अध्याय अठारह
कर्तापन का त्याग द्वारा मोक्ष
अनुभव— दादी जी , मैं आपके द्वारा प्रयोग में लाए गए विभिन्न शब्दों के बारे में भ्रम में हूँ । कृपया मुझे स्पष्ट रूप से समझायें कि संन्यास और कर्म योग में क्या अंतर है ?
दादी जी— अनुभव,कुछ लोग सोचते हैं कि संन्यास का अर्थ परिवार, घर, संपत्ति को छोड़कर चले जाना और किसी गुफा में, वन अथवा समाज से बाहर किसी दूसरे स्थान पर जाकर रहना, किंतु भगवान श्री कृष्ण ने संन्यास की परिभाषा दी है—
सब कर्म के पीछे स्वार्थ पूर्ण कामना का त्याग । कर्म योग में व्यक्ति अपने कर्म के फल के भोग को स्वार्थ पूर्ण कामना का त्याग करता है । इस प्रकार संन्यासी एक कर्म योगी ही है, जो कोई भी कर्म अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं करता । संन्यास कर्म योग की ही ऊँची अवस्था है ।
अनुभव— क्या इसका यह अर्थ है कि मैं स्वयं ऐसा कुछ नहीं कर सकता, जो मुझे आनंद दे ?
दादी जी— यह तो इस बात पर निर्भर करता है कि तुम्हारे मन में किस प्रकार के आनंद की चाह है । धूम्रपान, मद्यपान, जुआ , नशीली चीजों का सेवन आदि जैसे कर्म आरंभ में आनंद जैसे लगते हैं, किंतु अंत में वे निश्चित ही दुष्परिणाम वाले सिद्ध होते है । विष का स्वाद लेते समय शायद अच्छा लगे , पर उसका घातक परिणाम तुम्हें तभी ज्ञात होता है, जब बहुत देर हो चुकी होती हैं । इसके विपरीत ध्यान-योग, उपासना, ज़रूरतमंद की सहायता जैसे कर्म शुरू में कठिन लगते हैं, पर अंत में उनका परिणाम बहुत ही लाभदायक होता है । पालन करने योग्य एक अच्छा नियम है ऐसे कामों को न करना, जो आरंभ में सुखदायी लगते हैं, पर अंत में हानिकारक प्रभाव का कारण बनते हैं ।
अनुभव— समाज में किस- किस प्रकार के काम उपलब्ध हैं , दादी जी?
दादी जी— प्राचीन वैदिक काल में मानवों के काम योग्यता पर आधारित होते थे । योग्यता के आधारित चार श्रेणियों में विभाजित किए गये थे ।
ये चार विभाजन हैं—- ब्राह्मण , क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र।
वे व्यक्तियों की मानसिक, बौद्धिक और भौतिक योग्यताओं पर आधारित थे । व्यक्ति की योग्यता ही निर्णायक तत्व था— न कि जन्म या सामाजिक स्थिति जिसमें व्यक्ति जन्मा था ।
धीरे-धीरे कुछ ऐसी व्यवस्था होती चली गईं, जो व्यक्ति जिस में जन्म लेता वह उसी जाति का कहलाता था । जो कार्य उनके द्वारा किया जाता वह उस कार्य में निपुण हो कर उसी कार्य को करते हुए परिवार का भरण पोषण करता ।
जाति व्यवस्था जन्म पर आधारित हो गई है कार्य से उसका कोई लेना देना नहीं ।
जिन लोगों की रुचि अध्ययन, अध्यापन , शिक्षा देने और लोगों का आध्यात्मिक तत्वों में मार्ग दर्शन करने में थी, वे ब्राह्मण कहलाते थे । ब्राह्मण सभी जातियों के लोगों के यहाँ शुभ कार्य और कर्मकांड करके और ज्ञान की शिक्षा देते थे । ज्ञान के द्वारा वह सभी को शुभ महूरतों के बारे में जानकारी देते हुए मंगल कार्य कराते थे । काल गणना के अनुसार सभी को वर्तमान में और भविष्य में अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देकर अपने परिवार का पालन करते ।इसी लिए कहा जाता रहा है कि ब्राह्मण पूज्यनीय होते हैं ।
जो लोग देश की रक्षा कर सकते थे, क़ानून और व्यवस्था स्थापित कर सकते थे, अपराधों को रोक सकते थे, वह क्षत्रिय कहे जाते थे ।जिसको भी आवश्यकता होती उसके लिए, या देश के लिए वह रक्षा करने में सहायता करते और अपने परिवार का भरण- पोषण करते ।
जो लोग खेती , पशु पालन , वाणिज्य, व्यापार, वित्त कार्यों और उद्योगों में विशेष योग्यता रखते थे , वैश्य नाम से जाने जाते थे । जिसको कठिन समय में धन की आवश्यकता होती उसे सहायता करते हुए देश की वित्तीय स्थिति को सुधारने में सहायता करते ।
वे लोग जो सेवा कार्य और श्रम कार्यों में निपुण थे, शूद्र वर्ण में गिने जाने लगे । वह सभी की सहायता करते, श्रम के माध्यम से अपने परिवार का भरण पोषण करते हुए ख़ुश रहते ।
लोग कुछ विशेष योग्यता के साथ पैदा होते हैं या शिक्षा और प्रयास द्वारा उस योग्यता का विकास कर सकते हैं ।
सामाजिक स्तर विशेष वाले परिवार में जन्म लेना, वह ऊँचा हो या नीचा, व्यक्ति की योग्यता का निर्णायक नहीं होता ।
अब अपनी योग्यता के अनुसार लोग कार्य करते हैं, जाति व्यवस्था के अनुसार ही नहीं ।
चतुर्वर्ण- व्यवस्था का अर्थ था व्यक्ति की निपुणता और योग्यता के अनुसार उसके काम का निश्चय करना ।
अनुभव— समाज में रहते हुए और काम करते हुए कोई भी व्यक्ति कैसे मोक्ष प्राप्त कर सकता है?
दादी जी— जब कर्म भगवान की सेवा के रूप में परिणामों के प्रति स्वार्थ पूर्ण आसक्ति के बिना किया जाता है, तो वह उपासना हो जाता है । यदि तुम वह कर्म जो तुम्हारे अनुकूल हैं, ईमानदारी से करते हो तो तुम कर्म फल से लिप्त नहीं होंगे और तुम्हें भगवान की प्राप्ति होगी ।
किंतु तुम यदि ऐसे कार्यों में लगते हो, जो तुम्हारे लिए नहीं था । तो ऐसा कर्म तनाव पैदा करेगा और तुम्हें उसमें अधिक सफलता नहीं मिलेगी । यह बहुत महत्वपूर्ण है कि तुम अपनी प्रकृति के अनुकूल उचित कर्म की खोज करो।
इसलिए तुम्हें अपने काम लेने का निर्णय लेने से पहले अपने को जानना चाहिए । तब वह काम तुम्हारे लिए तनाव पैदा नहीं करेगा और रचनात्मक काम करने की प्रेरणा देगा ।
कोई भी कर्म निर्दोष नहीं है । हर काम में कोई न कोई दोष रहता है । जीवन में अपना कर्तव्य (धर्म) करते हुए तुम्हें ऐसे दोषों की चिंता नहीं करनी चाहिए ।भगवान के प्रति भक्ति-भाव रखते हुए और आध्यात्मिक अभ्यास के द्वारा अपनी इंद्रियों को नियंत्रण में रखते हुए अपने कर्तव्य का पालन करने से तुम्हें भगवान की प्राप्ति होगी ।
अनुभव,मैं तुम्हें एक कथा कल सुनाऊँगी जो दर्शाती है कि किस प्रकार निष्ठा पूर्वक अपने कर्तव्य (धर्म)का पालन करने से व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त कर सकता है ।
क्रमशः ✍️
सभी पाठकों को नमस्कार 🙏
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