Pawan Granth - 26 in Hindi Mythological Stories by Asha Saraswat books and stories PDF | पावन ग्रंथ - भगवद्गीता की शिक्षा - 26

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पावन ग्रंथ - भगवद्गीता की शिक्षा - 26


अध्याय अठारह
यह कथा दर्शाती है कि किस प्रकार निष्ठा पूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करने से व्यक्ति आत्म ज्ञान प्राप्त कर सकता है ।

कहानी (26) मैं चिड़िया नहीं

कौशिक नाम के एक ऋषि ने अलौकिक दिव्य शक्ति प्राप्त कर ली थी । एक दिन वे ध्यान मुद्रा में एक पेड़ के नीचे बैठे थे । पेड़ की चोटी पर बैठी चिड़िया ने उनके ऊपर बीट कर दी । कौशिक ने उसकी ओर क्रोध से देखा उनकी क्रुद्ध दृष्टि से तुरंत चिड़िया की मृत्यु हो गई । ज़मीन पर मरी हुई चिड़िया को देख कर ऋषि को बड़ी वेदना हुई ।

कुछ देर बाद सदा की भाँति वे अपने भोजन के लिए भिक्षा माँगने को निकले । वे एक घर के द्वार पर आकर खड़े हो गए । गृहस्वामिनी अपने पति को भोजन कराने में व्यस्त थी । वह शायद बाहर प्रतीक्षा करते हुए ऋषि के बारे में भूल गई थी ।पति को भोजन कराके वह बाहर आई और बोली, “मुझे दुख है कि मैंने आपको प्रतीक्षा कराई, मुझे क्षमा करें ।”

किंतु ऋषि कौशिक ने क्रोध से जलते हुए देखा, और कहा “देवी जी, तुमने मुझे बहुत देर तक प्रतीक्षा कराई, यह ठीक नहीं है ।”

“कृपया मुझे क्षमा कर दें,” महिला ने कहा, “मैं अपने बीमार पति की सेवा में लगी थी, इसलिए देर हो गई ।”

कौशिक ने उत्तर दिया, “पति की सेवा करना तो बहुत अच्छा है, किंतु तुम मुझे घमंडी स्त्री लगती हो ।”

स्त्री ने उत्तर दिया,”मैंने आपको प्रतीक्षा कराई क्योंकि मैं अपने कर्तव्य भाव से अपने बीमार पति की सेवा कर रही थी । कृपया मुझसे नाराज़ न हो । फिर मैं कोई चिड़िया तो नहीं, जो आपके क्रोध पूर्ण विचारों से मर जाऊँगी । आपका क्रोध ऐसी स्त्री को कोई हानि नहीं पहुँचा सकता जिसने अपने आपको पति और परिवार की सेवा में समर्पित कर दिया हो।

कौशिक ऋषि को बहुत आश्चर्य हुआ । वह सोचने लगे कि उस चिड़िया की मृत्यु की घटना के बारे में कैसे पता चला ।

स्त्री ने अपना कथन जारी रखा, “ हे महात्मन् , आपको कर्त्तव्य का रहस्य याद नहीं है, नहीं इस बात का ज्ञान है कि
क्रोध मानव-मन में रहने वाला सबसे बड़ा शत्रु है । मिथिला प्रदेश में स्थित रामपुर नगर में जाकर व्याध राज से भक्ति पूर्वक अपने कर्तव्य पालन का रहस्य सीखिए ।”

ऋषि कौशिक उस गॉंव में गये और व्याधराज नामक आदमी से मिले । उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वह कसाई की दुकान पर मॉंस बेच रहा था । कसाई अपने स्थान से उठा,उसने पूछा, “आदरणीय श्री मन् आप ठीक तो हैं न ? मुझे पता है कि आप यहाँ क्यों आए हैं ।आइये, घर
चलें।”

व्याध कौशिक ऋषि को अपने घर ले गया । कौशिक ने वहाँ एक सुखी परिवार देखा । उसे यह देख कर घोर आश्चर्य हुआ कि व्याध कितने प्यार और आदर से अपने माता-पिता की सेवा करता है । कौशिक ने उस कसाई से धर्म (कर्तव्य) पालन का पाठ सीखा । व्याध राज पशुओं का वध नहीं करता था । वह कभी मॉंस नहीं खाता था । वह तो पिता के अवकाश ग्रहण करने पर केवल परिवार का व्यापार चला रहा था ।

इसके बाद कौशिक अपने घर लौट आये । वहाँ उन्होंने अपने मॉं-बाप की सेवा करनी शुरू की अर्थात् उस धर्म का पालन करना जिसकी उन्होंने उपेक्षा कर रखी थी ।

इस कथा से हमें यही शिक्षा मिलती है कि तुम ईमानदारी से जो भी कर्तव्य तुम्हें जीवन में मिला है उसका पालन करते हुए आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर सकते हो । वही भगवान की सच्ची पूजा है ।

भगवान श्री कृष्ण हम सबके भीतर निवास करते हैं और हमारे अपने कर्म की पूर्ति में हमारा मार्गदर्शन करते हैं ।
अपना पूरा मन लगाकर कर्म करो और प्रसन्नता पूर्वक प्रभु की इच्छा मान कर परिणाम— सफलता या असफलता— को सहर्ष स्वीकार करो। यही परमात्मा को समर्पित होना कहलाता है ।

प्रभु प्राप्ति का सरल मार्ग—— शरणागति को गीता के श्लोक के अनुसार प्रभु प्राप्ति का परम मार्ग कहा गया है। ऐसा ज्ञान को — जिसमें अपना अस्तित्व तथा अपनी इच्छा का परित्याग हो तथा जगत में ब्रह्म के सिवा और कुछ भी नहीं है,और जीव , जगत और जगदीश अभिन्न है——
समर्पण या शरणागति कहते हैं । सब कुछ वही है और सब उसी का है, हम सब केवल उसके निमित्त मात्र हैं ।

आध्यात्मिक ज्ञान का दान सर्वश्रेष्ठ दान है ।क्योंकि आध्यात्मिक ज्ञान का अभाव ही विश्व के सब दुष्कर्मों का कारण है । आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार भगवान श्री कृष्ण की उच्चतम सेवा भक्ति है ।

सदा रहने वाली शान्ति और सम्पत्ति तभी सम्भव है, जब तुम निष्ठा पूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करो और भगवान श्री कृष्ण द्वारा श्री मद् भगवद्गीता में दिये गए आध्यात्मिक ज्ञान का पालन करो ।

अध्याय अठारह का सार—- भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि कर्मयोगी और संन्यासी में कोई वास्तविक अंतर नहीं है । कर्म योगी कर्म फल के प्रति अपनी स्वार्थ पूर्ण आसक्ति का त्याग करता है जबकि संन्यासी अपने किसी भी लाभ के लिए बिलकुल कर्म नहीं करता । संसार में दो प्रकार के सुख है— लाभकारी और हानिकारक।

समाज में विभिन्न व्यक्तियों के लिए उनके अनुकूल भिन्न-भिन्न काम हैं । व्यक्ति को अपना कर्म बहुत समझदारी से चुनना चाहिए । समाज में रहते हुए भगवान की प्राप्ति के लिए कर्तव्य, इंद्रिय-संयम और भगवान की भक्ति इन तीनों का पालन करना चाहिए ।


हरि ओम् तत् सत्

अनुभव—- दादी जी आपने प्रारंभ में , पहले अध्याय में बताया था कि भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध से पहले,युद्ध के मैदान में,श्री मद् भगवद्गीता की शिक्षा दी ।लेकिन युद्ध क्यों हुआ मुझे क्या आप बतायेंगी?


दादी जी— अनुभव, मैंने तुम्हें पहले अध्याय में युद्ध होने का कारण बताया था कि पांडवों को धृतराष्ट्र के सौ पुत्र कौरव उनके राज्य में से उनका हक़ नहीं देना चाहते थे।


अनुभव— दादी जी, युद्ध करने का कोई और भी कारण था क्या?


दादी जी— हॉं अनुभव, मैं तुम्हें इस समय पूरी महाभारत नहीं बल्कि संक्षेप में समझाने का प्रयास करती हूँ और तुम बड़े होने पर पढ़कर सब समझ जाओगे ।

युद्ध समाप्त होने पर श्री कृष्ण और द्रौपदी के संवाद से समझने का प्रयास करो।


अठारह दिन के युद्ध ने द्रौपदी की उम्र को अस्सी वर्ष जैसा कर दिया था । शारीरिक रूप से भी और मानसिक रूप से भी ।

शहर में चारों तरफ़ विधवाओं का बाहुल्य था । पुरुष इक्का- दुक्का ही दिखाई पड़ता था । अनाथ बच्चे घूमते दिखाई पड़ते थे । और उन सब की वह महारानी द्रौपदी हस्तिनापुर के महल में निश्चेष्ट बैठी हुई शून्य को निहार रही थी ।

तभी,

*श्री कृष्ण* कक्ष में दाखिल होते हैं ।

द्रौपदी
कृष्ण को देखते ही दौड़कर उनसे लिपट जाती है ।

श्री कृष्ण उसके सिर को सहलाते हैं और रोने देते हैं ।

थोड़ी देर में, द्रौपदी को खुद से अलग करके, समीप के पलंग पर बैठा देते हैं ।

द्रौपदी कहती है—- यह क्या हो गया सखा…?

ऐसा तो मैंने नहीं सोचा था ।

कृष्ण बोले — नियति बहुत क्रूर होती है पांचाली…

वह हमारे सोचने के अनुरूप नहीं चलती!

वह हमारे कर्मों को परिणामों में बदल देती है ।

तुम प्रतिशोध लेना चाहती थी और, तुम सफल हुई,
द्रौपदी !

तुम्हारा प्रतिशोध पूरा हुआ… सिर्फ़ दुर्योधन और दुशासन ही नहीं, सारे कौरव समाप्त हो गये ।

तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिए !

द्रौपदी दुःखी होकर बोली— सखा , तुम मेरे घावों को सहलाने आये हो या उनपर नमक छिड़कने के लिए?

कृष्ण ने कहा— नहीं द्रौपदी, मैं तो तुम्हें वास्तविकता से अवगत कराने के लिए आया हूँ ।

हमारे कर्मों के परिणाम को हम , दूर तक नहीं देख पाते हैं और जब वे समक्ष होते हैं तो हमारे हाथ में कुछ नहीं रहता।

द्रौपदी ने कहा— तो क्या, इस युद्ध के लिए पूर्ण रूप से मैं ही उत्तरदायी हूँ कृष्ण ?

कृष्ण—- नहीं द्रौपदी, तुम स्वयं को इतना महत्वपूर्ण मत समझो ।

लेकिन,
तुम अपने कर्मों में थोड़ी सी दूरदर्शिता रखती तो,
स्वयं इतना कष्ट कभी नहीं पाती ।

द्रौपदी— मैं क्या कर सकती थी कृष्ण ?

कृष्ण— तुम बहुत कुछ कर सकती थी ।

जब तुम्हारा स्वयंवर हुआ । तब तुम कर्ण को अपमानित नहीं करती और उसे प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए एक
अवसर देती तो, शायद परिणाम कुछ और होते !

इसके बाद जब कुंती ने तुम्हें पॉंच पतियों की पत्नी बनने का आदेश दिया, तब तुम उसे स्वीकार नहीं करती तो भी परिणाम कुछ और होते ।

और

उसके बाद तुमने अपने महल में दुर्योधन को अपमानित किया—-
कि अंधों के पुत्र अंधे ही होते है ।

वह नहीं कहती तो तुम्हारा चीर -हरण नहीं होता ।

तब भी शायद परिस्थितियाँ कुछ और होती ।

हमारे ‘शब्द’ भी हमारे ‘कर्म’ होते हैं द्रौपदी !

और, हमें

अपने हर शब्द को बोलने से पहले तोलना ,बहुत ज़रूरी होता है..
अन्यथा,

उसके दुष्परिणाम स्वयं को ही नहीं——- अपने पूरे परिवेश को दुखी करते रहते हैं ।

संसार में केवल मनुष्य ही एक मात्र ऐसा प्राणी है, जिसका ‘ज़हर’ उसके दांतों में नहीं, ‘शब्दों’ में है ।

इसलिए शब्दों का प्रयोग सोच समझ कर करो । ऐसे शब्दों का प्रयोग करो जिससे, किसी की भावना को ठेस न पहुँचे ।

महा भारत में बहुत से पात्र है जिनके आचार-विचार शुद्ध है और ऐसे भी पात्र हैं जिनके आचार-विचार शुद्ध नहीं है ।
हमें सदा अच्छी बातों को ग्रहण करना चाहिए , अनुभव ।

मैंने तुम्हें श्री मद् भगवद्गीता की शिक्षाओं सरल रूप में बताया । भगवद्गीता में जो श्लोक हैं वह मैंने नहीं बताये लेकिन उन्हीं को सरल भाषा में तुम्हें बताया है तुम बड़े होकर श्लोक भी समझ लोगे । कहते हैं भगवद्गीता को जितनी बार पढ़ा जाए उसके अनेक अर्थ समझ में आते हैं । हर समस्या का हल इसमें मिल जाता है ।

आज हम विश्राम देते हैं ।

हे कृष्ण हे यादव हे सखेती, हे नाथ नारायण वासुदेवा🙏


सभी पाठकों को नमस्कार 🙏
पहले अध्याय से ,अध्याय अठारह तक अवश्य पढ़िए और बच्चों को भी पढ़ाइए ।
आशा सारस्वत द्वारा लिखित बाल कहानियाँ और बाल उपन्यास “शुभि” मातृ भारती पर पढ़िए ।

विश्राम..