भारतीय समाज में माता-पिता का स्थान काफी ऊँचा माना गया है। एक बार देवताओं में त्रिलोक-भ्रमण की होड़ लगी थी। उस वक्त भगवान श्रीगणेश ने अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए अपने माता-पिता की प्रदक्षिणा कर त्रिलोक-भ्रमण के पुण्य को अर्जित कर लिया था। अतः माता के स्थान के साथ पिता के स्थान को भी महत्त्व दिया गया है।
हमारी संस्कृति में अनेक पिता ऐसे हुए हैं जिन्होंने अपने आदर्शों से अपने पुत्र का लालन-पालन किया। इस कड़ी में सर्वप्रथम अयोध्या के महाराज दशरथ तथा भगवान श्रीराम को रख सकते हैं। उन्होंने अपने पिता को कुल-खानदान की मर्यादा को बचाए रखने का मन्त्र दिया। उन्होंने श्रीराम को यह सीख दी कि चाहे प्रकृति अपने नियमों को छोड़ दे, सूर्य उदय होना छोड़ दे, मगर सत्य की रक्षा के लिए, शरणागत की रक्षा के लिए, ब्राहमणों की रक्षा के लिए तत्पर रहना है। इन सबके लिए जीवन यदि खतरे में पड़ता है तो भी हर्ज नहीं है। दशरथ ने काफी लाड-दुलार से श्रीराम के साथ-साथ अपने चारों बेटों को एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में स्थापित किया। यह आसानी से समझा जा सकता है कि जब श्रीराम को वन में उनके पिता के देहावसान की सूचना मिलती है तो उन्हें कैसा लगा होगा? लेकिन उनके दिए हुए वचन की रक्षा के लिए वे वन से वापस नहीं आए। भाई भरत क्षमा मांग रहे हैं लेकिन वे अपने पिता के दिए वचन को निभाने के लिए वन में ही रहे।
श्रीराम को महाराज दशरथ से जो सबसे बड़ी परवरिश मिली'' थी, वह थी सत्य के लिए जीवन भी दांव पर लगाना पड़े तो लगा दिया जाए। राम के भीतर जो सत्याचरण था, वह दशरथ की देन थी। संतान के भीतर मां बहती है, पिता प्रकट होता है। इसीलिए जब वनवास के समय राम को यह सूचना दी गई कि दशरथ का देहांत हो गया तो जीवन में पहली बार उनको ऐसा महसूस हुआ था कि मेरी नैतिक शक्ति का एक बहुत बड़ा स्रोत बंद हो गया। सच है, पिता की अनुभूति उसकी अनुपस्थिति में ही सबसे अधिक होती है। जिन लोगों ने असमय पिता को खोया होगा, वे जानते हैं पिता के बिना जीवन कैसा हो जाता है।
केसरीनंदन हनुमान के भी पिता केसरी को हम नहीं भूल सकते। हनुमानजी ने भी भक्ति भाव का एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया। उनके पिता केसरी ने उन्हें भगवान श्रीराम की सेवा के लिए समर्पित कर दिया। कभी भी उन्हें अपने पास नहीं बुलाया। केसरी ने अपने पुत्र को न केवल पराक्रमी बनाया वरन विद्वान भी बनाया। अपने पुत्र को सक्रिय रखने में वानरराज केसरी की भूमिका महत्वपूर्ण है। हनुमानजी ने गद्दारी ने नहीं की है। आदेश के विपरीत कार्य करने पर भी उन्हें उनके स्वामी ने कोई दंड नहीं दिया। जितेन्द्रिय बनाने में भी उनके पिता की भूमिका है।
महाराज द्रुपद ने अपने बच्चों को इंतकाम लेने के लिए तैयार किया। अपने बेटे-बेटी दोनों को इसके प्रशिक्षण दिया। द्रोणाचार्य बदला लेना द्रुपद नरेश का ध्येय था। इसी अपमान में वे जीवन भर जलते रहे। पुत्री द्रौपदी ने स्वयं कष्ट सहे लेकिन पिता के हुए अपमान की ज्वाला में वे जलती रहीं। पांच-पांच पतियों को संभालना या उनके साथ संतुलन रखना यह द्रौपदी की कला थी जो उन्हें उनके पिता से परवरिश में प्राप्त हुआ था। उनके भाई भी पिता के उद्देश्य को प्राप्त करने में लगे रहे। द्रौपदी ने बदला लेना अपने पिता से सीखा तथा कौरवों से बदला लेकर वे रहीं।
राजा जनक तथा माता सीता को हम कैसे भूल सकते हैं? महाराज जनक यदि चाहते तो वन से अपनी बेटी-दामाद को लाकर मिथिला में रख सकते थे। उन्होंने कभी इसके लिए प्रयास नहीं किया। उन्हें पता था कि बेटी का घर ससुराल ही होता है। जिस बेटी को मायके से प्यार हो जाता है वह बेटी जीवन भर परेशान रहती है। मायके से प्रेम होना एक सीमा तक ठीक है। सीमा से बाहर चले जाना न तो ससुराल के हित में है और न बेटी के हित में। कष्ट सहकर कैसे रहना है यह सीता ने चरितार्थ किया। यह जनक की शिक्षा का फल था। सीता ने अपने तथा ससुराल दोनों का नाम रोशन किया। ध्यान रहे कि सीता जनक की अपनी कन्या नहीं थी।
नन्द महाराज तथा श्रीकृष्ण के रिश्ते को भी देखना आवश्यक है। नन्द श्रीकृष्ण के पालक पिता थे। लेकिन उन्होंने श्रीकृष्ण के लालन-पालन में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन दोनों का रिश्ता अद्भुत था। नंद ने श्रीकृष्ण को इस तरह तैयार किया कि ब्रजवासी श्रीकृष्ण के दीवाने हो गए। आज के सन्दर्भ में यदि देखें तो यह विचित्र बात होगी।
शांतनु तथा देवव्रत के लालन-पालन को भी देखें। पिता की प्रसन्नता के लिए कितना बड़ा बलिदान देवव्रत ने कर दिया। आज के समय में यह कठिन है। आज तो पिता के प्राण ही पुत्र ले लेता है। अकेले जीवनयापन करनेवाले पिता का विवाह करा देना एक बहुत बड़ी घटना है। हालांकि महाभारत की नींव भी वहीँ से पड़ी। आजीवन ब्रह्मचर्य के पालन की प्रतिज्ञा के लिए देवव्रत जीवित रहे। इसके कारण उनका नाम भीष्म पड़ा। पिता ने भी उन्हें निराश नहीं किया। इच्छा मृत्यु का उन्हें आशीर्वाद दिया।
जमदग्नि-परशुराम की बात भी आज के सन्दर्भ में आवश्यक है। जमदग्नि ने अपनी पत्नी रेणुका की हत्या के लिए अपने पुत्र को आदेश दिया। परशुराम ने बिना सोचे-विचारे अपने पिता की आज्ञा का अनुसरण किया। इससे पिता प्रसन्न हो गए। उन्होंने अपनी माँ को जीवित करने का वरदान माँगा और माँ को जीवित करवा लिया। साथ ही इस घटना को माँ भूल जाए यह प्रतिज्ञा भी जमदग्नि से करवा ली।
बाली ने अपने अंगद को भी काफी संवारा था। बाली के निधन के बाद अंगद ने अपने पिता की विरासत को अपने चाचा के साथ बखूबी निभाया। अंगद जानते थे की लड़ने-झगड़ने से कोई लाभ नहीं मिलनेवाला है। अंगद को अपने पिता के हत्यारे का पता था लेकिन अंगद सब भूलकर भगवान श्रीराम तथा सुग्रीव की सेवा में लग गए। अंगद ने अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय लंका में रावण की सभा में दिया। अपने पांव को रावण की सभा में खूंटे की तरह रखा तथा रावण को भी पांव पकड़ने पर मजबूर कर दिया। रावण को अंगद ने लज्जित भी किया। अंगद को तराशने में बाली का योगदान अद्वितीय है।
अंत में धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बात कर लेते हैं। कौरवों के विनाश का कारण धृतराष्ट्र का पुत्र-मोह है। दुर्योधन ज्ञानी तथा बलशाली है। लेकिन उसके द्वारा गलत संगति में पड़ने पर, जानते-समझते हुए भी धृतराष्ट्र का कुछ न कहना समझ के परे है। जूआ खेलने की अनुमति उन्होंने कैसे दे दी? यह भी शोध का विषय है। जब पता है कि द्युत क्रीडा कुल के विनाश का कारण है। जहाँ भीष्म पितामह, विदुर सरीखे विद्वान, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य जैसे वरिष्ठ लोग हों तथा वहां अनर्थ हो जाए तो इसे क्या कहेंगे? धृतराष्ट्र को पुत्र-मोह में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था। इसकी परिणति महाभारत के रूप में हुई। दुर्योधन के जिद से पूरा खानदान नष्ट हो गया। उन्हें सावधान तथा सतर्क रहना चाहिए था।