्वयं को सन्तुष्ट करने के लिए। सवाल उठता है, आखिर क्यों ? उत्तर समझने के लिए एक मनोवैज्ञानिक के विचारों पर अवलोकन करते है, " "The desire to always be on top and appear with your best face forward takes a toll. To be the centre of attention becomes a necessity, and this forces us to overlook our own emotional threshold. We begin to move away from our comfort zones to become popular, "liked" and than fail to realise when we have moved too far away from our own nature. By then, we are trapped in this false identity we have created for ourselves. It leads to huge conflict between our external and internal identities.And that creates an imbalance in our brain which leaves us at our vulnerable best." Bhawna Monga psychologist.
उपरोक्त विश्लेषण को समझने से इस बात पर भी गौर करना उचित लगता है कि आखिर किस तरह की चाहते या इच्छाओं के कारण इंसान खुदगर्ज कहलाता है। सरसरी तौर पर जो प्रमुख कारण हो सकते है, उन पर एक नजर डालते है।
1. अति सुख और उसके साधनों की
2. देखा देखी, प्रतिस्पर्धा
3. देखे हुए सपनों की पूर्ति
4. नासमझी
5. भोग विलास लिप्त जीवन
6. सामाजिक और राजनैतिक प्रभाव हासिल करने की चाहत
7. प्रसिद्धि,
8. जीवन और नैतिक सिद्धान्तों की अज्ञानता
कभी कभी विपरीत परिस्थितियों से जूझता आदमी मजबूरी से खुदगर्ज बन जाता है, ये कुछ समय की बात होनी चाहिए जब तक संघर्ष की अवधि रहे, इससे स्वभाव पर प्रभाव न आये, ये ध्यान रहे तो सही होगा।
जीवन वही कहलाता, जो अपने शरीर- सुख के लिए कम पर आत्मा-परमात्मा के लिए ज्यादा समर्पित रहता है। ये तभी सार्थक हो सकता, जब हम परिवार, रिश्तों, दोस्तों, समाज, देश और विश्व के प्रति अपनी सेवा-भाव की जिम्मेदारी समझे। खुद्दार होकर अपनी जरूरतों के लिए दूसरों पर बोझ न बने। आज के युग में सेवा का महत्व कम आंका जा रहा, उसका एकमात्र कारण अर्थ की लालसा है। आज हर सेवा को हमने वाणिज्यक महत्व दे दिया है, अतः सही होगा, हम खुद्दार बने। अर्थ का महत्व कितना ही क्यों न हो वो आत्म-सम्मान की कीमत तयः नहीं कर सकता। हम जितने खुद्दार होंगे, हमारा आत्म-सम्मान उतना ही सुरक्षित रहेगा।अतः लेखक का मानना है, खुदगर्जी से ज्यादा अच्छा है, खुद्दार होकर दूसरों की सेवा में जीवन अर्पित कर देना।
*" यही पशु प्रवृति है कि आप आप ही चरे।
मनुष्य है वही कि जो मनुष्य के लिए मरे। " (मैथली शरण जी गुप्त की एक कविता का सार)
**"सुखिनः भंवतु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः,
सर्व भद्राणि पश्यंतु मा काश्चित दुःख भाग भवेत।।" ( सार: दूसरों के परोपकार में ही सुख का अनुभव हो सकता है।
लेखक: *कमल भंसाली*