"महाभारत का एक अंश"
कुरुक्षेत्र की भूमि पर महाभारत का युद्ध अपने अंतिम चरण की ओर बढ़ रहा था...पूरे कुरुक्षेत्र मे लाशों का अम्बार लगा था....रण भूमि रक्त से लाल हो चुकी थी और समग्र आकाश मे गिद्ध दिखाई दे रहे थे....रक्त से जगह जगह तालाब भर चुके थे जिनके बीच मे ही पितामह भीष्म, अर्जुन द्वारा बनाई गयी बाणों की शय्या पर लेटे हुए अपने कर्मों का कष्ट भोग रहे थे और अपने ही परिवार का अंत अपनी आँखों से देख रहे थे....
द्रोणाचार्य, दुषाशन और उसके समस्त भाई मारे जा चुके थे....भीम द्वारा अपने अनुज दुषाशन की निर्मम मृत्यु देखकर दुर्योधन पांडवो से प्रतिशोध की अग्नि मे जल रहा था....तब शकुनि ने उसकी व्यथा का निवारण करते हुए उससे कहा...
शकुनि-मेरे बच्चे दुर्योधन! हमारे साथ हुए छल का उत्तर अब छल से ही देना होगा उन पांडु पुत्रों को।
दुर्योधन बड़े ही विचलित मन के साथ रोते हुए शकुनि से बोला- छल!..कैसा छल मामा श्री!....मेरे सामने मेरे अनुजो को उस पांडु के पुत्र भीम ने मार डाला....और वो अर्जुन जिसने षड्यंत्र से पितामह का समर्पण करा लिया...उनके साथ कैसा छल करेंगे आप मामा श्री।
कर्ण-मामा श्री!...मित्र दुर्योधन बिल्कुल उचित कह रहे हैँ और जो युद्ध छल से जीता जाए उससे किसी की श्रेष्ठता का प्रमाण नहीं मिलता।
शकुनि-अंगराज कर्ण!....आपको अभी भी अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करनी है....ऐसी श्रेष्ठता का क्या लाभ जो मेरे भांजों के प्राणो की रक्षा तक ना कर सकी....तब कहाँ थी ये श्रेष्ठता अंगराज जब वो वृकोदर भीम मेरे बच्चे दुषाशन की भुजायें उखाड़कर,उसकी छाती चीरकर उसका लहू पी रहा था।
दुर्योधन-शांत हो जाईये मामाश्री!... मेरे ह्रदय की पीड़ा को और मत बढ़ाइए...
कर्ण-मित्र दुर्योधन आप मुझे बताइये की मै किस प्रकार आपकी इस पीड़ा को कम कर सकता हूँ।
दुर्योधन-मित्र अब ये पीड़ा तब ही कम होगी जब उन पांचो पांडवो की मृत्यु होगी।
शकुनि यज्ञ शुरु करते हुए कहता है-अवश्य होगी!....अवश्य होगी मृत्यु उन पांचो पांडवो की मेरे बच्चे।
शकुनि उस यज्ञ से नगराज तक्षक को आवाहं देने लगता है,तभी कर्ण, दुर्योधन से कहता है....
कर्ण-मित्र दुर्योधन ये तो अधर्म होगा....और साथ ही नागों का युद्ध मे भाग लेना निशिध् है,तो नियमों के विरुद्ध भी मित्र।
दुर्योधन-किस धर्म-अधर्म की बात कर रहे हो अंगराज....स्मरण रहे आपने अभी तक एक भी पांडव का वध नहीं किया और उन पांडवो ने हमारी समग्र सेना का विनाश कर दिया....आप भूल गए अंगराज,की किस तरह गुरु द्रोण के साथ छल करके उन्होंने उनका वध किया....क्या वो अधर्म नहीं था मित्र?
तो फ़िर मै क्यूँ विचार करूँ उन पिशाचों के साथ धर्म-अधर्म के युद्ध का.......स्मरण करो मित्र उन पांडवो ने राक्षस 'घटोत्कच ' की सहायता ली थी...तो मै भी अब तक्षक की सहायता लूं तो इसमे कैसा अधर्म मित्र...बताओ मुझे कैसा अधर्म!
कर्ण-किन्तु मित्र घटोत्कच,भीम का पुत्र था...और वो युद्ध मे रक्त के संबंध से भाग लेने आया था...लेकिन तक्षक नाग के साथ हम मे से किसी का भी कोई सम्बन्ध नहीं...
शकुनि-अंगराज कर्ण!..जो शत्रु का शत्रु होता है उसका साथ सम्बन्ध भी अवश्य होता है....स्वार्थ का सम्बन्ध.....स्वार्थ का संबंध जो की रक्त के संबंध से भी अधिक दिव्य होता है।
नागराज तक्षक आवाह....नागराज तक्षक आवाह...
और शकुनि के आवाहं से तक्षक उस यज्ञ से प्रकट हो जाता है।
दुर्योधन-नागराज क्या आप शत्रुओ को पराजित करने मे क्या हमारी सहायता करेंगे?
तक्षक-अवश्य....इसी अवसर की प्रतीक्षा थी मुझे...मैंने बहुत वर्षो तक इसी क्षण के लिए साधना की है। अपनी माया और अपने विष को बलवान बनाया है मैंने...ऐसा विष जो किसी भी दिव्य औषधि की कामना करने तक का अवसर ना दे....ऐसा विष है मेरे अंदर उस पांडु पुत्र अर्जुन के लिए।
मै अंगराज के बाण पर बैठूंगा....बाण अंगराज का होगा और विष मेरा.....
मृत्यु अर्जुन की होगी....प्रतिशोध मेरा होगा....और विजय आपकी होगी युवराज दुर्योधन।
कर्ण-ये अनुचित है मित्र....आप मेरे सामर्थ्य पर विश्वास रखिये....मै बिना किसी छल के कल युद्ध भूमि मे अर्जुन का वध कर दूंगा....किन्तु ये अधर्म नहीं करूँगा....
शकुनि-अंगराज अभी आपको ये अधर्म लग रहा है किन्तु जब युवराज दुर्योधन की विजय होगी तब हम इस धर्म और अधर्म को ही बदल देंगे...क्यूंकि विजयी बनने के पश्चात उस विजेता का हर शब्द
..धर्म होता है....इसलिए कल युद्ध के पश्चात तक्षक युद्ध मे अवश्य भाग लेगा जिससे उस धूर्त अर्जुन की मृत्यु निश्चित ही होगी।
तक्षक-अंगराज कर्ण आप जिस बाण से मेरा नाम लेकर अर्जुन पर प्रहार करेंगे उस बाण पर मै विराजमान रहूँगा जिसका अर्जुन के पास कोई रक्षा अस्त्र नहीं होगा....और मै आपके लिए दूसरा शक्ति अस्त्र बन जाऊँगा...
इसी के साथ सूर्योदय होने लगता है और युद्ध के लिए सभी योद्धा सज्ज होने लगते हैँ,किन्तु युद्ध मे जाने से पूर्व ही माता कुंती कर्ण के समक्ष प्रस्तुत होती हैँ...
कर्ण-राजमाता! आपके चार पुत्रों का जीवन दान मै पहले ही आपको दे चुका हूँ....कहीं आप आपने पांचवे पुत्र 'अर्जुन' का जीवन दान तो माँगने नहीं आई हैँ...क्यूंकि मै वो दान आपको नहीं दे सकता राजमाता...
कुंती माता-पुत्र कर्ण....यदि किसी के देह का एक भी अंग कट जाए तो उसकी पीड़ा उसके पूरे शरीर को होती है....इसी प्रकार यदि एक माँ की किसी भी संतान का जीवन संकट मे हो तो पीड़ा उसकी माँ के प्राणो पर भी संकट होता है....लेकिन मै यहाँ तुमसे अपने पुत्र का जीवन दान माँगने नहीं...एक विनती करने आयी हूँ...ये लो पुत्र उठाओ इस तलवार को और अपनी माँ पर एक कृपा करो पुत्र....मै तुम्हारे किसी वचन को तोड़ने के लिए नहीं कह रही पुत्र....किन्तु प्रति क्षण इस पीड़ा को भोगने से तो अच्छा मै इसी क्षण मर जाऊं....माता कुंती रोते हुए अपने हाथों मै अस्त्र लिए कर्ण से ये कहती हैँ।
कर्ण तुरंत ही तलवार माता कुंती के हाथ से लेते हुए कहता है-ये आप क्या कह रहीं है माता।
कुंती माता-उचित ही तो कह रहीं हूँ मै पुत्र....आज जब मेरे दोनों पुत्र एक दूसरे के प्राण लेने के लिए युद्ध करेंगे तो उस हर एक पल मै मुझे मेरी मृत्यु का आभास होगा...और जब तुम अपने अनुज के प्राण लोगे तो मेरी ह्रदय गति चलते हुए भी, मेरी देह से मेरे प्राण छूट जाएंगे पुत्र...
कर्ण भी नम आँखों से कहता है।
कर्ण-ऐसा मत कहिये माता....आप कई योद्धाओ की माता हैँ....इसलिए आपके मुख से ऐसे शब्द ज़रा भी शोभा नहीं देते.....आप राज माता हैँ यानि राज्य की माता और आपके पुत्र समर्थ हैँ....ऐसे शब्दों से उनके सामर्थ्य को लांछन लगेगा माता।...जब उन्हें ज्ञात होगा की उनकी माता उनके प्राणो की रक्षा हेतु अपने प्राणो की आहुति दे रहीं है।...आप चिंता मत कीजिये माता मुझे अपने वचन का स्मरण रहेगा...और आप सिर्फ और सिर्फ पांच पांडु पुत्रों की माता के रूप मे ही समग्र विश्व मे अनंत काल तक जानी जाएंगी.....अब मुझे आज्ञा दीजिये माता...
महाभारत युद्ध का अठारहवां दिन---
युद्ध फ़िर शुरु होता है और सारथी शल्य के साथ रथ पर एक तरफ़ कर्ण और वासुदेव कृष्ण का सार्थ प्राप्त किये हुए दूसरी तरफ़ अर्जुन...युद्ध भूमि मे उतरते ही आमने सामने जा पहुंचते हैँ ....और कर्ण के आवाहन के साथ ही दोनों के बीच भयंकर द्वन्द शुरु हो जाता है...कुरुक्षेत्र मे बाणों की वर्षा होने लगती है....जब जब उनके बाण टकराते करूक्षेत्र गूँज उठता....एक के बाद एक मायावी बाण....और इसी बीच हर हार के बाद मद्रराज शल्य बार-बार अपने कटु शब्दों से कर्ण का अपमान कर रहे थे....इसी बीच अर्जुन के गाण्डीव से निकला एक बाण कर्ण के रथ मे जा लगा और उसका छत्र ध्वस्त हो कर गिर गया....
कर्ण-आपने रथ दूसरी दिशा मे क्यों नहीं घुमाया मद्रराज?
शल्य-अगर मै ऐसा करता तो उस छत्र की जगह आपका मस्तक होता अंगराज कर्ण....अपनी असफलता को दोष अपने सारथी को मत दीजिये अंगराज....अपनी हार मानिये और समर्पण कर दीजिये अर्जुन के समक्ष।
कर्ण-अगर आपने इसी क्षण अपना मुख बंद नहीं किया मद्रराज तो इसी क्षण मै आपका वध कर दूंगा....
ये कहने के पश्चात ही कर्ण अपने रथ से नीचे उतर कर बोले- राजा शल्य मुझे आपके रथ की कोई आवश्यकता नहीं मै भूमि पर खड़े रहकर भी युद्ध कर सकता हूँ।
अर्जुन-लेकिन मै रथ से नीचे खड़े योद्धा के साथ युद्ध नहीं करता अंगराज।
कर्ण-तो नीचे आ जाओ अर्जुन!
कर्ण से युद्ध करने के लिए अर्जुन भी अपने रथ से नीचे उतरने लगे...तभी श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा...
वासुदेव कृष्ण-नहीं पार्थ! अब तुम्हें रथ से नीचे उतरने की कोई आवश्यकता नहीं...
अर्जुन-किन्तु क्यूँ माधव?
वासुदेव कृष्ण मुस्कुराते हुए बोले -पार्थ! जब एक योद्धा बिना विजयी हुए अपने रथ से नीचे उतर जाए तो इसका केवल एक ही अर्थ होता है....की उसने शरणागति स्वीकार कर ली...और इस समय अंगराज अपने रथ से नीचे खड़े हैँ पार्थ....उन्होंने स्वयं रथ का त्याग कर अपनी पराजय स्वीकार कर ली...अब उनके साथ युद्ध करना व्यर्थ है।
उसी वक़्त शकुनि और दुर्योधन वहाँ पहुंचकर कर्ण से कहते हैँ...
शकुनि-अंगराज इस तरह तो अर्जुन को जीवनदान प्राप्त हो जायेगा....आप तक्षक की सहायता क्यूँ नहीं ले रहे हैँ?
कर्ण-मै स्वम् रथ से नहीं उतरा बल्कि मद्रराज के अपमान जनक शब्दों से मैंने रथ का त्याग किया है,मित्र।
दुर्योधन-मद्रराज शल्य अगर आपके मुख से अब एक भी शब्द निकला तो इस युद्ध के अंत तक आप मृत होकर भी रथ को खींचते रहेंगे और ये मै स्वम् सुनिश्चित करूँगा।......मित्र कर्ण जाओ वापस अपने रथ पर विराजमान हो जायो और तक्षक की सहायता से इस अर्जुन का वध कर दो।
कर्ण वापस रथ पर चढ़कर-मै बिना तक्षक की साहयता लिए बिना भी अपनी विद्या से अर्जुन का वध कर सकता हूँ मित्र।
शकुनि-अंगराज अब हमें आपके सामर्थ्य और शौर्य को देखने मे कोई रूचि नहीं।
दुर्योधन-मामा श्री बिलकुल उचित कह रहे हैँ मित्र....अब शीघ्र ही तुम तक्षक की साहयता से अर्जुन पर प्रहार करो....ये एक मित्र को दिया हुआ वचन समझो......मुझे बाध्य मत करो आदेश देने के लिए।
दुर्योधन की बातों से आहत होकर कर्ण ने अपना धनुष उठाते हुए नागराज तक्षक का आवाहं किया किन्तु उस बाण पर तक्षक के पुत्र अश्वसेन ने अवरोहण कर लिया....जब तक कर्ण कुछ समझ पाते उनके धनुष से बाण छूट गया।
अर्जुन ने भी उत्तर मे कई बाण छोड़े लेकिन कर्ण का बाण तेज़ी से अर्जुन की तरफ़ जाता चला गया....कृष्ण तत्काल स्तिथि समझ गए और उन्होंने नंदी घोष के सभी श्वेत अश्वों को घुटनो के बल झुका दिया जिससे कर्ण का बाण अर्जुन के मुकुट के टुकड़े-टुकड़े करता हुआ निकल गया....अगले ही क्षण अर्जुन ने क्रोध मे आकर तक्षक पुत्र अश्वसेन का वध कर दिया।
शकुनि-ये सब उस दुष्ट वासुदेव की ही माया है पुत्र दुर्योधन...जब तक ये कृष्ण अर्जुन के साथ है कोई उसका वध नहीं कर सकता।
वासुदेव कृष्ण ने पार्थ को कर्ण द्वारा किये गए छल को दिखाया और नंदी घोष को घुमाकर दूसरी दिशा मे लेजाने लगे।
कर्ण-मित्र दुर्योधन आप मुझे आज्ञा दीजिये...आज मुझे अपने प्राणो की आहुति ही क्यूँ ना देनी पड़े लेकिन मै अपने वचन को पूर्ण करके रहूँगा मित्र।
चलिए मद्र राज रथ को अर्जुन के पीछे ले चलिए।
अर्जुन का रथ वायु की गति से भाग रहा था और कर्ण उसका पीछा करते हुए बार बार उसे युद्ध का आवाहं दे रहे थे। तब अर्जुन ने श्रीकृष्ण से प्रश्न किया.....
अर्जुन-हे माधव! क्या हमें युद्ध के लिए रुकना नहीं चाहिए....यूँ पीठ दिखाकर भागना तो कायरता है,इस से मेरे सामर्थ्य पर भी लांछन लगेगा गोविन्द।
श्रीकृष्ण ने बड़ी ही विनम्रता से उत्तर दिया-पार्थ! युद्ध मे पीठ दिखाकर भागना कोई कायरता नहीं बल्कि ये भी एक प्रकार की नीति है...स्मरण करो पार्थ मेरा एक नाम ""रणछोड़ ""भी है।
कुछ समय बाद अर्जुन का रथ धीमा होने लगा और श्री कृष्ण ने रथ जैसे ही वापस घुमाया....तभी उनकी ओर आते कर्ण के रथ का पिछला पहिया भूमि मे धंस गया।
कर्ण-शीघ्र कीजिये और रथ का पहिया बाहर निकालिये मद्रराज!
शल्य-मै आपका सारथी हूँ अंगराज और आपको मुझे आदेश देने का कोई हक नहीं.....मै एक क्षत्रिय हूँ कोई सूत पुत्र नहीं जो आपके रथ का पहिया निकालने का लिए भूमि पर बैठूं।
कर्ण-किन्तु मै अभी भी एक सूत पुत्र हूँ मद्रराज,इसलिए मुझे आपकी साहयता की कोई आवश्यकता नहीं....मै स्वम् ही रथ को मुक्त कर लूंगा..
ये कहते हुए कर्ण रथ से उतरकर भूमि मे धंसे पहिये को बाहर निकालने का प्रयत्न करने लगा। उसके सामने अर्जुन आ खड़ा हुआ और उसे युद्ध का आवाहं देते हुए रथ पर विराजमान होने के लिए कहा....लेकिन कर्ण की सम्पूर्ण शक्ति से भी उसके रथ का पहिया बाहर नहीं निकल रहा था......तब श्री कृष्ण ने उस से कहा...
वासुदेव कृष्ण-स्मरण करो अर्जुन!एक ब्राह्मण का शाप था तुम्हें जब तुम अपने रथ से तेज रफ्तार मे जा रहे थे...तब तुम्हारे रथ के नीचे एक गाय की बछिया आ गई थी...जिससे उसकी मृत्यु हो गई। ब्राह्मण ने क्रोध मे आकर तब तुम्हें शाप दिया था कर्ण की जिस रथ पर चढ़कर अहंकार में तुमने गाय की बछिया का वध किया है उसी प्रकार निर्णायक युद्ध में तुम्हारे रथ का पहिया धरती निगल जाएगी और तुम मृत्यु को प्राप्त होगे। ये वही शाप सफल हुआ है जो तुम्हारे ही कर्मों का फल है कर्ण।
कुछ ही क्षण पूर्व तुमने अर्जुन को युद्ध का आवाहं दिया था अर्जुन अब उस आवाहं को स्वीकार करता है।
अर्जुन-किन्तु माधव एक योद्धा कभी निशस्त्र योद्धा पर प्रहार नहीं करता।
माधव-पार्थ! ये समय केवल युद्ध को पूर्ण करने का समय है इसलिए उठाओ अपने शस्त्र को और वध करो अंगराज का....वही हैँ जो दुर्योधन को विजय प्राप्त करा सकते हैँ इसलिए इस समय उनका वध करना ही अनिवार्य है पार्थ।
कर्ण-धर्म का त्याग मत कीजिये वासुदेव! एक बार मुझे अपने रथ का चक्का निकालने दीजिये तत्पश्चात मे अर्जुन के साथ युद्ध अवश्य करूँगा।
वासुदेवकृष्ण-किन्तु एक स्त्री को परुषों से भरी सभा मे,उसके पांच पतियों को छल से बाध्य कर,अपने शब्दों के शस्त्र से वेश्या कह कर आप अपने धर्म का त्याग कर सकते हैँ अंगराज कर्ण!
कर्ण दोबारा से अपने रथ का चक्र निकालने की कोशिश करने लगे...
माधव-सूर्यआस्त होने वाला है पार्थ...एक योद्धा को संकल्प लेने के पश्चात विचलित होना शोभा नहीं देता पार्थ....बाण चलाओ पार्थ!
अर्जुन श्रीकृष्ण के आदेश पर धनुष उठाकर कर्ण पर निशाना साध लेता है की तभी...
कर्ण-मैंने जीवन भर धर्म ही धारण किया है अर्जुन....हमेशा तुमसे एक उचित द्वन्द माँगा है मैंने....मुझे एक बार अपने रथ का पहिया भूमि से मुक्त करा लेने दो फ़िर मै अवश्य ही तुमसे युद्ध करूँगा।
अर्जुन मौन हो जाता है और उसे मौन देखकर श्रीकृष्ण उसे बाध्य करते हुए कहते हैँ -विलम्ब मत करो पार्थ ....धनुष उठाओ!
कर्ण- अर्जुन!अगर तुम अधर्म करोगे तो मुझे भी अधर्म करना होगा....मै ब्रह्मास्त्र को आवाहन दूंगा जिसकी प्रचण्डता से समग्र आर्यवर्त का विनाश हो जाएगा।
वासुदेवकृष्ण - उठाओ धनुष पार्थ ये शब्द युद्ध करने का समय नहीं...
कर्ण-तो ठीक है वासुदेव!....मै अभी इसी क्षण ब्रह्मास्त्र को आवाहन देता हूँ...
ये कहकर कर्ण मंत्रों से ब्रह्मास्त्र को आवाहन देने लगते है लेकिन उनके अथक प्रयासों के बाद भी ब्रह्मास्त्र प्रकट नहीं होता जिससे वो विचलित हो उठते हैँ।
वासुदेव कृष्ण-पार्थ केवल संकट के समय मे ही अंगराज कर्ण को अपनी विद्या का विस्मरण होगा...अगर संकट का समय बीत गया तो उनकी विद्या उन्हें पुनः प्राप्त हो जाएगी....इसलिए धनुष उठाओ और अंगराज का वध करो पार्थ यही उपयुक्त है।
सारे संशय को दूर कर अर्जुन फिर अपने धनुष उठाने लगता है,तभी
कर्ण-रुक जाओ अर्जुन! एक योद्धा को अधर्म करना शोभा नहीं देता...और एक निशस्त्र योद्धा का वध करने से किसी की श्रेष्ठता सिद्ध नहीं होती अर्जुन!
वासुदेवकृष्ण क्रोधित होते हुए बोले -धर्म-अधर्म की बातें आपके मुख से शोभा नहीं देती अंगराज!....स्मरण करो कर्ण जब तुमने अभिमन्यु की हत्या की थी तब उसका हाथ मे ना कोई शस्त्र था और ना ही उसके शरीर मे रक्त की एक बूँद....क्या वो धर्म था अंगराज कर्ण?
कर्ण-वासुदेव मैंने पुत्र अभिमन्यु को बस उसकी पीड़ा से मुक्त किया था....मै वचन और आदेशों से बंधा हुआ था नारायण।
अर्जुन क्रोध मे-और उसे पीड़ा दे कौन रहा था अंगराज आपके अधर्मी मित्र....तब धर्म का विस्मरण हो गया था आपको!
ये कैसे वचन और आदेश थे अंगराज कर्ण जो आपको एक बालक को दो-दो पहर तक पीड़ा देने के लिए बाध्य करते रहे। उसे किसी एक योद्धा से द्वन्द करने तक का अवसर तक नहीं दिया गया था,किन्तु मै आपको एक अवसर देता हूँ अंगराज...अभी सूर्यास्त होने मै दो घड़ियां शेष हैँ...यदि एक घड़ी मै आपको अपनी विद्या का स्मरण नहीं हुआ अंगराज तो मै ""अंजलि अस्त्र"" से आपका वध कर दूंगा।
कर्ण बार बार अपनी विद्या का स्मरण करने की कोशिश करता रहा लेकिन अंततः हारकर वो खुद से ही सवाल पूछने लगा-मुझे मेरी विद्या का स्मरण क्यूँ नहीं हो रहा है भगवान परशुराम? मेरी विद्या,मेरा साहस,मेरा सामर्थ्य क्यूँ छूट रहा है मुझसे?
तब वासुदेव श्री कृष्ण ने समय को स्तब्ध कर कर्ण को ज्ञान दिया-अंगराज! आपने विद्या ना तो जन हित के लिए ग्रहण की थी और ना ही आपने धर्म की स्थापना करने के लिए अपनी विद्या का उपयोग किया...आपने तो केवल अपने प्रतिशोध को पूर्ण करने के माध्यम से विद्या ली थी।
आप जैसे शक्तिमान मनुष्य का आधार यदि अन्य शोषित और पीड़ित लोगों से भर जाता तो न जाने कितने जीवन सुख से भर जाते। आपके पास संभावना भी थी,सामर्थ्य भी था,विद्या भी थी और उस पीड़ा का अनुभव भी था अंगराज।किन्तु आपने अपना जीवन धर्म को समर्पित ही नहीं किया अपितु आपने अपने जीवन समर्पित कर दिया दुर्योधन को जिसके पक्ष मे केवल अधर्म था और कुछ नहीं।
अब देखिये अपनी स्तिथि को आप दुर्योधन के पक्ष मे खड़े रहे,आप पांचाली के वस्त्र हरण जैसे पाप के भागी बने,आप अपनी माता का सम्मान नहीं कर पाए,अपने ही भाइयों के दो पुत्रों की हत्या की आपने और आज अपना ही धर्म गँवाकर,अपनी विद्या अपना संतोष गँवाकर अपने ही अनुज से मृत्यु प्राप्त करने को सज्ज खड़े हैँ राधेय!
कर्ण-आप यथार्थ कह रहे हैँ गोपाल! किन्तु मै मित्र दुर्योधन द्वारा किये गए उपकारों का विस्मरण नहीं कर सकता।
श्री कृष्ण-किसी उपकार की बात कर रहे हैँ आप राधेय....क्या दुर्योधन ने आपका स्वीकार कर सूतों को विद्या प्राप्ति का अधिकार दे दिया,क्या दुर्योधन ने उन सभी पर अत्याचार करना बंद कर दिया।
नहीं!...नहीं राधेय! दुर्योधन ने बस आपके सामर्थ्य से मित्रता की थी ना की एक सूत पुत्र से.....उसके हर पाप का भागी बने हैँ आप राधेय।
और कुरुक्षेत्र मे आज जो ये विध्वंस हो रहा है उसका कारण ना तो दुर्योधन है और ना ही मामा श्री शकुनि ये पाप केवल तीनों महारथियों का है महामहीम भीष्म,गुरुद्रोण और आप राधेय.....आप तीनों ने अगर अपने माने हुए धर्म का त्याग करके यदि समाज के हित का विचार किया होता तो आज ये युद्ध ही ना होता राधेय।
अब आप अपने दुःखों का भूल जाइये,अपने अधर्म का त्याग कीजिये और अपनी मृत्यु को स्वीकार कर लीजिये, राधेय। इसी मै समग्र विश्व का कल्याण है राधेय।
कर्ण-किन्तु माधव! क्या मुझे समग्र विश्व मै एक अधर्मी के रूप मे ही जाना जायेगा क्या मेरे धर्मों का कोई मूल्य ही नहीं?
वासुदेव कृष्ण-नहीं राधेय! तुम्हें तुम्हारे कर्मों का फल अवश्य मिलेगा...."'''इसलिए मै वासुदेव कृष्ण तुम्हे तुम्हारे किये गए कर्मों के फ़लस्वरूप तुम्हें वरदान देने को सज्ज हूँ....मांगो कर्ण क्या वरदान मांगते हो...
कर्ण-नारायण मै अपने पापों से मुक्त नहीं होना चाहता क्यूंकि उसके पश्चात भी शेष जीवन भर मुझे अपने पापों का स्मरण रहेगा.....और ना ही मै जीवन दान माँगने की इच्छा रखता हूँ माधव.....किन्तु आप मुझे सिर्फ एक वरदान दीजिये.....की मेरी मृत्यु के पश्चात मेरा अंतिम सरकार समग्र संसार मै ऐसी जगह किया जाए जहाँ कभी अधर्म ना हुआ हो गोविन्द।
श्रीकृष्ण-मै वासुदेव कृष्ण तुम्हें ये वरदान देता हूँ कर्ण...की तुम्हारा अंतिम संस्कार सिर्फ उसी जगह होगा जहाँ हमेशा धर्म हुआ हो।""""""
कर्ण हाथ जोड़ते हुए श्रीकृष्ण के सामने बैठकर बोला-मै आपके आदेश को स्वीकार करता हूँ नारायण....किन्तु मेरा आपसे बस एक आखिरी प्रश्न है...की जिस सामर्थ्य को सिद्ध करने के लिए मैंने जीवन भर अपना और अब अपनों का रक्त बहाया...क्या मेरा वो सामर्थ्य कभी सिद्ध नहीं होगा गोविन्द?
नारायण-राधेय! आपके हाथ मै आपका धनुष नहीं,आपका रथ भूमि मे धंसा हुआ है और आपको अपनी विद्या का विस्मरण हो चुका है.....इस अवसर का लाभ उठाकर आपका वध करना पड़ रहा है...क्या ये आपके सामर्थ्य का प्रमाण नहीं।
इतना सुनते ही कर्ण वासुदेव के चरणों स्पर्श करने लगा तभी गोविन्द ने उसे उठाकर अपने ह्रदय से लगा लिया।
ज्ञान समाप्त हुआ और युद्ध पुनः जीवित हुआ।
कर्ण-एक घड़ी बीत चुकी है अर्जुन अब तुम मेरा वध अवश्य कर सकते हो किन्तु मै भी सूत पुत्र हूँ अपने रथ को बाहर निकालने का प्रयत्न अवश्य करूँगा।
कर्ण दोबारा से रथ को बाहर निकालने का प्रयास करने लगा परन्तु अर्जुन बहुत ही संशय मै था उसकी आँख से अश्रु की धारा बह रही थी....उधर सूर्यअस्त होने को था। तब श्री कृष्ण ने अंतिम बार अर्जुन से कहा...
श्रीकृष्ण-सूर्यास्त मे बस कुछ पल शेष हैँ पार्थ....यही समय है गाण्डीव उठाओ और वध कर दो अंगराज का....मुक्त करो उन्हें उनके पापों के भार से पार्थ।
अर्जुन ने अपना धनुष उठाया और अंजलि अस्त्र का आवाहं कर कर्ण की ओर छोड़ दिया।
अर्जुन का बाण सीधा कर्ण की गर्दन मे जा कर लगा और वो धरती पर गिर गया।
कर्ण के गिरते ही अर्जुन के हाथ से उसका गाण्डीव छूट गया और वो रथ से नीचे आ गया.....जिसके साथ ही सूर्यास्त हो गया और एक भयानक रुदन से पूरा कुरुक्षेत्र गूँज उठा....वो रुदन माता कुंती का था जो लाशों के अम्बार मे अपने पुत्र कर्ण को ढूंढ़ती हुई उसकी ओर आ रहीं थी।
सभी पांडव भी उस रुदन को सुनकर अर्जुन की ओर दौड़े चले आये और अपनी माता की पीड़ा देख संशय मे पड़ गए।
कुंती ने कर्ण के पास आते ही उसका सर अपनी गोद में रख लिया और विलाप करने लगी।
युधिष्ठिर-ये हमारी माता शत्रु के वध पर क्यूँ रो रही है अर्जुन?
अर्जुन-हाँ माधव और माता अंगराज को बार- बार पुत्र कहकर क्यूँ पुकार रही है?
श्रीकृष्ण अर्जुन के कंधे पर हाथ रख अश्रु बहाते हुए बोले -पार्थ युद्ध समाप्त हुआ अब संबंधों का स्मरण करने का समय है।
पांचो पुत्र अपनी माता के समीप जा कर बैठ गए और युधिष्ठिर ने अपनी माता से उनके विलाप का कारण पूछा।
तब कुंती माता में पांडवो को बताया...
माता कुंती-पुत्रों ये तुम्हारे शत्रु नहीं बल्कि तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राता हैं.....तुम सब इनके अनुज ही पुत्रों....मैंने अपने जीवन भर तुमसे ये बात छुपाये रखी पुत्रों...इसके लिए मुझे कोई भी दंड दिया जाए तो मुझे स्वीकार है।
ये सुनकर पांडवो के पैरों तले ज़मीन खिसक गयी....सबकी आँखों से अश्रु बहने लगे और युदिष्ठिर को अपनी माता कुंती पर भयंकर क्रोध आ गया....
युधिष्ठिर कुपित होते हुए बोले-आपने हमारे ही हाथों से हमारे ज्येष्ठ भाई की हत्या करा दी माता....जिनके चरणों में हमें अपना पूर्ण जीवन समर्पित करना चाहिए था...आपके कारण आज हमने उनके ही प्राण ले लिए माता.....इतना बड़ा असत्य आपने हमसे छुपाये रखा। इस पाप का कष्ट समस्त स्त्रियों को अनंत काल तक झेलना पड़ेगा माता.....मै युधिष्ठिर समग्र स्त्री जाति को ये शाप देता हूँ की कोई भी स्त्री ज़्यादा समय तक किसी भी रहस्य को छुपा नहीं सकेगी....ये शाप है धर्मज्ञानी युधिष्ठिर का।
फ़िर कर्ण के अंतिम संस्कार की तयारी होने लगी और सत्य ज्ञान की स्थापना हेतु श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को कर्ण के अंतिम संस्कार करने का निर्णय सौंपा।
किंतु समग्र संसार मे भी तलाश करने के बाद किसी को ऐसा स्थान नहीं मिला जहाँ कोई अधर्म ना हुआ हो.....सिवाय एक जगह को जो की स्वम् विष्णु अवतार श्री कृष्ण के हाथ थे....जिनसे कभी कोई अधर्म नहीं हुआ था इसलिए कर्ण का अंतिम संस्कार दुर्योधन द्वारा श्री कृष्ण के हाथों पर किया गया।
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कई जगह खोज करने के बाद और तथ्यों को ज़्यादा से ज़्यादा स्पष्ट रूप से मैंने आपके समक्ष इस सार के माध्यम से लाने की कोशिश की है....अलग-अलग महाभारत की प्रतिलिपियों मे कई अलग-अलग बातें कहीं गयीं हैँ। लेकिन प्रत्येक शब्द का ज्ञान किसी को नहीं उम्मीद करता हूँ की आप सभी को ये छोटा सा अध्याय पसंद आएगा। कोई भी भूल चूक के लिए पहले ही क्षमा चाहता हूँ।
अपने विचारों और सवालों को कमेंट बॉक्स मे ज़रूर शेयर करें और अगर आगे भी आप महाभारत के ऐसे और रोचक अध्याय को पढना चाहते हैँ तो भी अवश्य बताएँ। 🙏
🌹🙏🌸जय श्री कृष्णा।🌸🙏🌹